भोर का पाखी / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
सुबह सवेरे एक ठीक समय पर वो पाखी बोल पड़ता. जाने कौन सी कलघड़ी उसकी आत्मा में थी!
कोमल कंठ, जिसमें संध्या की वापसी वाली उत्कंठा नहीं, व्यग्रता नहीं, ऊर्जा के आप्लावन की अंतिम लहर नहीं. बल्कि आरम्भ की एक तन्मय अन्विति. मीठा कलरव. सुबह के चार बजे होते, अंधकार में ना पेड़ दीखता ना पाखी, बस उसके स्वर का आलोक एकान्त में कांपता रहता, कन्दील की तरह.
अंधेरी कोठरी में जैसे केसर की पोटली दिखती नहीं पर उसकी गंध का एक आदमक़द डौल बन जाता. बैसाख में आम का कुंज ख़ुद अपनी महक का पता बतलाता. पानी में मछली की गंध कहती कि पर्वत के पीछे समुद्र है. तमालवन में गिरकर गुम गई सोने की कील जैसे सहसा तलुए में गचती. छत पर पड़ा पखावज मध्यरात्रि के मावठे में बज पड़ता. वायु के वेग से तरंगायित हो जाती उस सितार की तंत्रिकाएं, जिसे चोर चुपचाप लिए जा रहा था!
ठीक ऐसे ही भोरे भोरे बोलता था वो पाखी. कहां है, कैसा दिखता होगा, दिन में कहां चला जाता है, कौन जाने. किंतु रोज़ नियम से सुबह चार बजे बोलता. इस तरह उससे परिचय की, अनुराग की एक गांठ बंध गई.
निस्संगता का एक सम्मोहन होता, एकान्त अपनी एकरसता से मीठे अवसाद का सुख रचता! तब वो पाखी कहता-- तुम भले अकेले होओ, एकान्त एकाकी नहीं. वो तो दुकेला है. उसकी सारंगी का एक संगतकार है. मैं मुस्करा देता.
पाखी जाग उठें तो मनुज को सो जाना चाहिए, मैं स्वयम् से कहता और सौंप देता तंद्रा को अपनी विगलित चेतना. सम्मिलित हो जाता. जब तक जाग रहा था, पृथक था.
सब सो रहे, एक मैं ही जाग रहा- जंगल में अकेली खड़ी मीनार की तरह. मसान में मृतक की तरह. आपको क्या लगता है, जो चिता पर लेटा है, वो सो रहा है? जो लम्बी रातों को जागकर पूरे आकार का एकान्त भोगते हैं, वे ही जानते हैं ये रहस्य कि सोये हुओं के बीच जागना ऐसा ही है, जैसे जीते हुओं के बीच मर जाना.
मैं हर रात मृत्यु का पूर्वाभ्यास करता!
चंद्रमा जैसे मुख पर मंदस्मित का जो आलोक दीपता था, ठीक इसी घड़ी, सुबह के चार बजे, उसने अब क्यूँ बरज दिया-- यह शोक भी कितने दिन जाग सकता था? चाहना अकेला कर देती. प्रणयी के हिस्से सबसे लम्बी प्रतीक्षाएं होतीं. फिर विकलता की वो धड़कन मर जाती और एकान्त की लय उसकी जगह जम जाती. वर्षा के उपरान्त वाले आकाश की तरह वेदना आत्मा में अचल हो जाती. मन स्वयम् को मना लेता--
कि यहाँ कोई संगी नहीं बंधु, और प्रेम में ली गई शपथ पर तो संशय करो सर्वाधिक! इस सजीव एकान्त में ही रमो. मन का मरकत-मणि बेभाव नहीं, मन में ही गिरह बांधकर रखो. किसी से सौदा ना करो उसका. मौन साधो. समाधि पर अर्पित गुड़हल सा बनो विरत. विनयी. प्रत्याशा से रिक्त. वध करो आत्मा में प्रेम की कनी की. चलो, प्रण लो यही!
कि तभी अंधकार में बोल उठता वो एक अनाम पाखी. मुस्कराहट की लालिमा मेरे वदन पर खिंच जाती, भोर के नभ जैसी. तुम मेरे संगी नहीं किंतु जैसे तुम गाते हो अकेले, मैंने भी यों ही गाना है, जब तक राग-रुधिर की लीला है, मन ही मन यह वचन देता उसको.
और निद्रोन्मीलित चला जाता सोने बड़े सवेरे, संसार का ब्यौपार शुरू हुआ ही चाहता हो जब!