11वीं तक की पढ़ाई और अब दिहाड़ी मज़दूर / दीपक कुमार

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दीपक कुमार, उम्र 20 साल। दीपक कुमार का जन्म 23 जनवरी 1999, दिल्ली में हुआ। ये दक्षिणपुरी में रहते है और पिछले तीन सालों से मोहल्ला मीडिया लैब के रियाज़कर्ता रहे हैं।

ग्यारहवीं तक पढ़ने का कोई फायदा नहीं हुआ। नौकरी के लिए कितने फॉर्म भरे लेकिन कभी कोई जवाब नहीं आया। ज़िंदगी से समय निकाल-निकाल कर भटक रहा हूं। बेलदारी से मिले रुपयों से घर का गुजर-बसर दुश्वार होने लगा है। बच्चे भी बड़ी कक्षाओं तक पहुंच गए हैं।

नीलिमा कई दफा सामने से गुज़र चुकी थी। जब भी वह सामने से गुज़रती, तो ऐसा लगता कि आज के दिन के बारे में कोई सवाल ना कर बैठे। कोई काम नहीं मिला, ऐसा कब तक चलेगा? थोड़ा जमा पैसा है, वह भी रेत की तरह हाथों से फिसलता जा रहा है। मज़दूरी से भी कितना मिल पाता है? यही डेढ़ सौ से दो सौ रुपए।

हाथ में खाने की प्लेट लिए नीलिमा मेरे पास आकर खड़ी हो गई। “खाना खा लो ”, कहते हुए खाने की प्लेट मेरी तरफ बढ़ा दी। आज उसने कोई सवाल नहीं किया। उसने रोज़ाना के मेरे चेहरे को पढ़ना सीख लिया है।

“नीलिमा सुनो, आज फिर कोई काम नहीं मिला, कई जगह पर कोशिश की और जितने भी नौकरी के फॉर्म भरे हैं, उनका भी कोई जवाब नहीं आया है। चंद दिनों के लिए मिलने वाली बेलदारी से भी तो इतना पैसा नहीं मिल पाता।”

जुबान से अपने आप ही निकल पड़ा, “कल शाम काम की तलाश में कहीं बाहर जाऊंगा। पता नहीं कब तक लौटूं, अपना और बच्चों का ख़याल रखना।” यह सब सुनकर नीलिमा आगे चली गई, कुछ नहीं बोली।

रोज़ाना की टेंशन में बोल तो दिया था। मगर कहां जाऊंगा, मुझे इसका कोई अंदाज़ा नहीं था। सवाल तो नीलिमा के पास भी बहुत थे, लेकिन यह वक़्त सवाल करने और जवाब देने का नहीं था।

अगले दिन सोकर उठना तो सिर्फ बहाना था। सुबह सूरज की किरण निकलने से पहले ही नीलिमा रसोई में खाने की तैयारी कर रही थी। उसे पहले कभी इतनी जल्दी रसोई में जाते नहीं देखा था। मैं नहाया-धोया और चारपाई पर आकर बैठ गया। इतने में नीलिमा एक चाय लेकर आ गई। एक बैग में कुछ कपड़े और कुछ ज़रूरी समान पहले से ही तैयार कर रखा था। चाय-नाश्ता करने के बाद जैसे ही मैं खड़ा हुआ, नीलिमा बैग मेरे पास लेकर आई। अब भी कुछ बोल नहीं रही थी। कानों में पड़े कुछ अल्फाज़ बस कानों में ही ठहर गए – “अपना ख़याल रखना और फोन करते रहना।” मैंने बैग उठाया और बिना कुछ कहे घर से निकल गया।

बहुत सुना था दिल्ली के बारे में कि वहां सबके लिए काम है, कोई भूखा नहीं सोता तो मैंने भी दिल्ली जाने का फैसला ले लिया। स्टेशन पहुंच कर दिल्ली का एक टिकट लिया। दिल्ली की ट्रेन वक़्त से पहले ही प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। मैंने खिड़की वाली सीट पकड़ ली। ट्रेन प्लेटफॉर्म से छूट गयी। लेकिन मेरा वक़्त वहीं ठहर गया। ‘क्या काम मिलेगा वहां?’, ‘गुज़ारा कैसे होगा?’, ‘काम नहीं मिला तो इतने दिनों तक रहूंगा कहां?’

