मैं जागा तो देखा / कल्पतरु / सुशोभित

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मैं जागा तो देखा
सुशोभित


मैं जागा तो देखा एक मैसेज आया था. मैसेज से नहीं जागा था. फ़ोन मेरा चुप ही रहता है दिन में भी. आदत के चलते मैंने जवाब दिया. जवाब से ये सवाल बना कि जाग रहे थे अभी तक? मैंने कह दिया, नहीं तो, संयोग से जाग उठा था. अभी तो सोया था. दो घंटा हुआ. मेरे भीतर नींद जाग रही थी, अब नींद में ही मैं जाग उठा. वर्तुल पूर्ण हुआ! भोर से पहले ही सोया था, अब खिड़की में हलका उजाला दीखता था. उसमें पक्षी बोलते.

मुझे याद नहीं बातों बातों में क्या कुछ लिख गया किंतु वाक्य मेरे सुघड़ थे और वर्तनी की भूलें नहीं की, अधमुंदी आंखों के बावजूद. फिर उन्हें सदाशयतापूर्वक विदा कहा. याद आया कि जाने कितनी बार यों नींद से उठकर लिखने बैठा हूं, लिखकर फिर सो रहा. फिर जागकर आश्चर्य से पाया है कि उस लिखे से मेरा अपरिचय इतना सघन नहीं है, जितना नींद में डूबे मेरे असाध्य मन से रहता है. मैंने सुंदर ही लिखा था. कभी कभी तो भरपूर जागा होकर भी यों नहीं लिख पाता. एक सुसंगति मेरे भीतर जम गई थी, लिखे जाने वाले शब्दों और वाक्यों की. अवचेतन में धंस गयी थी.

क्या वह मुझी को अपदस्थ ना कर देगी? वैसा वंचित मैं फिर कहां जाऊंगा? इस पर सचेत था. नींद में भी जागता. क्लासिकी फ़िल्मों में जो अश्रव्य पार्श्वसंगीत चुपचाप दृश्य के पीछे बजता रहता, ऐसे मेरी चेतना के पीछे मेरी भाषा तरंगायित होने लगी थी. एक सुचिंतित सुविचारित वाक्य मेरी आत्मा में खिंचा रहता. मैं उसी के सीमान्त पर सोता जागता जीवित रहता. मेरी कोई और मुक्ति नहीं थी.

बहुतेरे सच थे लेकिन मैं उन सबको एक सधी हुई लय में ही जानना चाहता, मेरी भाषा में. क्या फ़र्क पड़ता था कि इतनी देरी तक जाग रहा था या नहीं, या किसी असमय मैसेज से जाग गया. मैं तो वही था ना जिसे सोने से पहले कितने स्नेह से विदा कहा गया था. नींद के बहुविध व्यवधान के बावजूद वो विशृंखल ना हुआ, यह संतोष सुंदर था, शोकगायन में अंतिम पंक्तियों की तरह सम्पूर्ण! तब मैं कहूं कि कहना पहले ही अधूरा था, स्वयं को संसार को सौंपो तो सचेत रहो. कवि हो, थोड़ी लज्जा बचा लेना चाहते थे. तो, अधीर वाक्यों की लज्जा भी तो सहेजो!