मृत्यु की अनुभूति / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
मृत्यु हो तो सबसे पहले जो अनुभूति होगी, वह एक अपूर्व निर्वेद की होगी.
चेतना सोचती होगी, अभी तो इतनी वेदना थी, पीड़ा थी, संताप था, क्षण भर में सारा क्लेश कहां चला गया? और अगले ही पल अनुभव होता होगा कि वेदना जिस देह में थी, वह देह ही तो छूट गई है. देह और प्राण की सम्पृक्ति इतनी ही विकट होती है.
जब प्रेत को दिखती होगी निष्प्राण देह, तो सोचता होगा कि वह वहां पर है, तो मैं कौन हूं, जो यहाँ से देख रहा हूं? प्रियजन क्यूं विलाप कर रहे, जबकि मैं तो यहाँ.
मृत्यु होने पर सबसे पहले मृत्यु की प्रतीति से समझौता करना कठिन हो जाता होगा.
और तब बूझता होगा कि अब यह दूसरी देह है, अब यह दूसरा लोक है, और उस लोक के गुरुत्वाकर्षण खप चुके हैं. स्पेस का विस्तार एक पारदर्शी कांचघर बनकर रह गया है, जहाँ कोई दीवारें नहीं.
जहाँ मृत्यु हुई, जहाँ शव को रखा, जहाँ दाह किया, जहाँ पुत्र हैं, परिजन हैं, जहाँ पिंड दिए, केश उतारे, उन सभी स्थानों पर रहती है वह आतिवाहिक प्रेतदेह, और केवल जल से तृप्त होती है, जिसे अंजुरी में भरकर अर्पित करते हैं प्रियजन.
दशमी के पिंडदान से बनते हैं दशगात्र. गात से गति होती है. गति से यात्रा. सद्गति है या नहीं, कौन जाने, किंतु हम तो यही चाहते हैं कि मृतात्मा अब यहाँ से गति करे.
नाम लेकर, गोत्र उचारकर कहते हैं, जल दिया है, दाह दिया है, पिंड दिया है, केश दिये हैं, जिसमें आयु के अथर्व- हे प्रेत, अब गति करो! सम्भव हुआ तो पितरों के लोक में मिलेंगे, जिसके प्रथम प्रकोष्ठ में गुहांधकार.
दस दिनों तक जो प्रेतदेह थी, बावन पिंडों के दान से जीवात्मा बनती है, नई यात्रा को निकलती है, नई पीड़ाओं की ओर. जो राग और द्वेष शेष रह जाएं तो फिर लौटकर आना होगा, ऐसा कहते थकते नहीं सयाने लोग और किताबें.
चेतना चिन्मय है, देह मृण्मय है, किंतु चेतना देह में लौटकर आएगी तभी मोक्ष पाएगी, अगर मोक्ष पाएगी, कैसी तो विडम्बना है. लौ में तेज है, ताप है, किंतु मिट्टी का दिया जब तक निमित्त न होगा, उसका कोई रूप नहीं बनेगा. निर्धूम होकर परम दीप्ति से मिलेगी किंतु तभी जब मृत्तिका दीपक उसे धारेगा, तिमिर के समक्ष?
मोक्ष भी, निर्वाण भी, अपवर्ग भी चेतना की स्वायत्त गति नहीं, देह का उसमें भी निवेश है.
यूं ही नहीं जल और पृथ्वी से बनी नश्वर काया में तेज, वायु, आकाश के प्राण तत्व की सम्पृक्ति औ सन्निधि रची गई थी.
सृष्टि की हर गांठ खुल सकती है, जल और आकाश में पड़ी गिरह भी, किंतु देह और प्राण की गांठ को खोलना दुष्कर है.