रिल्के का एकान्त / कल्पतरु / सुशोभित

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रिल्के का एकान्त
सुशोभित


नवम्बर 1920 में रिल्के स्विट्ज़रलैंड के ष्लॉषबेर्ग में रहने पहुंचा। 19 तारीख़ को उसने मारी वॉन थुर्न को एक पत्र लिखा और उसमें अपने नए ठिकाने के बारे में बतलाया-

"मैं अकेला रहता हूं। यहां केवल मकान की देखभाल करने वाला एक व्यक्ति है, किंतु वह भी मेरे जितना ही चुप्पा है। जैसे मैं किसी से नहीं बतियाता, वह भी किसी से बातें नहीं करता! घर के पास एक वीरान बाग़ीचा है, और उसके आगे निविड़ भूदृश्य। यहां दूर-दूर तक कोई रेलवे स्टेशन नहीं है और यहां की गलियां भी कहीं जाकर खुलती नहीं। यानी पूरी तरह से निर्जन और एकान्त!"

किंतु चार ही महीने बाद चित्र बदल जाता है। इसकी सूचना भी हमें रिल्के के ही एक ख़त से मिलती है।

1921 के साल का अप्रैल महीना है और इस बार रिल्के बेलादीने क्लोस्सोव्स्का को निराशा भरे स्वर में एक पत्र लिखता है-

"पता है क्या हुआ? वीरान बाग़ीचे में लकड़ी चीरने की आरा-मशीन लगा दी गई है। ये मशीन दिनभर शोर करती है और उसका इस्पात बेचारे काठ के लट्‌ठों को चीरता रहता है। ये लकड़ियां जंगल से वैसी ही क्रूरता से काटकर लाई जाती हैं, जैसे कोई डेंटिस्ट हमारे दांतों के साथ बेरहमी के साथ बर्ताव करता है। ओह, मेरा सुंदर एकान्त! यह सब कितना भयावह है। मेरे लिए कोई ख़याल तभी वास्तविक होता है, जब मैं उसको सुन सकूं, लेकिन यहां तो इतनी आवाज़ें हैं। इतने शोर में कुछ सोचना ऐसा ही है, जैसे पहले ही लिखे जा चुके काग़ज़ पर फिर से कुछ लिखना।"

ये दोनों पत्र मुझे आक्सेल एन्गलुन्द के एक लेख से मिले, जो संगीत और ख़ामोशी से रिल्के के सम्बंध के बारे में था। रिल्के दुर्धर्ष एकान्तजीवी था। बार-बार वीरान जगहों और पहाड़ों पर चला जाता। कोलाहल से उसे कष्ट होता। पेरिस में जब वो रहने गया तो इस महानगर की हलचलों से गहरे अवसाद में आ गया। माल्ते लॉरिड्ज़ ब्रिग्गे की नोटबुक में उसी अवसाद की अभिव्यक्ति हुई। जबकि वो तो 1902 का आदिम पेरिस था।

दूइनो के शोकगीत एकान्त में ही रिल्के पर नाज़िल हो सके थे। वह तो संगीत को भी एकान्त में ख़लल मानता था। "द बुक ऑफ़ इमेजेज़" में एक कविता है, जिसमें वो एक नौजवान से कहता है- "रहने दो ना, क्यों संगीत बजाते हो। रख दो यह वायलिन, तभी ना तुम्हारी आत्मा हलके स्पर्शों के घर कर सकेगी।"

जिसके लिए संगीत भी यातना हो, उसके लिए शोर कैसा होगा? मैं रिल्के का वह अप्रैल 1921 का पत्र पढ़कर मुस्करा उठा था। मुझे समुत्सुक-करुणा का अनुभव हुआ कि उसके वीरान बाग़ में आरा-मशीन लगा दी गई। मैं तो इससे कौतूहल का ही अनुभव करता। रॉबेर ब्रेसां की फ़िल्म "डायरी ऑफ़ अ कंट्री प्रीस्ट" में भी रह-रहकर लकड़ी चीरने वाली मशीन का स्वर निविड़ एकान्त में बज उठता है, जब फ़िल्म का नायक अपने जीवन के नैतिक-प्रसंगों पर सोच रहा होता है। बहुत सम्भव है ब्रेसां ने रिल्के के वो ख़त पढ़े हों।

इतना कोमल एकान्त हो तो वह शोर के एक ही आवेग से करुण हो जाता है। मुझे तो वैसी करुणा से प्रेम ही होगा। कोलाहल का वह एक प्रसंग तब मेरी आत्मा की पृष्ठभूमि में क्लैरिनेत की तरह बजता। मैं उसके लिए जगह बना सकता था, बशर्ते, वैसा ही एक उजाड़, वीरान बाग़ मुझे अपने घर के बाहर मिल पाता। और रेलगाड़ियों के लिए असम्भव होता मेरा जीवन।

दोष मेरा नहीं है। मेरी चेतना को ईश्वर ने रिल्के से कम ऐहतियात से गढ़ा हो, वैसा भी मैं क्यूं सोचूं? ये सदी ही दूसरी है। मैं कोलाहल की संतान हूं। समय मेरे भीतर एक दिनमान के समूचे घनत्व के साथ व्यापता नहीं। आत्मा में विशृंखल के प्रसंग निर्मित हो जाते हैं। आत्मा के काग़ज़ पर लिखे गए अक्षरों के तारतम्य हैं, एक के ऊपर दूसरे।

इमरे कर्तेष जब आधी सदी के बाद उस यातना-शिविर में गया, जिसने उसे लगभग मार डाला था, तो वहां फ़ैक्टरी साइरन की चिर-परिचित ध्वनि सुनकर मुस्करा दिया था। आधी सदी पहले भी तो वह साइरन वैसे ही बजता था ना। उसे उससे प्रेम हो गया था। वह रिल्के से दूसरी सदी में जी रहा था, मैं उससे तीसरी सदी में जी रहा हूं, और रातों के पवित्र एकान्त को बेसुध सोकर ख़र्च कर देने वाले मेरे समकालीन शायद इससे कहीं अधिक क्लान्त किसी चौथी सदी की संतानें!