आमार होबे ना / कल्पतरु / सुशोभित

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आमार होबे ना
सुशोभित


‘पथेर पांचाली’ की दुग्गा ने जाने क्या सोचकर कहा था- ‘आमार होबे ना!’ निश्चिंदिपुर के सीमान्त पर उसकी आसन्न-प्रणय प्राणसखी ने सहज ही तो पूछा था- ‘तेरा ब्याह कब होगा रे!’

बंगभूम की निरी ग्रामबालिका। न पोथी जानती न पत्तर। उसको किसने बतला दिया कि बिना परणाए मरेगी? बरखा की रात में खा जाएगा ज्वर? भाद्रपद का रौद्रमेघ उसको फूटी आंख ना देखेगा। तार-शहनाई पर राग देश का विलाप ही डोले में लेके जाएगा?

कदाचित्, प्रलय के देवता ने ही भिजवाया होगा संदेशा, कलकत्ते के समस्त डाकघरों को लांघकर। या उसके भीतर ही उग आई होगी उद्‌भावना कि वरेगी मरण को, मरेगी कुमारिका ही।

कौड़ियों की एक माला में उसका मन बंधा था। घड़े में ताड़ के गुड़ के नीचे छुपा रखती थी। क्या इसीलिए कि एक सांझ देह में ताप लेकर खटेगी?

फिर उस मणिमाल को पोखर में फेंक आया था अपु। संजो लिया था पुकुर ने वह स्मृतिचिह्न। कमलिनी के मायाच्छन्न तिमिर ने अपने नलिनविलोचन नैन मूंद लिए थे। सृष्टि के सभी सुंदर रहस्यों की ऐसे ही की जाती है रक्षा।

किंतु मेरे मन में देरी तक बजता रहा था उसके मृत्युविकल मन का कोमल ऋषभ आसावरी- ‘आमार होबे ना!’

इस राग का तत्व जो मैं जानता था। यह एक मधुर दिवस का गान था। मधुरता मर जाती थी। जब फ़िल्म समाप्त हुई तो सिनेमाघर में विच्छिन्न प्रकाश भर गया। दर्शक आलस से उठे। होरिहर सोर्बजया को लेकर चला गया काशी। गंगातीरे गलाने देह।

जहां दुग्गा ने की थी अंतिम उपासना, तब वहां जाकर मैं रोया। जहां गीले केश लेकर नाची थी, वहां जाकर बैठा। यह पथ का गीत था। बड़ी लम्बी बटजोही के बाद अब सो रहे थे कपोत।

और मैं गा रहा था वही छिन्नगान, उसी कड़ी से जहां टूटा था।