नई दिल्ली स्टेशन आ गया। रात कब बीती मालूम ही नहीं चला। अब तो नींद भी मुझसे नाराज़ हो गई थी।

धक्का-मुक्की के बीच ख़ुद को स्टेशन के बाहर पाया। रास्ता अनजान, जगह अनजान। काफी देर तक स्टेशन के बाहर बैठ आने-जाने वालों को देखता रहा। बैठे-बैठे काफी देर हो गई थी। मैंने बैग को दुबारा अपने कंधों पर उठाया और शहर की तरफ पैदल ही बढ़ने लगा। दिनभर भटकने के बाद भी कोई काम नहीं मिला, लेकिन रात बिताने के लिए एक रैन बसेरा ज़रूर मिल गया कुछ दिन नए शहर में इसी तरह गुज़रे। दिन में काम की तलाश और रात में झपकियां लेती कच्ची नींद।

इतना भटकने और काम न मिलने पर भी दिल हार मानने को तैयार ना था। सोचा जब यहां तक आए हूं तो मेरे लिए कोई ना कोई काम तो इस शहर में होगा ही। इस बीच घर पर भी कोई बात नहीं हुई थी। सोचा पहले कुछ हासिल कर लूं फिर बात करूंगा। रात को थक-हार कर रैन बसेरे में लौटता, तो दिन को कोसकर अपने आपको शांत करता और नई सुबह काम मिल जाने की आस बटोरते। घर वालों की याद के साथ बचे हुए चंद नोटों को अंटी की जेब में समेटे हुए यही दुआ करता कि जल्द ही कोई काम मिल जाए। घर से तो यही सोच कर निकला था कि ग्यारहवीं तक पढ़ा हूं, कोई ना कोई नौकरी तो इस बड़े शहर में मिल ही जाएगी। पर दिन-प्रतिदिन हल्की होती जेब ने बस कोई भी काम मिल जाए की दुआ तक पहुंचा दिया था।

एक दिन थकान के साथ लौटने पर रैनबसेरे में एक शख्स मिला। उसने मेरे हाथ से रात गुज़ारने के पंद्रह रुपए लेते समय पहली बार बात करने की कोशिश की।

“क्यों भाई कहां से आए हो? रोज़ाना यहां पर आते हो?”

“काम की तलाश में बिहार से आए हैं। जो थोड़ा बहुत पैसा लाये थे वह भी खत्म होने लगा है। कुछ न करो फिर भी दिन का पचास रुपए चाहिए ही होता है।”

काफी दिनों के बाद बात करने वाला कोई टकराया था। दिल ने चाहा कि जो भी है उसे सब बता दूं।

“सोचा था यह शहर काम देगा। मगर अभी तक नहीं दिया।”

“क्या काम जानते हो भाई?”

“ग्यारहवीं तक पढे़े हैं, सोचा था दिल्ली आकर नौकरी करेंगे। लेकिन अब तो जो भी काम मिल जाये कर लूंगा। गांव में भी तो मज़दूरी और बेलदारी किया करते थे। वैसे तो कोई भी काम कर लेंगे, लेकिन कोई नौकरी लग जाती तो अच्छा होता।”

मेरी आँखों में आँखें डालते हुए वह बोला – “भाई काम ऐसे ही नहीं मिल जाता। जगह को तुम्हें और तुम्हें जगह को समझने में थोड़ा वक़्त लगेगा। यह दिल्ली है। यहां नौकरियां इतनी आसानी से हाथ नहीं आती। वरना मैं भी बारहवीं तक पढ़ा हूं। मैं कोई नौकरी ना कर लेता। चलो आज आराम करो, कल लालकिले की तरफ चले जाना। वहां कई लोग काम की तलाश में खड़े होते हैं। वहां कोई ना कोई काम तो मिल ही जाएगा।”

उस शख्स की सीरत साफ लग रही थी इसीलिए उसकी सलाह को साथ लिए अगली सुबह ही लालकिला चला गया। औज़ार लिए कई लोग वहां पर पहले से मौजूद थे। मेरे पास कोई औज़ार नहीं था। कंधे से लटका एक बैग था जो सड़क और मिट्टी की रगड़ से मटमैला हुए जा रहा था।

दो-तीन दिन तो वहां पर इसी तरह गुज़र गए, लेकिन काम नहीं मिला। सुबह काम की तलाश में वहां खड़ा होता, तो दिन में नौकरी की तलाश करता। जल्द ही एक काम टकरा गया। काम देने आए उस शख्स को एक बेलदार की ज़रूरत थी। उसने जब पास में आकर काम बताते हुए पूछा, ‘कितने पैसे लोगे?’, मैं खामोश था। मुझे मालूम नहीं था कि यहां पर लोग कितने पैसे लेते हैं। मैंने बस इतना कह दिया कि ‘साहब औरों से थोड़ा कम दे देना और ठहरने के लिए कोई ठिकाना हो सके तो…। ’

वह मुझे अपने साथ ले गया और मुझे काम की जगह पर ही ठहरने को कह दिया। इस काम ने मुझे थोड़ा सुकून दिया। कुछ दिनों तक ठहरने की परेशानी नहीं थी। एक शाम काम खत्म होने के बाद रैन बसेरे वापस लौटा और उस शख्स को बता आया कि फलाना जगह एक काम मिला है और कुछ दिन रहने की जगह भी।

