अरूपसुन्दर / कल्पतरु / सुशोभित

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अरूपसुन्दर
सुशोभित

रबीन्द्रनाथ के एक गीत में बड़ा भावप्रवण शब्द आया है-- "अरूपसुन्दर."

"हेरो गो अन्तरे अरूपसुन्दरे, निखिल संसारे परमबन्धुरे!"

यह पूजागीत है. विनोबा के आश्रम में रबीन्द्रनाथ के गीत प्रार्थना में गाए जाते थे. इनमें 54 गीतों पर उन्होंने भाष्य किया है. इसी क्रम में यह गीत भी आता है. इस पर विनोबा की टीका है--

"जब रूप दीखता था, तब स्वरूपसुन्दर था. जब रूप ना दिखेगा तो अरूपसुन्दर होगा. नाम-रूप मिट रहेगा, माधुरी व्याप्त हो जाएगी."

रबीन्द्रनाथ के यहाँ ऐसे शब्द बहुधा मिलते हैं. वो निर्गुणोपासक थे. यों कवि थे, चित्रकार थे, तो रूपनिष्ठ तो होंगे ही, पर परात्पर की चेष्टा उनके यहां कभी टूटती न थी. उनकी दृष्टि परकोटे के पार बराबर बनी रहती थी.

रूप में राग है, क्लेश भी है, भाव में परिशुद्धि है. किंतु भाव में रहना दुष्कर है. रूप से भाव तक की यात्रा सब करते हैं, पर भाव में रह पाते नहीं. सगरमाथा पर भला कौन घर बनाता है? सब आख़िर नीचे उतरते ही हैं. वही दु:ख है. संसार में अरूपसुन्दर की प्रतीति कठिन होती है.

परमहंसदेव ने काशीपुरी को भावनेत्र से देखा था तो पाया यह नगरी तो सुवर्णमण्डित है. वहीं कोई पदार्थवादी जायेगा तो कहेगा कि दशाश्वमेध पर तो बड़ी कीच है, औ' मणिकर्णिका तो मसान!

भ्रमरगीत में गोपियों ने उद्धव को उपालम्भ दिया था-- "निरगुन कौन देस को वासी?" उद्धव तो कुछ बोले नहीं किंतु ऐसा नहीं है कि कोई उत्तर ना था.

निर्गुण उस देश का वासी है, जहाँ रूप की छलना नहीं, हृदय का शूल नहीं, पार्थिव का पूजन नहीं. जहाँ कोई किसी को त्यागता नहीं, कोई रथ पर सवार होकर मथुरा नहीं जाता, फिर कभी नहीं लौटने को.

मथुरा जो गया वो स्वरूपसुन्दर था, वृन्दावन में जो रह गया वही ना अरूपसुन्दर है, ललितासखी!