चिटि्ठयां / कल्पतरु / सुशोभित

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चिटि्ठयां
सुशोभित


हाथ से लिखा गया अक्षर लिखे जाने में ज़्यादा समय लेता है। भेजी गई चिट्‌ठी भी तुरंत तो नहीं पहुंचती। जहां समय लगता है, वहां गति बदल जाती है। गति बदलती है तो अवकाश में स्थिरचित्र उभर आते हैं। तीन आयामों की इस दुनिया में समय चौथा आयाम है, समय के भीतर लेकिन जाने कितने आयाम थे! फ़ुरसत एक छप्पर छवाकर उसमें रहती थी, लेकिन मिलती बड़ी मुश्किल से थी। चिटि्ठयां फ़ुरसत से लिखी जाती थीं, लेकिन केवल फ़ुरसत से ही तो नहीं। अलबत्ता चिटि्ठयां लिखने की फ़ुरसत इधर निरंतर कम होती जाती थी।

मुझे कोई चिट्‌ठी मिले तो मैं तो यही सोचूंगा कि कोई उनींदा झुका होगा इस काग़ज़ पर, उसकी अंगुलियों के दबाव से क़लम की नोंके उभर आई होंगी। जब मैं इन उभारों को अपनी अंगुलियों से पढ़ता हूं तो क्या मैं उसे छू लेता हूं? पता नहीं। बातें जो कहना होती हैं, और कह दी जाती हैं- फ़ोन पर, या चैट के बक्सों में, उनकी रफ़्तार बदलती मैंने देखी, जब चिट्‌ठियां लिख रहा था। हाथ से लिखा गया अक्षर अंगुलियों से टाइप किए गए अक्षर से ज़्यादा समय लेता है। और ज्यों ही उसने समय लिया, परस्पर के कुछ वैसे सम्वाद उभर आए, जो यों सम्भव नहीं थे।

मैंने सोचा था कि जिन्होंने मेरी पुस्तकें ख़रीदीं, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए चिटि्ठयां लिखूंगा, किंतु मैंने पाया कि मेरे पास उनसे कहने के लिए उससे कहीं ज़्यादा था, जितना मैंने सोचा था। यह चौथे आयाम के चमत्कारों में से एक है। यह तीन आयामों में हमेशा ही कुछ नया उघाड़ देता है।

जैसी तसल्ली से ख़त लिखे, और जितनी आरामतलबी से वो अपने ठिकानों पर पहुंचे- बहुतेरे तो अभी भी दो शहरों के बीच ठिठके हैं- उससे पलभर को लगा कि दुनिया थोड़ी बड़ी हो गई है। फुगावे सी फैल गई है। एक मद्धम चाल से कितनी तस्वीरें बदल जाती हैं, अंगुली पर स्याही के एक दाग़ से।

जिन्हें चिटि्ठयां अभी नहीं मिलीं, उन्हें मिलती ही होंगी। रास्ते में होंगी। जो रास्ते में नहीं हैं, वे लिखी जाती होंगी। जो चिटि्ठयां अपने ठिकानों तक पहुंच गईं, वो उन रेलगाड़ियों की तरह हैं, जो घर लौटकर अपनी खोह में सो रहीं। अंधेरे में अक्षर बुझ गए, जैसे रात को नदी में पत्थर गिरकर गुम हो जाते हों। एक आवाज़ बाक़ी रह गई। क्या वो मेरी आवाज़ थी? वो इतनी दूर तक क्यों गूंजती है, मैंने तो कितने अकेलेपन में वो ख़त लिखे थे?

इस चौथे आयाम के रहस्य कितने गहरे हैं, ठहरकर जब सोचा तो एक लम्बी चिट्ठी जितनी बातें सूझीं-- जैसे अपने नाम का अंतर्देशीय!