दु:ख की व्याख्या / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
दुःख बहुत बेलौस क़िस्म की चीज़ है.
बहुत आदिम, बहुत बीहड़. और ज़रूरत से ज़्यादा अनगढ़!
दुःख की व्याख्या करना एक विचित्र प्रकार का हठ है.
मुझसे पूछो, "ह्यूमन कंडीशन" का प्रतिनिधि स्वर क्या है, तो मैं कहूंगा : "दुःख की व्याख्या करने का हठ!"
कमबख़्त, बहुत सारी मुसीबतें तो "कल्चरल" होती हैं.
गरज ये कि आप काफ़्का को ना पढ़ें, तो ज़िन्दगी बुरी नहीं ही है (बस आपके घुटने ही टूटे हो सकते हैं!)
"कल्टिवेटेड माइंड" ना हो तो आप हद से हद ऊब जावेंगे तो फिर चहक उट्ठेंगे. या हताश हो जावेंगे तो फिर मुस्कराने लगेंगे. या टूट गए तो फिर उठेंगे ही.
बार-बार उठ खड़े होने की विवशता को "सिसिफ़स का मिथक" लेकिन तभी कहेंगे, जब आल्बेयर काम्यू को पढ़ लिया हो. फिर उसमें आगे जोड़ देंगे वह रूपक, जो इमरे कर्तेश ने "सिसिफ़स" पर बढ़त लेते हुए "फ़ियास्को" में दर्ज़ किया था.
दुःख की व्याख्या करना दुःख का उत्सव मनाना है.
वह भी सुख की छलना है.
वरना दुःख तो कंठ में कालिमा की अनुभूति सा अनिर्वचनीय होता है, संध्यावेला में चौक बाजार पर फांकते धूल, बिना किसी आस! दुःख की व्याख्या वास्तव में व्याख्या का सुख है, यही समझकर अगली बार उठाइयेगा आलातरीन नॉविलनिगारों की किताबें, और उम्दा शाइरों के दीवान!
और उनकी उस विवश लालसा को बूझकर मुस्कराइयेगा!