बजती रहें दूरभाष की घंटियां / कल्पतरु / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
बजती रहें दूरभाष की घंटियां
सुशोभित


बोलने का अपराध क्यूँ ही करें? कैसा तो पाप है, कुछ पता भी है? वाक् में प्राण का कितना अभिनिवेश, इसका किसको अनुमान? सबका किंतु एक सा नहीं होता, यह निश्चित. और मैं तो लगभग गूंगा हो गया हूँ. परा और पश्यन्ती का पुण्य तो इतना सुदूर कि असम्भव, किंतु वैखरी का बल भी सब जैसा कहां? वक्तृत्व के सामर्थ्य को अचरज से देखता हूँ. वाचाल वैताल से कम नहीं लगता. ग्लानि घेर लेती है अधिक बोल जाने पर. संचित का क्षय हो गया हो, स्वेदसाध्य सम्पदा लुटा दी हो, वैसा हो आता है खिन्न मन. कंठ ही नहीं, हृदय और उदर तक में हानि का शोक. तब तो मौन का तप ही भला, कि समूचा सप्ताहान्त मूक रह आऊं. लिखूं चाहे जितना, बोलूं नहीं. सोचता हूँ, दिवस में तो क़तई नहीं, मध्यरात्रि के बाद अवश्य बोलना चाहिए-- प्रेतों के समवेत में सामगान! किसी काव्य का करना चाहिए उच्चार, डूबे कातर कंठ से. अश्रव्य, लगभग. आत्म-विभोर का निष्कलुष वाक्. वैखरी के सामर्थ्य बिना यदि लोकाचार सम्भव नहीं तो वही सही. मुझे कौन सा लोक से प्रयोजन है? मैं नहीं देने वाला उत्तर, देरी तक बजती रहें दूरभाष की घंटियां!