ओर्फ़ीयस की विदा / कल्पतरु / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
ओर्फ़ीयस की विदा
सुशोभित


एक अंतिम बार पीछे मुड़कर देखना और विदा कहना ज़रूरी होता है। जीवन चाहे जितना अधूरा हो, विदा पूर्ण होनी चाहिए। जिनके पास पूरी विदा नहीं, वो आधी जलकर बुझी चिता की तरह होते हैं। राख नहीं धुंआ।

कहते हैं जब मनुष्य की मृत्यु होती है तो उसकी आंखों के सामने बीते जीवन के तमाम चित्र एक-एक कर उभरने लगते हैं। वह हमारे अवचेतन की सबसे बड़ी रंगशाला होती होगी। शायद यह मनुष्य की इस सबसे गहरी कामना का फल है कि हम आख़िरी बार पीछे मुड़कर देखें। यों ही अनमने ना चले जाएं। जीवन बिना किसी नियम के जी लें तो चल सकता है, किंतु विदा नियमपूर्वक ही ली जानी चाहिए।

एक यूनानी मिथक है- ओर्फ़ीयस और यूरिदाइस का। वे एक दूसरे के प्रेम में हैं। संगी-साथी हैं। किंतु यूरिदाइस की मृत्यु हो जाती है। उसके शोक में व्याकुल होकर ओर्फ़ीयस उसे लिवाने दूसरी दुनिया चला जाता है। हार्प बजाकर उसे पुकारता है। दूसरी दुनिया के देवता उसकी टेर सुनकर आते हैं। उसकी निष्ठा पर मुग्ध होकर उसे ओर्फ़ीयस को अपने साथ ले जाने की अनुमति दे देते हैं। किंतु शर्त यह है कि दूसरी दुनिया के प्रवेशद्वार तक उसे पीछे लौटकर नहीं देखना होगा। ओर्फ़ीयस मान जाता है किंतु अंतिम क़दम से ठीक पहले उसका दिल धड़क उठता है। क्या हुआ, अगर यह झूठ हो। कहीं ऐसा तो नहीं, मैं यूरिदाइस को अंतिम बार देख नहीं सकूंगा। वह तड़पकर मुड़ता है। यूरिदाइस उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी किंतु उसके मुड़ते ही हमेशा के लिए खो जाती है।

सेलीन शियामा की फ़िल्म 'पोर्ट्रेट ऑफ़ अ लेडी ऑन फ़ायर' में यह यूनानी मिथक केंद्र में है। वास्तव में वह पूरी फ़िल्म ही एक सुदीर्घ विदा का रूपक है। मरीन हलुइज़ का चित्र बनाने आई है। इसी चित्र के आधार पर विवाह के लिए उसका चयन किया जाएगा। किंतु इस दौरान दोनों को एक-दूसरे से प्रेम हो जाता है। जिस प्रसंग ने मिलाया था, वही उन्हें अलगाने का कारण भी है। एक सीमा के बाद वो अपनी नियति स्वीकार लेती हैं और एक लम्बी विदा के लिए स्वयं को तैयार करती हैं। जीवन में एक पल को भी प्यार मिले तो वह सौभाग्य ही है, किंतु यह जानकर प्यार करना कि कल यह नहीं रहेगा, बड़ी कठिन परीक्षा है। फ़िल्म के एक दृश्य में मरीन और हलुइज़ ओर्फ़ीयस और यूरिदाइस की कहानी पर बात करती हैं। प्रश्न सामने रखा जाता है कि ओर्फ़ीयस ने पीछे लौटकर क्यों देखा, जबकि देवता यूरिदाइस को उसे अपने साथ ले जाने देने के लिए राज़ी हो गए थे? क्या उसे संशय था? क्या वह सोचता था कि वह यूरिदाइस नहीं, उसकी प्रतिच्छाया को अपने साथ लिए जा रहा है? क्या उसे यह अंदेशा था कि अगर यह झूठ निकला तो वह यूरिदाइस को अंतिम विदा नहीं कह सकेगा? क्या स्वयं यूरिदाइस ने उसे पुकारकर पीछे मुड़ने को विवश कर दिया था?

तब मरीन कहती है- शायद ओर्फ़ीयस ने पीछे लौटकर इसलिए देखा क्योंकि उसने यूरिदाइस की स्मृति को चुन लिया था। यह एक प्रेमी का नहीं, एक कवि का चयन था। वह एक अंतिम बार उसे निहार लेना चाहता था।

ओर्फ़ीयस की त्रासदी पर यही सबसे सच्ची टिप्पणी हो सकती है कि उसने प्रेमी का नहीं, एक कवि का निर्णय लिया था। प्रेमी अपनी संगिनी को लिवाने आया था, कवि ने पीछे मुड़कर उसकी स्मृति को संजो लिया। पीछे मुड़कर देखे बिना आप कवि नहीं हो सकते। कविता की परिभाषा ही यही है कि आप ठहरें और एक बार जीवन को लौटकर देखें। जैसे कोई स्थिरचित्र!

किंतु यह विदा सरल नहीं थी। फ़िल्म में एक क्षण ऐसा आता है, जब मरीन विचलित हो जाती है। वह हलुइज़ को उलाहना देती है कि तुमने इस विवाह को स्वीकार क्यों कर लिया है, तुम विरोध क्यों नहीं करतीं, क्या तुम भी यही चाहती हो? मरीन का दु:ख समझने जैसा है। जीवन में सुंदर तारतम्य वाला वैसा सम्बंध एक बार ही निर्मित होता है। उसे इतनी आसानी से कोई खोना नहीं चाहता। किंतु उसके द्वारा पूछे प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं हो सकते हैं। दोनों के बीच कटुता चली आती है। यह अंतिम संध्या है, कल उन्हें एक-दूसरे को विदा कह देना है। तब मरीन उठती है और हलुइज़ के पास जाकर क्षमायाचना करती है। इसलिए नहीं, कि वह ग़लत थी। बल्कि इसलिए कि उसे अपनी अंतिम विदा को सुंदर बनाना था। वह इस प्रेम को यों ही कटुता के साथ नहीं त्यागना चाहती थी।

जिसके मन में उलाहना आया था, वह प्रेमी था। जिसने लौटकर क्षमायाचना की, वह कवि था। एक अंतिम पंक्ति के बिना कविता मुकम्मल नहीं होती। और उस पंक्ति की सुंदरता ही कविता की सुंदता है।

एक अंतिम चुम्बन, एक अंतिम आलिंगन, एक अंतिम स्पर्श। आख़िरी बार रोना और मुस्कराना। आख़िरी बार यह कहना कि अब यह आख़िरी है। जिसने वह क्षण नहीं जीया, वह मरकर भी मरता रहता है। जैसे क़ब्र में भी बढ़ते रहते हैं मुर्दों के नाख़ून। अगर प्रेम पूर्ण नहीं है तो विदा पूर्ण होनी चाहिए।

प्रेमियों को एक-दूसरे से एक ही वरदान मांगना चाहिए- "तुम मुझे ठीक से विदा तो कहोगे ना!"