सृष्टि का शोक / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
मनुष्य की चेतना इस सृष्टि का शोक है.
इस सृष्टि का घाव है मनुष्य की चेतना, इस सृष्टि का शाप है. इस सृष्टि को विरूप कर देने वाली सबसे असंगत तरंग.
अपने सबसे शुद्ध रूप में यह केवल अवर्णनीय कष्ट झेलती है और जब यह शुद्ध नहीं होती तो भरी होती है केवल पाप से.
गांवों की सरहद पर रात के अंधड़ में एक-एक कर जैसे बुझ रहती हैं लालटेनें, ऐसे ही मनुष्य की चेतना को बुझ जाना चाहिए.
आपको अनुमान भी है ईश्वर कितना क्लान्त है? ईश्वर एकान्त में बैठकर रोता है. बहुत मन से उसने यह सृष्टि रची थी, बहुत भावना से इसमें रंग भरे थे. और अपने भीतर का उजाला लेकर उसने रची थी मनुष्य की चेतना.
आज ईश्वर से ज़्यादा लाचार कोई नहीं, ईश्वर से अधिक हताश कोई नहीं.
बुराई (Evil) ने सदियों पहले ईश्वर को अपदस्थ कर दिया था. आज बुराई ही सृष्टि की विधाता है. सृष्टि में जीवित बने रहने का मतलब बुराई की उपासना करना है, फिर आप वैसा ईश्वर की उपासना करने का स्वांग करते हुए ही क्यों ना करें.
ईश्वर बहुत भारी मन से अपनी सृष्टि को नष्ट कर देना चाहता है, जैसे उसने मर जाने दिया था अपने बेटे को सलीब पर. लेकिन बुराई हमें जीवित रखे हुए है. इस सृष्टि को ईश्वर नहीं बुराई चला रही है और मनुष्य की चेतना उसका सबसे बड़ा साधन है. बुराई ने मनुष्य की चेतना के साथ गठजोड़ करके ईश्वर को परास्त किया है!
एक मेट्रोपोलिटन ब्लैकआउट के दौरान अपार्टमेंटल ब्लॉक्स की बत्तियां जैसे एक-एक कर बुझ जाती हैं, वैसे ही बुझ जाना चाहिए मनुष्य की चेतना को, कि इसके बिना कोई संगति, कोई शांति सम्भव नहीं!
अपने पिता ईश्वर से पुनः एकरूप हो जाने का अब सर्वनाश के सिवा कोई रास्ता नहीं.