17 रानडे रोड / अध्याय 1 / रवीन्द्र कालिया

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अतिथि पात्र एक : सुदर्शन पुरुषार्थी ज़रा कह दो साँवरिया से आया करे

उसका नाम सुदर्शन पुरुषार्थी था, स्टेशन डायरेक्टर भटनागर उसका नाम आने पर उसे सुदर्शन शरणार्थी कहता था। भटनागर रोज़ ग्यारह बजे मीटिंग लेता था, पुरुषार्थी ग्यारह बजे सो कर उठता था, लिहाजा रोज़ भटनागर साहब की बहुत-सी शिक़ायतें वह किसी-न-किसी शेर से निपटा देता था। भटनागर साहब को सुन्दर कांड ज़ुबानी याद था। वह मानस की किसी चौपाई से किसी भी बात का जवाब दे सकते थे, मगर वह मीटिंग में कार्यालयी भाषा से ही काम लेना पसन्द करते थे। किसी दफ्तरी कार्यवाही में पुरुषार्थी किसी शेर का सन्दर्भ दे देता तो भटनागर साहब लाल स्याही से गोला बना देते, 'आपको कई बार कहा गया है कि दफ्तर में दफ्तरी भाषा का ही प्रयोग करें।' पुरुषार्थी इसका जवाब भी किसी फडक़ते शेर से देता

हद चाहिए सज़ा में उकूबत के वास्ते

आखिर गुनाहगार हूँ काफ़िर नहीं हूँ मैं। यह उस दौर का ज़िक्र है जब मनोरंजन के संसार में रेडियो का बोलबाला था। रेडियो के समाचार वाचक और एनाउंसर युवा पीढ़ी के हीरो हुआ करते थे। प्रकाश चौधरी श्रोताओं की पसन्द का गाना सुनाने से पहले गीत में से ही दो-एक पंक्तियाँ कुछ इस अन्दाज़ में उद्धृत करते कि श्रोताओं पर उनकी आवाज़ का जादू तारी हो जाता। शाम को जब प्रकाश चौधरी और सुदर्शन पुरुषार्थी सिविल लाइन्स के लिए निकलते तो लड़कियाँ कनखियों से चौधरी साहब को देखना न भूलतीं। कुछ लडक़े तो शाम को चौधरी साहब का दीदार हासिल करने सिविल लाइन्स आते। चार्टर्ड एकाउंटेंसी में बार-बार फेल होने वाला, शहर के सबसे बड़े टिम्बर मर्चेंट का बेटा बलराज महेन्द्र बाप के गल्ले से मुट्ठी भर नोट निकाल लाता और खुशी-खुशी प्रकाश और पुरुषार्थी के बिल का भुगतान करता। उसकी नज़र में राज कपूर, देवानन्द और दिलीप कुमार के बाद प्रकाश चौधरी का ही दर्जा था, जबकि प्रकाश चौधरी के आकाशवाणी केन्द्र की आवाज़ चहेड़ू के पुल के पार भी न जाती होगी। वह प्रकाश चौधरी का फैन था, मगर उस पर हुक्म पुरुषार्थी चलाता- सिगरेट मँगवाओ, वेफर्स मँगवाओ, चौधरी साहब एक बीयर और पिएँगे।

चौधरी और पुरुषार्थी को एक दूसरे के नज़दीक लाने का परोक्ष श्रेय संगीत की प्रोड्यूसर नीलिमा अधीर को जाता था। नीलिमा अधीर एक चिर कुमारी थी। कुछ लोगों की राय थी कि वह एक राष्री कीय पार्टी के अध्यक्ष की चहेती थी और उनकी सिफारिश से ही इस पद पर पहुँची थी, जबकि उसे न तो संगीत की जानकारी थी और न श्रव्य माध्यम का कोई अनुभव। जब वह पहले दिन दफ्तर में आयी, पुरुषार्थी ने उसे देखकर तत्कालीन स्टेशन डायरेक्टर सोहन अवस्थी से कहा था, 'खंडहर बता रहे हैं इमारत हसीन थी।'

