मित्र का शत्रु / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
शत्रु का शत्रु मित्र होता है. होता हो या नहीं, मान अवश्य लिया जाता है. शत्रु के शत्रु से मनोनुकूलता के स्तर पर मैत्री की परिकल्पना कर ली जाती है. वह मन ही मन मित्र मालूम होने लगता है.
किंतु मित्र का शत्रु आपका भी शत्रु हो, यह आवश्यक नहीं. और मित्र का शत्रु शत्रुओं का मित्र हो, यह तो हरगिज़ ज़रूरी नहीं. वैसा कोई भ्रम मित्रों को विचारधारा के स्तर पर भले हो जाए (जैसे, वह वाम का शत्रु है और वाम दक्षिण का शत्रु है तो वह निश्चय ही दक्षिण का मित्र होगा, और चूंकि मैं वाम का मित्र हूं तो वह मेरा भी शत्रु हुआ!), व्यवहार में बहुधा नहीं ही होता.
मसलन, जो आपका मित्र है, वह आपके शत्रु के प्रति भी इतना ही मित्रवत हो सकता है. इतने भर से आप उसे भी अपना शत्रु मान लें तो यह आपकी मौज है, किंतु आपका मित्र आपके शत्रु को अपना शत्रु तभी मानेगा, जब वो स्वयं उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होगा, अन्यथा नहीं.
यहां समस्त सरणियां व्यक्तिगत हैं. यहां श्रेष्ठ और निकृष्ट में से किसको मित्र चुनें, इसका झगड़ा नहीं है. मेरे प्रति कौन मित्रवत है और कौन शत्रुवत, सम्बन्धों का आधार यही है.
दो व्यक्ति एक दूसरे के लिए कितने असम्भव हैं, कितने अपरिचित, इसका अनुमान तभी होता है, जब आप अपने अभिन्न मित्र को आपके अभिन्न शत्रु से भी अभिन्न पाते हैं, और यह आपको निस्संग बनाने के लिए पर्याप्त है.
शत्रु से मैत्री के लिए मित्र को शत्रु मान बैठेंगे तो ना केवल आप एक मित्र गंवा देंगे, शत्रु को एक नया मित्र भी नाहक़ ही मिल जायेगा. शत्रु से मैत्री पर मित्र को शत्रु मान लेने से शत्रु और मित्र के बीच निर्मित नई नवेली मैत्री की छटा देखते ही बनती है. जो आपके शत्रु को अपना भी शत्रु मान बैठे, सच्चा मित्र तो वही है. वैसा मित्र मिल जाए तो उसे गांठ से बांधकर रख लेना चाहिए. किंतु संसार का सत्य तो यही है कि मनुज सबसे पहले निज का ही मित्र होता है. आपकी अनुकूलताएं उसकी वरीयताओं के दायरे में अंततः नहीं ही हैं!
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर इसी आत्मबोध का तद्भव है.