कस्तुनतुनिया से तोहफ़ा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
कस्तुनतुनिया से एक तोहफ़ा हमें मिला- कारपेट बुकमार्क, रेशम और ज़री का. नींद आने पर इसे किताबों में रखकर सो रहने की रिवायत है, कैफ़ियत है.
कस्तुनतुनिया जब बिज़ान्तिन था, तब वो ये नहीं बना सकता था. ये तो वो जब कस्तुनतुनिया था, तब भी नहीं बना पाता. रोमनों से लेकर तुर्कों तक, बिज़ान्तिनों से लेकर उस्मानियों तक, योरप से लेकर एशिया तक-- भूमध्यसागर में एक पुल जैसा जो शहर है, ओरहन पमुक के नीले तसव्वुर का मुक़ाम, उसी इस्ताम्बुल की ये कारीगरी है.
इश्फ़ाहान और समरकन्द को भी इस हुनरमंदी पर फ़क्र होता.
तोहफ़ा हमारे मन को रुच गया, यों तोहफ़े हमें कम नहीं मिले. किताब में ये नीली लौ रखकर सो रहूं, तो मैली तो ना हो जावैगी? सफ़ों से स्याही का दाग़ तो ना चला आवैगा? कॉन्सतेन्ताइन प्रथम के चेहरे का इस्पात विकृत तो ना होगा? उलूग़ बेग की अध्ययनशालाओं की किताबें भी तो ऐसे मोरपंखों से पटी होंगी, धनक की लपट जैसी! "ज़िजे-सुल्तानी" में भी तो वैसा ही किताबनामा होगा! रोमनों के पराभव पर गिबन की छहों जिल्दों में भी. सो वही सही.
हमें लुत्फ़ हुआ. वैसी ख़ूबसूरती के हम मक़तूल हैं. ग़ुलाम हैं. इससे ज़्यादा और क्या कहें?