सोहन अवस्थी पुरुषार्थी को फक्कड़मिज़ाज समझते थे और कभी उस पर कड़ाई से दफ्तर के नियम लागू न करते। वे उसके काम से सन्तुष्ट थे। पुरुषार्थी को ऐसा ही काम दिया जाता था जो दूसरे लोगों के बस का नहीं होता था या जो काम बहुत अर्जेंट होता था। जिस फीचर को दूसरे स्क्रिप्ट राइटर दो सप्ताह में तैयार करते, पुरुषार्थी दो घंटे में कर देता। विषय उसकी रुचि का न होता तो वह मना भी कर देता। अवस्थीजी इसका बुरा नहीं मानते थे। लोगों की राय थी कि अवस्थी सर ने पुरुषार्थी को सिर चढ़ा रखा है, जबकि अवस्थी का मत था कि पुरुषार्थी को स्पोकन वर्ड का प्रोड्यूसर होना चाहिए, वह स्क्रिप्ट राइटर के पद पर सड़ रहा है। अवस्थी साहब फुर्सत में होते तो पुरुषार्थी को बुलवा लेते और उससे उस्तादों के शेर सुनते। पुरुषार्थी के पास गज़ब की याद्दाश्त थी और यह कहना भी ज़्यादा गलत न होगा कि वह गालिब, मीर, ज़ौक और मोमिन का चलता-फिरता दीवान था। कभी किसी गज़ल के कवि को लेकर भ्रम हो जाता तो फौरन पुरुषार्थी को तलब किया जाता। पुरुषार्थी ने पोलिटिकल साईंस में एम.ए. किया था और कैसे हॉस्टल में रहते रहते वह शायरी की दुनिया में आ गया, कोई नहीं जानता। वह हॉस्टल में था तो महीने में मुश्किल से दो बार शेव बनवाता। बाथरूम में भीड़ रहती तो वह नहाना मुल्तवी कर देता। वह अपनी पृष्ठभूमि के बारे में खामोश रहता। किसी को नहीं मालूम था, वह किस ज़िले का है और उसका बाप क्या करता है। किसी ने उसे तंगदस्त न देखा था और न ही वह फिज़ूलखर्ची करता। छोटे स्कूल से एम.ए. तक वह द्वितीय श्रेणी में पास हुआ था। वह फाइनल में था जब रेडियो से उसकी गज़लें प्रसारित होने लगीं और कुछ गज़लें तो रेडियो के फरमाइशी कार्यक्रम में बार-बार प्रसारित होतीं। वास्तव में वे प्रकाश चौधरी की पसन्दीदा गज़लें थीं। चौधरी गाहे बगाहे उनका प्रसारण कर देता। इस सिलसिले में दोनों की दोस्ती हो गयी और चौधरी के प्रयत्नों से ही उसे स्क्रिप्ट राइटर की नौकरी मिल गयी, जबकि न तो पुरुषार्थी ने कभी नौकरी करने में दिलचस्पी दिखायी थी और न ही शायद उसे उसकी ज़रूरत थी। नौकरी करना उसकी फितरत में ही नहीं था। वह अपने कैरियर के प्रति भी हमेशा बेपरवाह रहता था। उसके साथ के कई लडक़े कम्पटीशन में बैठकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच गये, मगर एक पुरुषार्थी था कि उसने कभी किसी पद के लिए आवेदन ही न किया था। उसकी गज़लों से लगता था कि किसी सुन्दरी ने उसके दिल पर गहरे घाव किये हैं। उसके बारे में उसकी गज़लों से ही जानकारी हासिल की जा सकती थी।

केन्द्र निदेशक सोहन अवस्थी का स्थानान्तरण हो गया तो पुरुषार्थी के लिए स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर नौकरी करना मुहाल हो गया। नये केन्द्र निदेशक भटनागर खाँटी नौकरशाह थे। वह छोटी-छोटी बात पर उसे डाँट देते। उसकी स्क्रिप्ट पलटते हुए उनकी उँगुली में आलपिन गड़ गया तो उन्होंने उसे तलब करके डाँट पिलायी, 'जिस स्क्रिप्ट राइटर को स्क्रिप्ट नत्थी करने की तमीज़ न हो, वह स्क्रिप्ट क्या खाक लिखेगा!' पुरुषार्थी उस समय पान चबा रहा था, उसने किसी तरह पान को गाल की तरफ ठेलते हुए जवाब दिया, 'हुज़ूर तब तो हर दफ्तरी बेहतरीन स्क्रिप्ट राइटर हो सकता है।'

