हस्तलेख / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
पिछली सदी का वह आरम्भ ही था। मई के ऐसे ही दिनों में चौदह तारीख़ की सन्ध्या, जब रोम से फ्रांत्स ज़ावियर काप्पुस को एक पत्र मिला। पत्र लिखने वाला कोई जर्मन कवि था।
कवि ने कहा- "तुम्हारी कविता अच्छी लगी। तो एक सादे काग़ज़ पर उसकी प्रतिलिपि बनाकर इस पत्र के साथ भेज रहा हूं। मेरे हस्तलेख में अपनी कविता देखोगे तो एक फ़र्क़ अनुभूति होगी। इन पंक्तियों को तब वैसे पढ़ना, जैसे वे तुम्हारे लिए भी अपरिचित।"
चूंकि ये साल 1904 नहीं है, चूंकि रानियर मारिया रिल्के मुझे चिटि्ठयां नहीं लिखता और चूंकि मेरी अंगुलियों के पोर की-बोर्ड के कोमल आघातों के अतिशय अभ्यस्त हो चुके हैं, इसलिए यह निश्चय है कि वैसी कोई बात वैसे संदर्भ में तो मुझसे नहीं कही जा सकती।
काग़ज़ पर नीले अक्षर काढूं तो मेरा प्रतिबिम्ब उसमें उभर आए, वैसा क़लम से लिखने का अभ्यास नहीं रहा। हस्तलेख अब भी सुघड़ है, सुलेख की श्रेणी में रखा जा सके वैसा, किंतु हस्तलेख देखकर ही पहचान सके, वैसा तो अब कोई रहा नहीं, जब मेरे ही निज की उससे सन्निधि नहीं।
यह अवश्य है कि बहुधा अपने लिखे से ही विच्छिन्नता का एक विग्रह आत्मा में उभर आया है। वितृष्णा का स्मारक। कि मैंने यह कब लिखा से बढ़कर यह कि इसे मेरा लिखा ही मत मानो। किंतु वितृष्णा में भी अपरिचय कहां, उल्टे यह तो आत्मचेतस है, अपने की तीखी चेतना।
अंगूठे के बढ़े नाख़ून से बहुधा मुझे पहचान लिया जाता है। बालों के घुमावों से। कलाईघड़ी के डायल से! परछाई के तिमिरचित्र से भी खो नहीं सकती पहचान। नज़ले या रुदन से भर्राया गला हो तब भी आवाज़ कैसे छुप सकेगी परदे में, और आंखों का रंग भी कुछेक तो जानते ही हैं।
मेरे लिखे की शिनाख़्त भी कठिन नहीं, कि वाक्यों की गठन का एक प्रतिमान होता है, तर्कणा एक पहचानी ऐंठ से उभरती है, निजी छाप के चित्र उस पर खिंच आते हैं, जाने-पहचाने कुछ शब्द, जो रूढ़ि बन चुके, बारम्बार लौट आते हैं। तीन पंक्तियां ही पढ़कर बंधु बतला देंगे कि यह तुमने लिखा है, हस्तलेख देख भले बरज दें।
तब किस युक्ति से स्वयं से दूरस्थता का वह वितान रचूं कि अपरिचय का आलोक मेरी आंखों के सामने झिलमिला उठे? मैं स्वयं से दूर छिटककर देखूं। निरपेक्ष नज़र से निरखूं। निर्णय का विवेक जगाऊं। आत्ममोह के अपयश को किसी पोखरे में जा सिराऊं। स्याही में क़लम की नोंक को डुबोकर मैंने एक वाक्य लिखा, किंतु ऐसा लगा नहीं कि इसमें मेरी सम्पृक्ति। गीले अक्षरों में आलोक की एक दीप्ति दूर ही दूर गलती रही।
और नई सदी के दुःख ही इतने अभिनव थे कि जिन-जिन ने मेरे शब्दों को अपने कंठ और तात्पर्यों में ढाला, उनमें भी पूरे का पूरा उभर आया मेरे होने का दु:स्वप्न!