अंत:करण / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
संसार में भले असंख्य सुख दु:ख हों किंतु संतोष एक ही है, कि- अंतःकरण पर कोई बोझ ना हो. और किसी उपादान या परिग्रह से अंतर नहीं पड़ता, संसार की आँख में कौन कितना सुखी, सफल, सामर्थ्यवान है, इसमें भी सार नहीं. संसार की आँख तो छलना है. पर जिसकी आत्मा में ग्लानि का दंश हो तो उसके लिए फिर यह सब एक तरफ़ रह जाता है.
जब रात को कोई सोने जाता है तो मन पर कौन सा बोझ लेकर जाता है? कौन सा पाप खटकता है? कौन सी बात कचोटती है? यही प्रश्न पूछने जैसे हैं. कोई अपने लिए खटता है या औरों के दु:खों से विषण्ण होता है? अपनी किस बात पर लज्जित होता है? होता भी है या नहीं? हर किसी को लज्जा नहीं आती, सब कोई में आत्मचिंतन नहीं होता. पर इससे जिसमें है उसे मुक्ति नहीं मिल जाती, उसके लिए यह अभिमान का प्रयोजन नहीं बनता. उसे तो अपना दायित्व-निर्वाह करना ही है.
एक भूल जिसे अब सुधारा ना जा सकता हो, पूरा जीवन आत्मा में कील की तरह चुभने को बहुत है. पछतावा दु:ख के साथ मिलकर और सघन हो जाता है, उससे दु:ख की टीस गहरा जाती है. उसकी कसक बड़ी करुण होती है. यों दु:ख से अंतर्तम निर्मल ही होता है. बड़े से बड़ा दु:ख सहकर आत्मा उजली ही होती है. क्योंकि दु:ख का आलम्बन मुझमें नहीं, मैं केवल दुःख भोगता हूं. रोग तो ग्लानि है. जिसके सामने अपना अपराध झलक गया, उसकी लम्बी यंत्रणा है. अपराध की चेतना ऐसी वस्तु है, जिसे नष्ट करना कठिन है. जिसे स्वयं से छुपाना दुष्कर है. बड़ी सिद्धि की बात है, बुरा करके अपने को अपने से बचा ले जाना.
अंतःकरण निकलंक रखकर पूरा जीवन जी जाना : इसके सिवा कोई और प्रयोजन नहीं. यही साध्य है. कोई और क्या करता है, उससे क्या? वो उसका तत्व है. वो ही जाने. स्वयं को ही देखना है, स्वयं को ही साधना है. हर किसी ने यही करना है. संसार में धूप-चाँदनी की तरह रहना है. यहाँ पर हैं पर यहाँ के नहीं हैं. जहाँ जाना है वहाँ की सोचना है. धूप मैली नहीं होती, चाहे जितनी धूल उड़ती हो. चाँदनी पर दाग़ नहीं लगता, चाहे रात में जितनी कालिमा. वैसा मन लेकर यहाँ रहना है, जितने दिन रहना है.
करुणा दु:ख का उपहार है. पछतावा ग्लानि का. जीवन में और कोई वस्तु संचय करने योग्य नहीं.