एक दिन और / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
पुस्तक को एक दिन में पढ़कर समाप्त हो जाना चाहिए। या जितने भी दिनों में वह पढ़ी जाए, वह मेरी चेतना में एक ही दिन हो।
मेरा अंत:करण उन तमाम पुस्तकों के अपराध से भरा है, जिनको मैंने अधूरा छोड़ दिया।
अधूरी फ़िल्म छोड़कर सो जाने का क्या अर्थ? मैंने जाने कितनी ही फ़िल्में इसीलिए नहीं देखीं कि जानता था एक बार में पूरा नहीं कर सकूंगा और दूसरी बार बैठूंगा, यह विश्वास नहीं रहा।
घड़ी रात को बारह बजे तारीख़ बदल देती। मैं स्वयं से कहता कि कैलेंडर पर आज का दिन पूरा हुआ। किंतु मेरा दिन तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कि मैं सोने नहीं चला जाता। तब बहुत देर तक एक तारीख़ दूसरी हो जाने के बावजूद पहली ही रही। फिर एक दिन ऐसा आया कि मैं पूरी रात नहीं सोया और दूसरा दिन आरम्भ हो गया। वह बड़ी विपदा थी। क्या वह सच ही दूसरा दिन था, या बीता हुआ कल दो दिनों जितना लम्बा हो चला था? इसका उत्तर मेरी भारी पलकों पर नहीं था।
समय की खेंच सदैव ही विषाद से भरती। सुख भी निरंतर हो तो विष है। फिर यह तो जीवन था, हताशा से भरा। इतने इतिहास और इतिहास के इतने अवसाद से भरा। यह मुनासिब नहीं था कि मैं एक इतना लम्बा दिन जीऊं, जिसमें पूरा पढ़ सकूं छह सौ पृष्ठों का एक उपन्यास।
जब-जब मैं किताब में मोरपंख रखकर सोया, मैंने स्वयं को निरस्त ही किया। जब-जब मैंने ढाल रखी, मैं हुआ हताहत। पूरे की चाहना से बड़ा सम्मोहन दूसरा कोई नहीं। पूरे की मरीचिका कभी खटती नहीं। और एक मेरे मन का मृग है, जिसकी तृषा का ठौर नहीं।
जहां भी दूर जल की रेख झिलमिलाई, प्यास ने कहा- मैं एक दिन और जीऊंगी।