भटनागर साहब को इस आवारा किस्म के जवाब की तवक्को न थी। उनका चेहरा सुर्ख हो गया, मगर वह एक कड़वा घूँट पीकर रह गये। उन्होंने उसी समय तय कर लिया कि वह अब इस बदतमीज़ स्क्रिप्ट राइटर को रूम से क्या इस केन्द्र से निकाल बाहर करेंगे। वे आये दिन उसकी स्क्रिप्ट में मीनमेख निकालने लगे। नीलिमा अधीर जो अपने विषय के बारे में कुछ भी न जानती थी, उसकी वे मीटिंग में भूरि-भूरि प्रशंसा करते। बाद में पता चला कि नीलिमा अधीर ने अपनी अयोग्यता छिपाने के लिए भटनागर साहब की किशोर वय में लिखी हुई कुछ पुरानी कविताओं को प्रदेश के सुप्रसिद्ध गायक सुदर्शन मजीठिया से गवा दिया था। कविताओं में छन्द दोष था, जिसे उसने पुरुषार्थी से बिना यह बताये दुरुस्त करवा लिया था कि ये भटनागर साहब के लिखे गीत हैं। पुरुषार्थी ने उन गीतों में नयी जान डाल दी। एक गीत तो इतना लोकप्रिय हो गया कि उसके प्रसारण की फरमाइश आने लगी। उस गीत को पुरुषार्थी ने एक तरह से नये सिरे से ही लिख दिया था। उसे जब पता चला कि वह गीत भटनागर साहब के नाम से प्रसारित हो रहा है तो उसने नीलिमा अधीर को इतना डाँटा कि वह रोने लगी। रोते-रोते वह भटनागर साहब के कमरे में घुस गयी और भटनागर साहब के कमरे के बाहर लाल बल्ब जलने लगा, जिसका अर्थ होता है कि वह इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं और किसी से नहीं मिलेंगे। भटनागर साहब उस रोज़ इतने व्यस्त हो गये कि पाँच बजे तक लाल बत्ती जलती रही।

पाँच बजे काम निपटाकर भटनागर साहब घर के लिए निकलने की तैयारी कर रहे थे कि डीडीजी का फोन आ गया कि देश की विख्यात ठुमरी और गज़ल गायिका बेगम ज़ोहरा आकाशवाणी के चार केन्द्रों पर लाईव कार्यक्रम पेश करेंगी और इन चार केन्द्रों में एक उनका केन्द्र भी है। भटनागर साहब को बताया गया कि ज़ोहरा बाई बहुत मूडी किस्म की कलाकार हैं और उनके कार्यक्रम की सफलता के लिए अभी से जुटना होगा। डीडीजी ने आकाशवाणी परिसर के मुक्तांगन में कार्यक्रम आयोजित करने का सुझाव दिया और उन्हें आगाह किया कि वह अपना साउंड सिस्टम बिल्कुल चुस्त-दुरुस्त रखें, किसी प्रकार की कोताही नहीं होनी चाहिए।

फोन का चोंगा रखते हुए भटनागर साहब ने नीलिमा से कहा, “आपकी परीक्षा की घड़ी आ गयी है। सारे आयोजन की ज़िम्मेदारी आपके ऊपर रहेगी। बेगम ज़ोहरा मन्त्रीजी की मुँहलगी हैं, उनके स्वागत-सत्कार में कोई चूक न होनी चाहिए।”

नीलिमा अधीर सिर थाम कर बैठ गयीं, “मैं तो ठुमरी और गज़ल के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं रखती।”

“घबराइए नहीं, अभी समय है। आप मार्केट से बेगम ज़ोहरा के तमाम एल.पी. मँगवा लीजिए। उन पर दो-एक पुस्तकें भी उपलब्ध होंगी, वे भी पढ़ लें। दूसरे वे कार्यक्रम देने आ रही हैं, आपका इंटरव्यू लेने नहीं।”

“आप नहीं जानते, ये गायिकाएँ कितने नखरे करती हैं! भटनागर साहब किसी और को इस कार्यक्रम की ज़िम्मेदारी सौंप दीजिए।”

“किसको सौंप दें? विभाग तो आपका है।”

“तो समझ लीजिए, आज से मेरी नींद हराम।”

“यह कैसे हो सकता है! नींद हराम करने में तो खुद आप माहिर हैं।” भटनागर साहब ने कहा और बहुत शोख नज़रों से नीलिमा की तरफ देखा, जैसे उन्होंने कोई बहुत 'ब्रिलिएंट कमेंट' कर दिया हो और अब उसकी दाद चाहते हों।

“संगीत के बारे में वह शरणार्थी का बच्चा अच्छी जानकारी रखता है। उसकी मदद लो। वह खुद भी गज़लें कहता है। आये दिन मुशायरों में हिस्सा लेता रहता है। अखबार वालों ने उसे कुछ ज़्यादा ही सिर चढ़ा रखा है। जब देखो उसकी तस्वीरें शाया होती रहती हैं।” भटनागर साहब ने अपनी बात जारी रखी।

“पुरुषार्थी से तो मैं खौफ खाती हूँ। जाने उसे क्या कॉम्पलेक्स है कि किसी भी लडक़ी से सीधे मुँह बात नहीं करता।”

“कुछ लोग इसी तरह अपनी मर्दानगी का इज़हार करते हैं।” भटनागर ने कहा।

“आप उसे आदेश दीजिए कि वह इस कार्यक्रम में दिलचस्पी ले। एक कमेटी बना दीजिए, संगीत की प्रोड्यूसर जिसकी संयोजक हो। पुरुषार्थी को भी कमेटी में मनोनीत कर दीजिए।” नीलिमा ने एक राह सुझाई।

