दुलहिन का गीत / कल्पतरु / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
दुलहिन का गीत
सुशोभित


नववधू के सोलह शृंगार होते हैं, सत्रहवाँ अलंकार है रुदन!

दुलहिन के रुदन में अनेकान्त है. कोई जान नहीं सकता दुलहिन क्यूँ रोती है. वो किसी एक बात पर नहीं रोती.

और कोई एक कभी जान नहीं सकता उसके रोने के सभी प्रयोजन!

तुम भी रोना, मेरे उस रुदन के लिए, जो तुम्हारा है. मैं तुम्हारे लिए भी रोऊंगी. तुम भी मेरी डार में बिछाना सजल नयन के पलक पाँवड़े!

ग्राम सीमान्त पर कहूंगी विदा, जब तुम लौट रहोगे घर. सदैव की भाँति विलम्ब से. प्रेम का कोई मुहूर्त कभी शुभ नहीं होता, परिणय का होता है.

मुझे निहारना अंतिम बार. यह विदा है. समस्त सुबहें और संध्याएं, समस्त स्वप्न और आलम्बन यहाँ समाप्त होते हैं. इस जीवन का बस इतना ही ऋण था.

गाड़ीवान गा रहा है. बहुत पीछे छूट गए हैं परिजन. वर वसन्त के दृश्य ताक रहा है. तुम मूर्ति की तरह अडिग क्यूँ हो?

आगे बढ़कर उठा लो वह मंजूषा. वधू की आँख के आंसू अमूल्य होते हैं!

इन्हें सहेजकर रखना, यह मेरा स्मृतिचिह्न है. अब मरती हूँ. तुम भी खप रहो. देह में होकर प्रेम करना पाप था, यह पाप क्यूँ किया!

यह जीवन दण्ड का अरण्य है, यहाँ मन की माप का सुख कहाँ? अब तभी मिलेंगे, जब ठण्डी हो रहेगी चिता. राख से फूल चुनेंगे. संध्या की किनोर बुनेंगे!

यह तो विदा है, पर तब तक करोगे ना प्रतीक्षा, मेरे प्यार!