सान्ध्यभाषा / कल्पतरु / सुशोभित

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सान्ध्यभाषा
सुशोभित


यों तो "सान्ध्यभाषा" शब्द की पारिभाषिकता बंगभूमि के पुराकाव्यरूप "चर्यापद" के साथ रूढ़ है, जिसमें "विनिश्चय" एक प्रत्यय! किंतु इसकी रूपछटा उसके इतर भी मुझे रुचती है. चौबीस सिद्ध सान्ध्यभाषा में बोलते थे और मुनिदत्त उन्हें संस्कृत में अनूदित करते, किंतु मैं तो कहूं कि एक व्यापक पद, एक "अम्ब्रेला टर्म" के रूप में इसे आधुनिक गल्प पर रोप दें तो भला. सान्ध्यभाषा. सन्ध्या में जैसे आलोक और तिमिर एकमेक हो जाते हैं और निश्चय का बोध गल जाता है, वैसी भाषा. संधियों से बनी-- अन्योक्तिपरक, अन्यमनस्क, अनेकार्थी.

सृष्टि का रहस्य मनुष्य की बुद्धि के लिए अगम्य है और भाषा तो मनुज के उस अधूरे अवबोध को भी पूरा उलीच नहीं पाती. भाषा के बुनियादी प्रयोजन तो बहुत आदिम और तात्कालिक हैं-- प्रत्यक्ष और प्रस्तुत के चिह्नांकन की प्रक्रिया. किंतु भाषा की महत्वाकांक्षा पंजियों और बहियों से उठकर काव्य बन जाने की हो तो वह क्या करे. सान्ध्यभाषा ना बन जावै तो कैसे रचे. तब वैसा एक एम्बीग्विस डिक्शन ही उसका पुण्य है, जिसके लिए "स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति" भी एक निश्चय की भाँति अग्राह्य.

मिलान कुन्देरा आधुनिक नॉवल को सम्भावनाओं की वैसी लीलास्थली मानता था, जहाँ भाषा अपने श्रेष्ठ प्रयोजनों को पा सके. कुन्देरा इसको "स्‍पेसिफ़िकली नॉवलिस्टिक एसे" कहता था, जहाँ गल्पकार अपने स्‍वर को यथासम्भव "हाइपोथेटिकल", खिलंदड़ और विडम्बनामूलक बनाए रखता. तब मैं यह भी कहूं कि पुराकाल में जो स्थान काव्य और नाट्य का था, आज वह स्थान गल्प का है. और निश्चयों और निर्णयों के प्रति व्यग्र गल्प-आख्यान नहीं, वैसा एक भाषारूप जिसमें माध्यम स्वयम् को मथ सके. वैसा वृत्तांतबहुल जिसमें बहुविध वर्तुल परिधियों पर एक दूसरे से मिल जाते हों, आलोक और तिमिर की संधि की तरह. संधियों और कोटियों के प्रति सजग और इसी कारण विनिश्चय में स्थगित-- "सान्ध्यभाषा".