विहँसते फूलों ने कहा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
नित्यप्रति की डगर- किंतु तब एक लाल लपट ने आंख के कोने में कौतूहल का चित्र बनाया। जवाहर बाग़ के बाहर झाड़ियों में जैसे रक्त उभर आया हो, वैसे चटख लाल फूल। मैं रुक गया और देखता रहा। तो क्या सच में ही वसन्त आया है? क्या यही मार्च है, जब लम्बे हो रहे दिन अपनी किनोर से झुलसने लगते हैं? जैसे काग़ज़ सदैव सबसे पहले किनारों से जलता है और फिर धीरे-धीरे आग की ऊष्ण लहर अपने में सिमटती जाती है।
वो फूल बहुत सुरम्य था। मन में कोमलता जगाने वाला श्लाघनीय। मैं चाहकर भी वैसा रंग किसी चित्र में नहीं भर सकता था। ये अभी तो यहां नहीं थे। ये सहसा कहां से फूल आए? ये क्यूं कर फूल आए? इन्हें कौन यहां चाहता था? इस सड़क पर धूला उड़ाते भारी वाहन चलते हैं। नाक की सीध में अवधान की एक पंक्ति बांधकर। कोई यहां इन्हें देखकर रुकता नहीं, कोई देखता नहीं। एक मैं ही रुका हूं। किंतु मैं ही यहां क्यूं हूं?
वायुमण्डल में ही निष्प्रयोज्य की स्फीति थी। वक्षस्थल भर गया। यह फूल, जिसका नाम मैं कभी जान नहीं सकता था, बड़ा सुंदर था और बड़ा ही निष्प्रयोज्य था। यह जंगली झाड़ियों पर यों ही फूल आया था। यह फिर झड़कर मर जाएगा। मुझे उससे ईर्ष्या हुई- वो वसन्त की लीलाभूमि में बिना न्योते के आया था, और बिना तगादे के जाएगा।
यह समारोह ही विश्वचेतना की उसांस थी। उसमें ऐसी खण्डित आत्मचेतना नहीं थी। वसन्त के तात्पर्य से खिल आए फूलों में निरभिमान की कांति व्याप गई थी। कोई देखे न देखे, लेखे न लेखे, उनको खिल आना था, खिलकर मर जाना था। एक मैं ही अभिमानी था, जिसका हृदय औरों के लिए व्याकुल रहता, अपने अभिप्रायों को अपने से बाहर खोजता। उनके अभाव का शोक मनाता।
जिसे इतने बरस ज्यूं जवाकुसुम से सजाया, वह अभिमान अब कितना दुखता है। सज्जित होकर तो वह सुख पाता था। उसके सुख से मुझको क्यूं कर संतोष होने लगा? मेरा उससे क्या सम्बंध? मैं मार्च के सुदीप्त मास में पथ पर रुका एक संघात था। मेरे सामने फूलों का वह तोरण था। अमलतास भी अब खिलता होगा। अमलतास गए साल भी तो खिला था। गया साल ज्यों इस वसन्त में फिर चला आया था।
धीरे-धीरे विहंसते फूलों ने तब मुझसे कहा, इतनी इयत्ता, इतना इतिहास है, तो फिर शोक क्यों ना होगा, बंधु? निरभिमान बनो। निस्पृह ही रहो। निस्संगता का पाठ सीखो। जितना जीवन है, मरण का ग्रास भी उतना ही बड़ा होगा, इसको कभी ना भूलो।