आओ, काढ़ दूं तुम्हारे बाल / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
गर्मियों में झट सूख जाते बाल। सूखकर रूखे-भूरे हो जाते। कंघी के दांत की लीकें तो गीले बालों में ही बन सकती थीं ना!
"आओ, काढ़ दूं तुम्हारे बाल", बेटे से कहा तो उसने सौंप दिया, मुंदी आंखों वाला भला गोल चेहरा, मेरी अंजुरियों में। उस भोले भरोसे ने ग्रस लिया। रात बिरात कभी चला जाता सोने के कमरे में, तो दिखता था मुंदी आंखों वाला वैसा ही मुखमंडल, भोर के निरभ्र-सा निष्कलुष।
"इससे निर्दोष तो कपास का फूल भी नहीं", तब मैं स्वयम् से स्वप्न में कहता। किंतु दिनमान की पथिक धूप की भले ठौर मिल जाय, पांच साल के बालक को कहां एक स्थान पर संतोष?
एक बाल काढ़ना ही वैसा उद्यम था, जब अनिवार्य था अडिग रहना, नहीं तो बालों में कैसे बनतीं लहरों सी लीकें। सुघड़ रेखाओं से भरी! कांसफूल की वनखण्डी में पथ की डार देखी है कभी?
बड़े ही लाड़ से काढ़े केश। जैसे निपुण हों इसी गुण में, वैसे सधे हाथों से बाईं ओर खींची एक बांक। बालों के मुलायम छोर कानों पर मुड़ गए। भाप की गंध समा गई मन में!
पिता होना निरी संज्ञा तो नहीं। पिता होने के अनेक पर्याय हैं। बच्चे को कुल्फ़ी खिलाने वाला पिता स्कूल लेने जाने वाले से फ़र्क़ नहीं। आधी रात आंखें चूमकर आशीष देने वाला भी वही। फिर वही, एप्रिल के एक दिन काढ़ता है उसके केश।
बात पूरी हुई, संवर गए बाल, दोपहर ने बुला लिया अपने पास, नए-नवेले नहाये-धोये राजा बेटा को!
पिता के पास रह गई कंघी, तैल की डिबिया, रविवार की मध्याह्न और स्नेह की कनी। पिता के पास रह गया वह भोला भरोसा, मुंदी हुई पलकों में जिसका भूला भुवन।