रात की नींद अब झपकियों के सहारे नहीं थी। मालिक दो या तीन दिनों में कुछ पैसे दे देता था। पहली बार जब तीन दिनों की मेरी मेहनत के नौ सौ रुपए हाथ में मालिक ने रखे तो घर की याद आ गई। इन्हीं रुपयों की किल्लत ने तो घर छोड़ने पर मजबूर किया था। काम खत्म होने के बाद चौराहे के एक एस.टी.डी. बूथ से घर पर फोन मिला दिया। फोन नीलिमा ने ही उठाया, वह फोन पर कई बार हैलो, हैलो, हैलो कहती रही। मैं उसकी आवाज़ को खामोशी से सुनता रहा। अंदर ही अंदर जमा होने वाली सारी चिंताएं, थकान और नींद जैसे पल में गायब हो गई थी। थोड़ी देर में जब बोला, “नीलिमा” तो वो ख़ामोश हो गई। फिर चिंता भरी आवाज़ में मुझ पर बरसने लगी, “कितने दिन हो गए आपको गए हुए मैंने कहा था ना कि फोन करते रहना, हमें कितनी चिंता हो रही थी। कैसे हैं आप? ठीक तो हैं ना?”

“अरे बस–बस, आज यह नहीं पूछोगी कि काम मिला या नहीं? काम मिल गया है। नौकरी ना सही मगर काम मिल गया है। आज पहली दफा तीन दिन की मज़दूरी के बाद नौ सौ रुपए मिले हैं, तो सोचा कि तुम्हें फोन करूं। पहले किस मुंह से फोन करता।”, नीलिमा मेरे बोले लफ़्ज़ों को सुन रही थी लेकिन ख़ामोश थी।

“बच्चे कैसे हैं?”

“अच्छे हैं। तुम्हें बहुत याद करते हैं।“

“और तुम?”

इन्हीं बातों के साथ मैंने फोन रख दिया। काम अच्छा चलता रहा तो जल्द ही घर लौटूंगा, यह भी कहा।

नीलिमा से कई दिनों बाद काम की बातों से ज़्यादा घर की बातें हुईं। मेहनत का यह पैसा, रोज़ाना की तरह शरीर को तोड़ रहा था, लेकिन अगले दिन फिर से मैं अपने काम में मशरुफ हो जाता। बच्चों को खूब पढ़ाऊंगा, अपने से बेहतर बनाऊंगा। यही ख़याल, इस शहर में जमे रहने के लिए काफी था। इस काम को गांव में करने और यहां करने में ज़्यादा फर्क नहीं है, बस वहां के मुकाबले यहां मेहनत की मज़दूरी ठीक-ठाक मिल जाती है।

महीने के आख़िर तक मेरा काम ख़त्म हुआ। रोज़ाना के अपने खाने के खर्च को निकालने के बाद मेरे हाथ में छह हज़ार रुपए थे। अगले ही दिन कुछ पैसे मैंने घर पर मनीऑर्डर कर दिए। अब चिंता अगले काम की थी। लेकिन उसमें ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। मेरे काम को देखते हुए वह ठेकेदार, जिसके साथ यह पहला काम खत्म किया था, मुझे अपने साथ नए काम के लिए दक्षिणपुरी ले आया। साथ काम करने वाले दूसरे मज़दूरों से दोस्ती होने लगी थी। हम सभी खाली समय में अपनी-अपनी बातें एक दूसरे को सुनाते और अपनी थकान को बांट लेते।

यहां का काम ज़्यादा दिनों का नहीं था। अब फिर से नया काम तलाशना था। ठेकेदार ने कह तो दिया था कि कोई काम होगा तो बतायेगा, लेकिन उसका इंतज़ार कौन करता! ज़िंदगी फिर से खानाबदोश होने लगी। एक साथी ने काम के दौरान बताया था कि वे कुछ लोगों के साथ यहीं किराए का कमरा लेकर रहते हैं। यहां के लेबर चौक पर आसानी से काम मिल जाता है। उनमें से कुछ लोग बिहार से ही थे। उनसे बात करके मैंने उन्हीं के कमरे पर रहना शुरू कर दिया। कमरे का किराया जो भी होता, हम आपस में बाँट लेते। मैंने अब उनके साथ दक्षिणपुरी के लेबर चौक पर जाना शुरू कर दिया। उन्हीं लोगों की मदद से कुछ काम मिल जाता। जब थोड़ा पैसा जुड़ा तो अलग से एक कमरा भी ले लिया।

इस तरह दक्षिणपुरी में पाँच साल गुज़र गए। यहां आने के बाद घर पहली दफा 6 महीने बाद गया था।

आज एक दिन की दिहाड़ी तीन सौ पचास रुपए मिल जाती है और अगर काम ठीक-ठाक मिलता रहे तो महीने में आठ से दस हज़ार कमा लेता हूं। बच्चों को छुट्टियों में अक्सर यहां ले आता हूं। इस जगह ने काम भी दिया और उसका दाम भी। अब ज़िंदगी को थोड़ा बहुत समेट पाया हूं।