शीशे / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
शीशे की आत्मा में कितनी दरारें होती हैं? समुद्र में लहर जितनी। किंतु लहरों के विपरीत अपनी मृदुल तरलता में अदृश्य। उन्हें देखने का उपाय क्या हो, सिवाय इसके कि शीशे को तोड़ दिया जाए।
शीशे की आत्मा की दरारें देखी जाएं, इसके लिए शीशे का टूटना ज़रूरी है। और जब शीशा टूटता है तो मालूम होता है कि अंगुली की छाप तक को ज़ब्त कर लेने वाला कोमलता का वह आकाश कितनी खरोंचों से भरा था!
अठारहवीं सदी की बात है। बवेरिया के एक बावरे गाँव में शीशे की ढलाई का कारख़ाना था। आपने कभी शीशे की ढलाई देखी है? उसे देखियेगा, वो अपने में एक बड़ी करामात होती है। जैसे लावा हो, वैसे ही पिघले क्षुब्ध, तप्त शीशे को कारीगर सलाखों में फूंककर ग़ुब्बारों की तरह फुगाते और मनचाहे रूप में ढालते हैं, चाहे प्यालियां, चाहे मर्तबान, चाहे गुलदान। वैसा करना कौशल के प्रतिमानों के बिना सम्भव नहीं हो पाता।
किंतु बावरे गाँव के बैरोन को केवल प्यालियों, मर्तबानों, गुलदानों की लालसा नहीं थी। उसे तो लाल शीशे के सरंजाम की तलब थी, जिसको कि कहते हैं रूबी ग्लास। रूबी ग्लास के सुर्ख़ प्याले में लाल शराब पीने से पता नहीं चलता कि रूप कहां है और छाया कहां है, छंद कहां है भाव कहां। वो हृदय की तरह लगने लगता है, जो कि स्वयं रक्त का प्याला!
लाल शीशा बनाने का फ़ॉर्मूला जिस कारीगर को मालूम था, वो बैरोन से किसी बात का बदला लेने की ग़रज़ से उसको किसी को बताए बिना मर गया। अब बावरे गाँव में शीशे का कारख़ाना तो पहले की तरह चल रहा था और भटि्टयों में लावा भी बदस्तूर उफन रहा था, लेकिन उस लावे में कोई रंग नहीं था। उससे केवल पारभासी प्याले ही बनाए जा सकते थे, रूबी ग्लास के जाम नहीं। और इस एक क्षति ने उस पूरे गाँव को विक्षिप्तता से भर दिया था!
रंगीन शीशे की करामात कितनी पुरानी है, वो एक दूसरा अफ़साना है। प्लिनी ने कहा था कि सबसे पहले फ़ोनेशियनों ने शीशे ईजाद किए थे, आईने का पहिला तसव्वुर शैतान जाने किसने किया होगा। रंगीन शीशे उसके बाद ही चलन में आए होंगे। योरप की गोथिक कला में स्टेन्ड ग्लासेस का बड़ा मुक़ाम था। ख़ासतौर पर लाल, पीले, नीले और हरे रंग का इनमें इस्तेमाल किया जाता। गोथिक गिरजे रोज़ विंडोज़ से सजे होते और उन पर देवरूप उभरे होते।
अभी जब पेरिस के नोत्रदाम में आगज़नी हुई तो उन्होंने भर्राए गले से ख़बर सुनाई कि कैथेड्रल की रोज़ विंडोज़ ताप से पिघल गई हैं। ये रंगीन शीशे की करामातें थीं। मैंने कल्पना में सोचा कि पिघले शीशे में तमाम रंग और आकार अब आपस में घुलमिल गए होंगे। ये बवेरिया के उस बावरे गाँव से दूसरे क़िस्म का संताप था, जिसके शीशों के पास कोई रंग ही नहीं था।
लेकिन दरारें उनमें से हरेक शीशे में थीं!
दुनिया के पहले शीशे में भी होंगी ही, जो किसी समुद्री सौदागर के हाथ से गिरकर चूर-चूर हो गया होगा, तूनिशिया से फ़ोनीशिया के दरमियान। रूबी ग्लास के प्यालों में भी होंगी, गोथिक शैली के गिरजों की रोज़ विंडोज़ में भी। आग में जो पिघल गईं, समय में जो रुक गईं, शीशासाज़ी की उन कलाकृतियों में भी।
वैसा कोई शीशा नहीं, जिसकी आत्मा में दरारें नहीं। और वैसा कोई अंत:स्तल नहीं, जो शीशे जैसा पारदर्शी नहीं। शीशे की पीठ पर चांदी का लेप भले रौशनी, अक़्स और चेहरों को लौटा देता है, स्वयं को वह किसको लौटाए, जिसके भीतर खरोंचों का तटबंध? तब मैं आपको बतलाऊं, कि किसी शीशे में कायाप्रवेश की कामना भी मेरे भीतर उतनी ही पुरानी है, जितना सम्राज्ञी का पहला दर्पण!