पीताम्बरा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
शीत ऋतु में त्वचा उत्सव बन जाती है। धूप में जितने आश्चर्य भरे हैं, वे सब इस ऋतु में उजागर होते हैं। शीत की अपराह्नों में तब यही धूप वैसा उजलापन भर देती है, जो अनश्वर है। पारलौकिक का भाव मन में चला आता है। स्मृति रंगशाला बन जाती है। हम स्वयं से कहने लगते हैं, यह सब पहली बार नहीं है, यह सब कितनी तो बार हुआ!
ईश्वर की इस सृष्टि में सहस्र तृष्णाएं हैं, शीत ऋतु की धूप में छत पर जाकर सो रहना उनमें से एक। आंखें मुंद जाती हैं। देह पर ऊष्मा दीपती है। जिसके रक्त में ही शीत हो, उसके लिए तो यह पर्व है। रातभर की जगी, कम्बल में सिमटी, शीत से अवमानित, प्रेयस की अनछुई देह तब धूप की संगत में निखरती है। संवलाए तो भी किसे हानि। जिस गौरवर्ण पर गौरव था, उसे ही किसने दुलारा? कम से कम यह धूप तो है, जो स्नेह करती है। उसकी प्रीति इतनी मीठी है कि आलस से भर देती है।
तब शोक भी सम्यक लगता है। सुख के अभिप्राय गहरा जाते हैं। विगत के विषाद चलचित्रों की तरह मायावी लगते हैं। और, दु:ख में भी सुरुचि!
मैं तो स्वभाव से ही धूप-धर्मी हूं। वर्षा मेरा वंदनवार नहीं। मुझे तो धूप के फूल चाहिए। रक्तसंचार की रीति। ऊष्ण शुष्क जगरूप। जेठ का निदाघ तो तप है। मेरे जैसे अनुरागी के लिए अग्रहायण की तृप्ति का रोमांच ही बहुत।
जब किशोर वय में था तब धूप में नहान करता था। तिमंज़िले मकान की खुली छत पर। शीत की इसी ऋतु में, धूप से गरमाए जल से। बालक ही था, यों उघड़ा बदन लेकर छत पर नहाने से लज्जा नहीं आती थी। जब वय में लज्जा भरी, तो जाने कितने निषेधसूत्र मन पर बंध गए। पर वह अनुभूति सुंदर थी। एक तो नहान का सुख, दूसरे नहान से गीली देह पर पीताम्बरा के रेखाचित्र। साबुन की गंध में सुख था। तौलिये के स्पर्श में संतोष। कंघी करने से पहले केश सूख जाते। त्वचा रूखी हो रहती। सरसों के तैल के उबटन से ही वह मुस्कराती।
तब मैं स्वयं से कहता, ईश्वर ने शीत इसीलिए रचा कि ऊष्मा को हम भोग सकें। ईश्वर ने पौष की सृष्टि इसी तृष्णा से की। मृत्यु शीत ही होगी, क्योंकि ऊष्मा जीवन है।
श्रीनरेश मेहता ने पूछा था- "इस कोमल गांधार धूप को कभी अपने अंगों पर धारा है?" उन्होंने धूप को कोमल गांधार कहा था। उन्होंने धूप को वैष्णवी कहा था। और उन्होंने ही धूप को कहा था- "देववस्त्रों-सी अकलंक।"
धूप पर कोई कलंक नहीं है, चंद्रमा पर भले हो। धूप धवल है, उजली है, देवताओं के वस्त्र-सी।
हर वो मनुज, जो धूप के सिवा और कोई वस्त्र देह पर पहने, उस पर देवऋण चढ़े!