सागौन का पत्ता / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
सागौन का पत्ता बहुत बड़ा होता है। पत्तल जितना बड़ा। इस पर भात रखकर खाओ तो सहज ही उदर-पोषण हो जावै, किंतु लोक में यह निर्देश है कि इस पर भोजन करना निषिद्ध है। यदि यह नहीं होता तो सागौन का पत्ता हर बटोही के बस्ते में मिलता।
मध्य-भारत की विन्ध्य-सतपुड़ा मेखला पर जहां जहां धरती तनिक भी उठंगी है, वहां साल और सागौन के पेड़ लदे हैं। मध्य-प्रान्त का हर साल और हर सागौन मेरा कल्याणमित्र है। वह विनयी की भांति पत्तों से लदा रहता है। दयालु की तरह अपने उपहार अरण्य को सौंपता है। मुझे साल और सागौन के हर पत्ते से अनुराग है।
दक्षिण-विन्ध्य में, जहां भीमबेटका के गुह्यशैल हैं, सागौन का वह पत्ता मुझे मिला। वसन्त उसके भीतर से होकर रीत गया था। हरा जब गहरी तंद्रा में डूब जाए तो पीला पड़ जाता है। उसका वर्ण विषण्ण हो जाता है। शिराओं का रस सूख जाता है और मुलायम रेशम-सा एक कंकाल शेष रह जाता है। और फिर भी इतना सुरम्य, इतना सुकोमल- धूप का एक पंख!
भीमबेटका के इन गुह्यशैल में, जहां दस-बारह सहस्र साल पहले पाषाण-युग के मनुज आदिम भय का भवितव्य लिए जीते थे, वहां शिलाओं पर चित्र हैं। मन-बहलाव को उन्होंने बनाए थे। वो चित्र आज भी यहां सैलानी को अकुलाते हैं। लाल और सफ़ेद रंगों के रेखांकन- गेरू के हरिण और वृषभ और तीर और तलवार... और सन्ध्या के उत्सव।
औबेदुल्लागंज की ग्रामसीमा लांघकर मैं इन शैलाश्रयों में पहुंचा था। क्यूं कर गया था, मुझे उससे क्या व्यापार? तब भी शिलाओं पर देरी तक खोजता रहा सागौन के किसी पेड़ का चित्र। क्या तब भी सागौन रहे होंगे? क्या सागौन के सुदीर्घ पत्तों पर आखेट का कलेवा करते होंगे वनवासी? देरी तक इसी कल्पना में डूबा रहा।
भीमबेटका में वृक्षों की जड़ें थीं, शिला का लहू पीने वालीं। भीमबेटका में शिलाएं थीं- कितनी कोमल, और सुठोस। वो कठोर न थीं, सघन थीं। वो अमर थीं। जैसे साल और सागौन अमर हैं। आपको क्या लगता है, हर पतझड़ में मर जाते हैं पत्तों के मर्मर? काष्ठ और प्रस्तर, जड़ों और पर्णों के उस संकुल में एक मैं ही नश्वर था। एक मेरी ही अस्थियों में विषाद का मंजाव था। एक मैं ही यहां यात्री की भांति आया था, लौट जाने को। जैसे मेरे पुरखे यहां आए थे, एक-एक कर मर जाने को।
वैसे परिग्रह से क्या लाभ जो कल्पना को कष्ट ही दे- यही सोचकर सागौन के उस पत्ते को वहीं एक झाड़ी पर छोड़ आया। मकड़ी ने उस पर संजाल तो बुना होगा। सन्ध्या का शीत उसकी सूखी शिरा में तो उतरा होगा। मेरे करस्पर्श की उसे भला क्यूं स्मृति होगी? किंतु मैं उसको वहां से लौट आने के बाद से ही याद करता हूं।
मैं तो पथिक था- वृक्ष से भी विरल!
वह जो गृहस्त था- आत्मा का सुतल!