वाक्यों से भरी वसुन्धरा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
वाक्यों से भरी वसुन्धरा में कुछ वाक्य नहीं होते तब भी किसको खटकता? कौन उनको पूछता? कंठ में अवरुद्ध कथनों पर भी पुण्य मिलता है। सत्य भी कहलाने को अब व्याकुल नहीं रहता, इतना ही विनय करता है कि बस मौन रहो। कोलाहल ही असत्य है। कुछ भी कहना बहुत वाक्यों के बिना सम्भव नहीं रह गया था। तुम देखना, वागर्थ का देवता कहेगा एक दिन-- उस युग में विद्रोही तो वह था, जो एक संगीन चुप्पी साध गया। सांप काटे की निस्पन्दता। सत्य उसी ने पाया, जिसने नहीं कहा। चुपचाप ही सहा। क्योंकि कहने में भी न्याय न था। कुन्दन में मिट्टी मिल गई थी। अग्निशिखा में धूम्र की शलाका थी। पारस जाने किस प्रासाद में बिसराया। सत्य की कसौटियां किंकर्तव्यविमूढ़ हो गईं। सम्वाद तो हुआ पर साक्षी कौन बना? यही अनुकूल है, यह निर्णय किसने दिया? किसने सोचा था कि सच भी एक दिन ऐसा बहुरुपिया हो रहेगा। रज्जु में सर्प के सम्भ्रम सरीखे सत्य के अनेक संस्करण निकल आते थे। तब एक सधी हुई चुप्पी ही अनन्य थी। अस्थियों में घुटा हुआ स्वर। कि वह कुंठा, कलुष और अधैर्य को न्योता तो न देता था, कोलाहल तो ना रचता था। नया युगधर्म यही था कि बहुत हुआ, ईश्वर के लिए अब बस चुप हो जाओ। इतना कहकर वागर्थ के देवता ने काटकर रख दी अपनी जिह्वा कि-- जो चुप न रहे, समय लिखेगा, उनका भी इतिहास।