गर्मियों के दिन / कल्पतरु / सुशोभित

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गर्मियों के दिन
सुशोभित


गर्मियों के दिन आते ही होंगे। आज तो बड़ी ख़ुश्क़ी अनुभव हुई। शरीर पर ऊन का स्वेटर पहना था, वो एक से अधिक मर्तबा मन को खटका। तरबूज़ों में रस भर रहा होगा, मैंने सोचा। धूप में वो सींझेंगे। निस्संग का सुख बनेंगे! आमबाग़ में झांक आने का मन हुआ कि अमियां आई हैं क्या? अब दिन लम्बे हो रहेंगे, संध्या की प्रतिच्छाया जैसे, मायावी। दिनों में पिघला कांसा भर जाएगा। वो देर तक तपेंगे और अपराह्न पछतावों से अवसन्न रहेंगी।

फ़रवरियों के आख़िर में मालूम होता है कि गर्मियों की एक गंध है। वो दूर से अनुभव होती है। फ़रवरियां जब मर रही होती हैं। फ़रवरियों को मर जाना चाहिए। मार्च इससे अधिक मेरे मन का मौसम है। मई तो और ज़्यादा। धूप की शिद्दत से जब सड़कें भर दोपहर ख़ाली हो जाएं, वो मंज़र मुझको लुभाता है। एक दिन की बात नहीं, यह तो अवसाद का चौमासा है। मन को आलस से भर देता है कि रुको, बड़े इत्मीनान से मरो, देरी तक दु:खों को भोगो! ये दिन जल्द ख़त्म नहीं होने वाले। मायूसियों की खेंच बड़ी लम्बी है।

मौसम का मौसम से जोड़ होता है, ये मौसम घुटने जोड़कर आते हैं। जिसने गए साल की गर्मियों को सहा था, वो भूल से भी ना सोचे कि वो दिन अब पीछे छूट गए हैं। वो फिर लौटेंगे। गए साल की गर्मियां बहुत कठिन थीं। उन्होंने मुझे रिक्त कर दिया। मेरे भीतर गूंज भर गई। अब फिर गर्मियां आने को हैं और मैं कौतूहल से उनकी आमद को सोचता हूं। ये ख़ूब गाढ़ी पहचान का तरन्नुम है। मैं जानता हूं कि यह दु:ख ही देगी, किंतु उससे इतनी पहचान है कि फिर से देखकर अच्छा लगता है।

गर्मियों के दिन आते होंगे। ये इस सदी की ना पहली गर्मियां होंगी, ना आख़िरी। मुझसे पहले कितने लोग बीसियों निदाघ जीकर मर गए। मिट्टी पर पानी का छींटा देते खेत हो रहे! मैं उनका वंशज हूं। धीरे-धीरे मरो, वो मुझसे कहते हैं। सुकून से खंख हो रहो। इसको देखो कि यह होता है। उलाहनों से लाभ नहीं। दिक़ करके किसको बुझाओगे? साल सर्दियों में नहीं गर्मियों में पूरे होते हैं। उनके लम्बे अवसान को मननपूर्वक निहारो। यह तुम हो। यह तुम्हारे भीतर की रुत है। तुम अस्थि-मज्जा से नहीं अंतहीन प्रतीक्षाओं से बने हो।

सड़क किनारे खड़े वृक्ष जैसा बनो। अडोल रहो। धीरे-धीरे मरो- एक यही सीख याद रखने जैसी है।