02 अक्टूबर, 1946 / अमृतलाल नागर

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आठ रोज से आगरा हिंदू-मुस्लिम दंगे के नाम पर गुंडों का शिकार है। मुहल्‍लों में पहरेबाजी और सनसनी 2 सितंबर से ही शुरू हो गई थी - जिस दिन दिल्‍ली में कांग्रेस की अस्थायी सरकार आई। आग, शोर, लूटपाट, लाठी, छुरे और बंदूकें हिंदू और मुसलमान के नाम पर बेकसूरों को मौत की सजा देती रहीं। कर्फ्यू लगा हुआ है। तीन रोज से दिन में खुल जाता है। बात रामलीला के वनवास के जुलूस से शुरू हुई। माल एक बाजार से जुलूस गुजर रहा था और ऊपर से ईंटें और गोलियाँ बरसाई गईं। उसके बाद से मनुष्‍य की घृणा और खून की प्‍यास बेतहाशा बढ़ गई। आदमी को आदमी पर भरोसा उठ गया है। दिमागी उलझन डर के शिकंजे के साथ जुड़ी हुई हर व्‍यक्ति को हार, खिझलाहट और निराशा भरे पागलपन में फेंक रही थी। दंगे के जोर के दिनों में एक बात बड़ी मार्के की देखी - लोगों के दिमागों से राजनीतिक कब्जे छूट गए थे। कांग्रेस या लीग, जिन्‍ना और पटेल, जवाहर का नाम कोई भी नहीं लेता था, सिर्फ हिंदू-मुसलमान की ही बातें थीं। जो मुसलमान है वह लीगी हो, नेशनलिस्‍ट हो, या कोई भी हो, सिर्फ मुसलमान है। जो हिंदू है, वह भी सिर्फ हिंदू ही है। हाँ, रात के पहरों में हिंदू जैहिंद पुकारते थे और मुसलमान अल्‍लाहो अकबर। 'जय हिंद' का यह दुरुपयोग मेरे लिए बहुत ही तकलीफदेह रहा। 'जयहिंद' चालीस करोड़ की जय का सूचक है और मुसलमान उसी हिंद में शामिल हैं। 'जयहिंद' का 'अल्‍लाहो अकबर' के साथ बैठना हमारी दोनों ओर की खोई या बिखरी हुई राष्‍ट्रीयता का सूचक है। कांग्रेस की जीत में हिंदू अपना बड़ा हिस्‍सा देखते हैं। उनमें इस समय गुलामी का भाव जाकर आजादी की भावना जागी है। बीमार रोगी के लिए यह पथ्‍य कुपथ न हो जाए-बड़ा डर लगता है। तानाशाही रूहानी नुकसान पहुँचाएगी। ठाकुरशाही, इस देश में गिरे-से-गिरे रूप में ही सही, पर विद्यमान अवश्‍य है। उसके खंडहरों पर नई तानाशाही की इमारत बड़ी ही भयावह कल्‍पना को आश्रय देती है। रामलीला निकालने का जोम अब भी है। दो महीने बाद मुहर्रम पर बदला लेने का भी जोश है। इन्‍हें सही तरीके से समझाने वाला भी कोई नहीं। अराजकता में प्रतिक्रियाएँ तो सदा ही बड़ा महत्‍वपूर्ण भाग लिया करती हैं। इतिहास ने सदा यों ही अपना नया पृष्‍ठ उलटा है।

