नहीं लिखना / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
चार दिन से कुछ लिखा नहीं। काफ़्का कहता था कि जब लेखक कुछ लिखता नहीं तो वो अपनी विक्षिप्तता से जूझने वाले किसी दैत्य जैसा होता है। मैं तो लेखक नहीं। मैं लिखता अवश्य हूं। लिखने और लेखक होने में फ़र्क़ है। काफ़्का अवश्य लेखक था। वो जो कुछ कहता था, उसकी बातों का सार तो वो ही बूझे। या उसके जैसे घायल ही उसकी गति को जानें। पर मुझसे इधर कइयों ने पूछा कि सब ठीक तो है? ख़ैरियत है ना? तबीयत दुश्वार तो नहीं? चार दिन हो गए, कुछ लिखा नहीं? मैं इसका क्या उत्तर दूं? यों तो सब ख़ैरियत ही है। जो है, उसे दुरुस्त कहने के कोष्ठक में रखने में भी अब तो कोई विवाद नहीं।
वैसा नहीं कि मसरूफ़ हूं। यानी काम तो रहता ही है, पर लिखने का समय भी न निकाल सकूं, वैसा तो कभी नहीं हुआ। वैसा भी नहीं कि लिखने को विषय नहीं हैं। बहुत हैं। शायद ज़रूरत से ज़्यादा ही होंगे। तो क्या मन में लिखने से विराग आ गया है? मित्र जब पूछते हैं कि सब दुरुस्त है ना, तो यों ही नहीं पूछते। मैं रोज़ लिखता हूं। पिछले दस सालों से रोज़ ही लिख रहा हूं। और कोई फ़ौरी टीका-टिप्पणी नहीं, एक सुदीर्घ लेख ही लिखता हूं। जब नहीं लिखूं तो उन्हें इसका अभाव खटकना जायज़ है। किंतु मेरे सामने प्रश्न यह है कि रोज़ कैसे लिख लेता हूं? इतना सब लिखने का मेरे पास क्या उपाय है?
ये तो बहुत ही कठिन प्रश्न होगा। जाने कहां से यह सब चला आता है। मन में जो उधेड़बुन चलती रहती है, उस पर लिखना हो जाता है। अनुचिंतन का एक पार्श्वसंगीत तो आत्मा में अहर्निश ही गूंजता है। किसी के बारे में सोचता रहूं तो उसका चित्र लिखे में उतर आता है। कुछ पढ़ रहा होऊं तो उस पर बात करने लगता हूं। अपने साथ औरों को भी उसमें खींच लाता हूं। मन में इस चेष्टा के प्रति क्षमाभाव भी रखता हूं। देश-दुनिया में कुछ हो जाए और उस पर कुछ कहने जैसा लगता है तो भी लिख देता हूं। बहुधा एक कही गई बात से दूसरी बात निकल आती है। एक लेख से दूसरा बन जाता है। इसका उलटा भी सच है। एक रिक्ति दूसरी रिक्तियों को न्योतती है। एक अवकाश दूसरे के होने का प्रयोजन है। जीवन एक अचरज भरे खिंचाव से चलता है। लिखने से जैसा लगाव बन जाता है, नहीं लिखने का लगाव उससे कम नहीं। प्रकाश में पुकार है तो अंधकार में कम आलम्बन नहीं।
इतने सारे कारण लिखने के गिनाए, किंतु सच कहूं तो सबसे अधिक ग्लानि से लिखता हूं। अधूरेपन की कचोट ने इतने शब्द मुझसे लिखवा लिए, जिनकी गिनती नहीं। कभी ऐसा हुआ कि बहुत ही तर्कसंगत लिखना हुआ, किंतु उसमें भावना नहीं थी। कभी एक गहरा संवेग रूपायित हो गया किंतु उसमें युगबोध नहीं था। कभी भाषा का स्थापत्य तो अच्छा बन गया किंतु अंतर्वस्तु क्षीण थी। कभी स्वगत ही कुछ कह दिया, जिसकी गूंज औरों तक नहीं पहुंची। कभी कुछ तो कभी कुछ अभाव ही रहा। वैसा कम ही हुआ कि कुछ ऐसा लिख दिया, जो दोलता कांटा थिर हो गया हो। तीर ऐन निशाने पर जाकर लगा हो। उसने समुचित ही संधान कर दिया हो। मन में तुष्टि का नक्षत्र दीप गया हो। आंखें मुंद गई हों। यह सोच भीतर मंज गई हो कि अब तो मृत्यु भी लिवाने आए तो यह क्लेश मन को नहीं गलाएगा कि पीछे एक अधूरी बात छोड़े जाता हूं। बात पूरी हो गई है। इसमें अब और क्या जोड़ना है। मेरा बहुतेरा लिखना तो वैसी अपराध-चेतना से ही उत्पन्न हुआ है कि जो लिख दिया है, उससे सुंदर और कुछ अगर कर सकूं तो कम से कम उघड़ा मन लेकर सो रहने की क्लान्ति तो न हो। नींद में कुछ खटके नहीं। चेतना में रचाव आ जाए। कबीर का निर्गुण भीतर ही भीतर बज उठे कि मन मस्त हुआ फिर क्यों बोले? हलकी थी जब चढ़ी तराज़ू, पूरी भई फिर क्यों तौले? बात जब पूरी हो गई हो तब क्या बोलना? बोलकर उसको क्यों ख़र्च करना?
ग़रज़ ये कि कुछ उम्दा लिखना हो जाए तो फिर बाद उसके कुछ दिन मौन ही रहने का मन होता है। शब्दों में भी द्युति होती है। उनकी कान्ति बड़ी दूर तक दीपती है। पथहारे का वो ध्रुवतारा है। उसमें बाधा क्या डालना? कुछ कच्चा, अनगढ़, अधीर लिखकर उसका स्वाद क्या ख़राब करना। जिस सभा से बीच में ही उठ आना हो, उसमें भीतर क्या जाना? बाहर खड़े रहकर ही क्यों नहीं सुनना? एक निश्चित दूरी से संगीत और सुंदर ही हो जाता है।
तो ये रहा कि चार रोज़ में पूरी-पूरी रात उद्भावना में बीता दी। अपना ही पुराना लिखा बांचता रहा। उनमें से कुछ का संयोजन बनाया। पर क़लम नहीं उठाई। लिखकर उस धुन को भंग करने का दिल नहीं हुआ, जो धमनियों में मंज गई थी। किसी न किसी ने आरम्भ किया था, तभी तो ये संसार बना। किसी न किसी को रुकना होगा, तभी ये अनुक्रम अवरुद्ध होगा। मैं तो रुका नहीं हूं। किंतु रुककर देखने का यत्न अवश्य कर बैठा हूं। फिर चलूंगा तो फिर गति होगी। जब रुक ही जाऊंगा तो अगत्य कहलाऊंगा। इस तरह के पूर्वाभ्यास फिर लम्बी यात्राओं के लिए भी तो कम उपयोगी नहीं।