प्राणवन्त और निस्तेज शब्द / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
शब्द जीवन से भरे, प्राणवन्त होते. शब्द निरे निस्तेज भी होते. वैसा नहीं था कि जीवंत शब्द कहना बहुत कठिन था. तब भी कभी कभी एक "कोई बात नहीं" सुनने को आप तरस जाते, कभी कभी "तो क्या हुआ" को. कभी कभी जीवन "तुम ठीक तो हो" की लम्बी प्रत्याशा बन जाता, असम्भव के अवसाद से भरा. यह नहीं होता तो नहीं ही होता. जबकि जैसे संजीवनी थी इन शब्दों में, मरते को जिला सकते थे.
आप सोचने लग जाते क्या सचमुच ये इतना कठिन है, इतना दुष्प्राप्य, जब एक दिन एक औपचारिक मुबारकबाद आपके खाते में जमा कर दी जाती. एक हार्दिक शुभेच्छा. तब आपको लगता कि जन्मदिनों से मरणशील कुछ नहीं हो सकता था. दायित्व निर्वाह के आपदधर्म से कहे गए वो शब्द कितने निष्प्रभ होते, यह वो निरंतर अतीत ही जान सकता था, जो स्नेह के अनगिन कोमल प्रसंगों से भरा था. इसकी तो आप प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे.
दुविधा के साथ सोच में डूब जाते कि कोई इसे देख क्यूँ नहीं पाता जो हमने किन्हीं वैधताओं, सामंजस्यों और सत्यापनों से अपनी संवेदनाएं बदल ली हैं. हमने स्वयं को औचित्यों और अनुष्ठानों को सौंप दिया और स्वयं जीवन में ऐसे रहने लगे, जैसे मरी हुई मछली आँखें खोले स्वप्न देखती हो. सरल चीज़ों को असम्भव और दुरूह को सम्भव बनाने की यह कला जाने कहाँ से हमने सीख ली थी. "अपना ख़याल रखना" की गुंजाइश ना हो, तब सालगिरहों की शुभकामनाएं कैसे सम्भव हो जातीं, यह संसार का सबसे बड़ा रहस्य बन जाता था.
बधाई से निस्तेज शब्द यों भी कोई और नहीं था, किंतु उसमें वैसी ही वैधता थी, वैसी ही प्रयोजन भावना, जैसे क़ौमी तराने की धुन बजते ही काठ की भाँति निश्चल हो जाने में, जबकि जीवन आपके भीतर वैसे घटित होना चाहता था जैसे अंधकार में चलते हुए रेडियो पर किसी पुराने गीत की कड़ी सुनकर ठिठक जाना. क्या यह इतना कठिन था? शायद हां. किंतु यह कभी भी इतना कठिन नहीं हो सकता था जितने निस्तेज शब्द कठिन होते हैं.
यदि सजीव शब्द सम्भव ना रह जाएं तो मरे हुए शब्दों को अपने तक रखना भी तो हरगिज़ मुश्किल नहीं. सभी सूखे फूल नदी में सिरा दिए जाएं, ज़रूरी तो नहीं. सभी दायित्व नियम से निभाए ही जाएं, ये भला किसने निश्चय कर दिया. मृतकों से हम इतना सब तो सीखते हैं, मौन भी सीख लें तो अनुकूल!