अपुर संसार / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
खुलना ज़िले की नैऋत्य दिशा में मुड़ गई थी रूपशा नदी। मेरे भाग्य में भी कोई बांक रही होगी, जभी तो तुम मिलीं।
ओपूर्ब संयोग! स्वप्न भी न देखा था। बांसुरी के शब्द से राग देश में तुम्हारे नाम की कभी डाक लगा सकूंगा, उसको सुन सकोगी तुम सत्वर- उससे अधिक का लोभ नहीं।
माथे पर मौर बांध फिर कैसे लिवा लाया- कलकत्ते की उस दुछत्ती में, जिसके नीचे से मिदनापुर की रेलगाड़ी नित्य संध्या कूकती निकलती। और तुम कानों पर हथेलियां रखके कहतीं- ओ म्मां, कैसा कोलाहल!
वैसा स्वप्न संजो लेना भी कहीं पाप तो न था, कि अयाचित ही मिल गया जो, उसको अपना अधिकार भी जानूं? जोगी-जंगम की तरह चित्त बांधकर बटजोही तो की थी, किंतु साधक को भला कहां मिली सिद्धि?
ऐ ओपर्णा, तुम्हारे केश का क्लिप जैसे गिरकर गुम गया था, वैसे ही बिसराया होगा मेरा भी दैव। काजल की रेख जैसे तुम्हारे कपोल पर फैली, वैसे ही विपथ।
तुमसे पहले यह जीवन ट्रॉम की सैर-सा सरस था। मृदन्ग के वक्षस्थल जैसी इसमें इतनी पोल न थी। और तुम्हारे जाने के बाद तो अब यह व्यक्तिचित्र-सी विश्रांति।
नाड़ी देखकर रोग बतला देने वाले भी इस छन्द को भला कैसे बूझेंगे? यह अभाव का रूप है। मेघ में पर्वत का आकार देखने वाला ही इसको जानें।
यों तो भला ही हूं, रक्त का दबाव भी अनुकूल। बस मेरे हृदय में शोक है। एक तुम चली आओ, तो चंगा होऊं।