एकान्त / कल्पतरु / सुशोभित
Gadya Kosh से
एकान्त
सुशोभित
सुशोभित
एकान्त में क्या सच में ही कुछ करुण होता है? या उसका रूप ही वैसा है, ऊपर से छलने वाला. "मुझको देखो", उसने कहा, "कैसा तो निस्संग हूँ. मूर्ति के जैसा अडोल. एक घड़ी बीत जाती है तब तंद्रा टूटती है कि यहाँ हूँ. तब जीवन के यत्न करता हूँ. एकान्त में भोजन. आलोक में पुस्तक. बहुतेरी युक्तियों का व्यवहार. पूरा पूरा दिन मौन खण्डित नहीं होता. कंठ में उस निर्वाक् की उजली उमंग भर जाती है. कोई विलग होकर देखे तो कहेगा, "आह, यह कितना करुण है!" उसको क्या पता, इससे पहले कभी नहीं था, ऐसा निरुद्वेग, इतना सुखमय, मेरा जीवन!"