पर मैं उलझ जाता हूँ। विश्‍व के इतिहास में बुद्धि का विकास, सामाजिक चेतना और एकात्‍मता का ज्ञान पहले कभी भी इस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा था, जहाँ आज है। फिर भी इतिहास अपने पुराने ढर्रे पर ही करवट ले, यह तो कुछ समझ में नहीं आता। मगर समझ को तस्‍वीर का दूसरा रुख भी देखना पड़ता है। प्रस्‍तर युग से एटम तक मानवी विकास की जर्रे जैसी छिपी हुई, नामालूम या लापरवाही से पीछे ढकेल दी गई कमजोरियाँ आज इकट्ठी होकर एक बड़ा ढेर और बड़ी शक्ति हो गई हैं। युग की समाप्ति के साथ जब तक यह नहीं जाएँगी - आगे का जमाना भी झूठी प्रगतिशीलता का ही जामा ओढ़कर आएगा। व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ, व्‍यक्तिगत सत्ता की ससीमता अपनी सामाजिक असीमता को देखकर डर रही है। इस सत्‍य को, इस डर को वह संधि की गाँठ में बाँध कर समाज को अपने पुराने ढाँचे में नए मढ़े हुए कागज के साथ देखकर ही संतुष्‍ट हो जाना चाहता है। यह गलत है। समाज की व्‍याख्‍या, धार्मिक समाज, सांप्रदायिक समाज, अमीर समाज, गरीब समाज, राजनीतिक समाज के दायरे में नहीं की जा सकती - हरगिज नहीं। प्रांतीयता, राष्‍ट्रीयता और अंतर्राष्‍ट्रीय्ता की दीवारों में भी समाज नहीं बँध सकता। पुराने, सदियों के sentiments जो इन चीजों के अंतराफ हैं, उन्‍हें तोड़ना ही होगा। धीरे-धीरे उन्‍हें तोड़ना ही होगा। वे गलत है। धीरे धीरे उन्‍हें पर मनौविज्ञानिक की हैसियत से मैं फिसलनों का डर देखता हूँ। मनुष्‍य को एकदम absolute Truth तीव्र प्रहार की छाप छोड़े बिना न रहेंगे- उनकी प्रतिक्रियाएँ भविष्‍य में बिलकुल नहीं होंगी, यह दावा गलत होगा। उनसे बचने का एकमात्र उपाय है कि इस अराजकता को सत्‍य और न्‍याय की बुद्धि के जबर्दस्‍त प्रहार से खत्‍म कर देना चाहिए।

इस दंगे में मेरा व्‍यक्तिगत और जबर्दस्‍त हिस्‍सा भी है। जब से पहरे लगने लगे, जिस दिन से अंदेशा हुआ, मैं निहत्‍था घूमता था। रामविलास ने एक दिन इस पर कहा भी। मैं भी सोचता रहा कि क्‍या आत्‍मरक्षण करना हिंसा है। मैं एक मन से इसे हिंसा नही मानता था, पर अहिंसा का सिद्धांत मेरी भावुकता के साथ लिपटा था। जिस दिन दंगे कि शुरुआत हुई, गोकुलपुरे में भी एकाएक गुंडों के आ जाने और हमला करने का जबर्दस्‍त हल्‍ला मच गया। मैं नीचे बैठक में माझा प्रवास का अनुवाद कर रहा था। फौरन ही लट्ठ लेकर बाहर आ गया। 'घटिया' नीचे-से - आठ-दस काछी लट्ठ लेकर आ रहे थे। गुंडों के आने का वह एक रास्‍ता है। मैं समझा आ गए और मैंने लाठी तान दी। लाठी तानने वाला मैं अकेला ही था, बाकी सब मुहल्‍लेवाले भी लट्ठ लिए हुए अपने जोश में इधर-उधर बिखरे हुए थे। काछियों ने तुरंत हाथ उठाकर मुझे 'स्‍वपक्ष' का सबूत दिया। बात, अब सोचता हूँ, मजे की रही। मोहल्‍ले में भी मेरी इस 'वीरता' के चर्चें हो गए, पर मैं यह वीरता दिखाने का मौका नहीं चाहता। ईश्‍वर, जल्‍द से जल्‍द इस गुंडेबाजी का खातमा करो, लाखों का दिल दहलता है। मेरा दिल भी दहलता है। शांति ! शांति !! शांति !!!