नीली छतें / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
नीली छतें जैसे हिम के मरुथल में नीली चिनगारियां।
वो पॉल गोगाँ की चित्रकृति थी। पॉल ने गहन विषण्णता और हताशा के क्षणों में इसे बनाया था.
मन बंध जाय तो दु:ख कुछ देर को भूल जाता है, यों उससे बदलता कुछ नहीं, सिवाय इसके कि दु:ख के गहन क्षण की कृति प्रार्थना के आवेग से आप्लावित हो आती है।
साल, 1884 : गाँव, रूवे। पॉल इस रूवे गाँव में रोज़ी रोटी कमाने आया था लेकिन बनाने बैठ गया चित्र। पर वो ये चित्र ना बनाता तो सुदूर फ्रांस के इस भूदृश्य को आज कौन याद रखता?
दु:ख की दैनन्दिनी में बहुत दीर्घकालिक लाभ लिखे होते हैं, कोई एक जीवन उसमें क्लान्त होकर गल रहे सो क्या? व्यक्ति बड़ा या कला? कला की बलिवेदी पर व्यक्ति की इयत्ता का दाह हो जाना चाहिए!
समरसेट मॉम कहता-- चाँद के लिए छह आने क्या!
वो चित्र पॉल ने तब बनाया था जब वो अभी अपनी कला से परिचित ही हो रहा था। वो चित्र सुंदर है। अनश्वर का करस्पर्श इसमें चला आया है.
वो आकाश देखते हो? हल्का निरभ्र नील! ये पॉल का समय था। और वो नीली छतें देखते हो? गाढ़ी संतप्त रंगतें! ये पॉल का अंतःस्तल था।
ये परिप्रेक्ष्य उसको भला क्या मालूम था, जो हताश मन को बांधकर रंग रहा था कैनवस, जैसे सुघड़ वाक्यों से दु:ख पर एक बांध बनाता हो वेदना का गायक!