जीवेषणा का चित्र / कल्पतरु / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
जीवेषणा का चित्र
सुशोभित


एक जहाज़ है, जो डूब रहा है।

जहाज़ के डेक पर मौजूद लोग जानते हैं कि जहाज़ डूब रहा है, फिर भी जहाज़ के दोलन के साथ वे डेक पर इस छोर से उस छोर तक दौड़ते रहते हैं।

यह अपने में एक निरर्थक चेष्‍टा है, लेकिन देह की लय मृत्‍यु के साक्षात में भी अपनी जैविक गुरुता के स्‍वाभाविक अनुक्रमों से मुक्‍त नहीं हो पाती।

देह की यह गुरुता जीवेषणा है।

नाभि उसका मूल है।

विष्णु के नाभिकमल से उपजने वाले ब्रह्मा जैसी वह उत्‍कट जिजीविषा है।

पृथिवी शेष के फन पर नहीं, जीवेषणा की धुरी पर टिकी है। और पृथिवी डोल रही है।

अल्बेयर काम्यू का सिसिफ़स अब बड़ी-सी शिला लेकर पहाड़ नहीं चढ़ता, वो एक डूबते हुए जहाज़ पर इधर से उधर दौड़ता है। जैसे गर्भ में तैरता है शिशु।

दो ही दु:ख हैं :

जो मर नहीं सकता, उसमें मृत्यु की कल्पना।

जो जी नहीं सकता, उसमें जीवन की चाहना।