भाषा, वृत्ति और अंत:करण / कल्पतरु / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भाषा, वृत्ति और अंत:करण
सुशोभित


देह, मन और चेतना : ये तीन आयाम व्यक्ति के हैं! जिजीविषा देह का सत्य है। कामना और मृत्यु उसकी दो दिशा हैं। वृत्ति और अहंकार मन का पदार्थ हैं! अंत:करण आत्मा की वस्तु है। एक चौथा आयाम भी होता है सामूहिक अवचेतन का, जो मन और चेतना की संधि से निर्मित होता है, अपने स्वरूप से यह संकेत करता कि हो न हो, मनुष्य की आत्मा उसकी निजी सम्पत्ति नहीं है, उसके सार्वभौमिक आशय सम्भव हैं।

लेखक- अगर वह निष्ठावान है, और पाठक भी, काफ़्का के शब्दों में 'नॉन राइटिंग राइटर', जिसकी अर्थध्वनि 'नॉन प्रैक्टिसिंग कनवर्ट' सरीखी है- व्यक्ति से फ़र्क़ होता है! देह को भाषा से बदल लेने की आकांक्षा उसे मथती है। लेखक देह नहीं होना चाहता, भाषा को अपनी देह बना लेना चाहता है। 'भाषा त्वचा है' (रोलां बार्थ)। उसके लिए उसकी भाषा उसकी सार्वजनिक पहचान बनना चाहती है। लेखक व्यक्ति की देह में शरणार्थी होता है। एक पते पर दो लोग रहते हैं- व्यक्ति और लेखक! भाषा तरलता है। कविता तरलता के मौन में जीवन की अस्थियां प्रवाहित कर देती है।

शोक यह है कि लौकिक जीवन में देह हुए बिना उपाय नहीं। लेखक के लिए देह होना बड़ा अभिशाप है, वृत्ति और अंत:करण की सरणियां भी जब उससे जुड़ जाएं, भौतिकता के अटल नियमों का अनुसरण करती हुईं। तब वो एक दूसरी दिशा है, दूसरी यात्रा। यह यात्रा लेखक को दुविधा से भरती है। यह उसका दुःस्वप्न है, उसका विस्थापन! ये सम्भव ही नहीं कि आप किसी लेखक को देखें और उसे सहज-सुचित्त-उत्फुल्ल पाएं। द्विविधा ही उसकी अंतर्वस्तु होती है।

जैसे पुष्पक अगर परिकल्पना भी है, तो वह विमान ही है, खग नहीं है, जलयान नहीं है, काठ की मेज़ तो हरगिज़ नहीं। वैसे ही भाषा अगर एक हाइपोथेटिकल प्लेन भी है, तब भी लेखक उसे ही अपनी देह बनाना चाहेगा, उसका भौतिक आयाम वही हो, यह कामना करेगा। वह अपने पासपोर्ट पर अपनी भाषा की तस्वीर चस्पा कर देना चाहेगा।

भाषा, वृत्ति और अंत:करण - इस त्रिक के तारतम्य की असम्भवता उसे भले जितना त्रास दे, विपथ वह हो नहीं सकता, उसकी यात्रा वही है।