घर में अकेले / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
अकेले और निर्जन घर ज्यूं एक तरंग से भर जाते हैं। जैसे एकान्त के भीतर कोई लालटेन रखी हो, वैसा एक ख़ामोश उजाला मंज़र में मंज आता। मेरा पूरा जीवन अपने आसपास मौजूद चीज़ों को दुरुस्त करने में बीता है, और जब मैं घर में अकेला होता हूं, तो हर चीज़ को पहली और आख़िरी बार सलीक़े से सजा देने के बाद कई कई दिनों तक इस सोच में डूबा रहता हूं कि अब करने को बचा क्या है? यह एक मीठी-सी मायूसी होती है, अनमने के मरुथल में एक और कनी का इज़ाफ़ा करने वाली। जब मैं घर में अकेला होता हूं तो मुद्दत यों मद्धम लय पर चलती है, जैसे किसी ने स्लो मोशन में ज़िंदगी को रिकॉर्ड कर लिया हो। एहसास की इतनी सम्पूर्णता मन को तसल्ली के रचाव में बुन देती है। एक शाइस्तगी आंतों के भीतर खलने लगती है! सोफ़े के कुशन अपनी जगह से डिग ना जावैं, इस भय से मैं फ़र्श पर बैठता हूं। मौन की खेंच ना टूटे, इस एहतियात से दिन-दिनभर कुछ बोलता नहीं। एक-एक तिनका बुहार देता हूं। एक-एक धब्बे को पोंछ आता हूं। रसोईघर के आले से जस्ते की तश्तरी का नीचे गिर जाना तब सबसे बड़ा हादिसा होता है, अंदेशों से भर देने वाला। एक वीरान ख़याल तब ज़ेहन में उग आता है कि शायद अब मेरा यहां होना ही इस तख़लीक़ का इकलौता अधूरापन है। मुझे सांकल लगाकर यहां से बाहर निकल जाना चाहिए, ताकि अवकाश के सारे कोण अपने दुरुस्त ठिकानों पर जा रहें। और ये तवील तनहाई एक तराना बन जावे, ख़ुद को मन ही मन गुनगुनाता! तब मन बंजारा बन जाता है, शहरबदर टहलता उस नाशुक्रा दुनिया में-- जहाँ दियासलाई की एक तीली भी अपनी जगह पर नहीं!