“वह इस जाल में फँसने वाला नहीं।” भटनागर साहब ने कहा, “कह देगा कि मैं एक स्क्रिप्ट राइटर हूँ, स्क्रिप्ट का काम हो तो बताएँ। प्यार से बात करोगी तो वह ज़रूर मदद करेगा। लगता है तुमने कभी उस पर अपना जादू नहीं चलाया।”

“भटनागर साहब आप तो मज़ाक कर रहे हैं।”

“नहीं मज़ाक नहीं कर रहा, आप आज़माइए तो।”

नीलिमा ने अपने कक्ष में जाकर चपरासी से कहा कि वह पता करे, इस समय पुरुषार्थी साहब कहाँ हैं।

“बाहर किसी चाय के ढाबे में बैठे होंगे।” चपरासी ने कहा, “वह दो ही जगह मिलते हैं, दिन में ढाबे पर और शाम को हौली में।”

“यह मज़ाक का वक्त नहीं है। मुझे उनसे ज़रूरी काम है। जाओ, जाकर पता लगाओ।”

चपरासी ने लौटकर बताया कि यह इत्तिफाक की बात है कि पुरुषार्थी साहब इस वक्त अपनी सीट पर बैठे कुछ लिख रहे हैं।

नीलिमा अधीर उठी और जाकर पुरुषार्थी को आदाब बजाया।

पुरुषार्थी ने सिगरेट का एक लम्बा कश खींचा और आदाब कह कर दोबारा मेज़ पर झुक गया।

“पुरुषार्थी साहब, मुझे आपसे ही काम था।”

“फरमाइए।”

“बैठने को नहीं कहिएगा?”

“तशरीफ रखें।” पुरुषार्थी ने पूछा, “मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?”

“खिदमत करने तो मैं खुद हाज़िर हुई हूँ। आप तो जानते हैं बेगम ज़ोहरा हमारे केन्द्र पर आ रही हैं।”

“नहीं, मुझे इसकी कोई इत्तिला नहीं।” पुरुषार्थी इस समाचार से उत्साहित हुआ और बोला, “यह तो बहुत अच्छी खबर है। न सिर्फ केन्द्र के लिए, बल्कि इस शहर के लिए भी।”

“कहने को मैं संगीत की प्रोड्यूसर हूँ, मगर शायरी में सिफर हूँ। मैं आज तक यह नहीं समझ पाई कि ठुमरी और दादरा में क्या अन्तर होता है।”

पुरुषार्थी ने नीलिमा से पूछा, “यह बताइए कि 'रस के भरे तोरे नैन साँवरिया' ठुमरी के बोल हैं या दादरा के?”

नीलिमा के भीतर जितना भी रस था, उसने नयनों में उँड़ेलते हुए पुरुषार्थी पर उल्कापात किया और गुनगुनाने लगी, “रस के भरे तोरे नैन साँवरिया।”

“वाह वाह, आपकी ज़ुबान में गजब की मिठास है। जब कविता और संगीत का संगम हो जाए तो समझिए ठुमरी के लिए आदर्श स्थिति है। ठुमरी में शब्द तो होते हैं, संगीत का सौन्दर्य भी होता है।”

“कुछ और बताइए ठुमरी के बारे में।”

“ठुमरी सामान्यत: विलम्बित लय में गायी जाती है। दीपचन्दी ताल चौदह मात्रा की होती है। कभी कभी यह सोलह मात्रा में भी परिवर्तित हो जाती है। मुख्यत: यह झप ताल पर आधारित होती है। रस प्रधान होती है। मध्य लय में गाते-गाते अन्त में उठान होती है।”

“आज से आप मेरे उस्ताद। मगर बेगम तो दादरा भी गाती हैं।”

“दादरा छ: मात्रा की ताल पर आधारित होता है। शब्दों को कई तरह के भावों के साथ गाया जाता है। जैसे-

ज़रा कह दो साँवरिया से आया करे

ए जी आया करे मन भाया करे।”

नीलिमा अधीर सचमुच अधीर हो गयी, “आपको मसखरी सूझ रही है! ये आर्टिस्ट लोग बहुत सिरफिरे होते हैं और इनकी

पहुँच दूर-दूर तक होती है। मैं इन झंझटों से दूर ही रहना चाहती हूँ।”

पुरुषार्थी साहब सीट से उठकर ढाबे की ओर चल दिये और नीलिमा वापस भटनागर साहब के कक्ष में। वह सिर थाम कर उनके सामने बैठ गयी।

“ऐसे जी छोटा करोगी तो और मुश्किलात पेश आएँगी। घबराओ नहीं मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम्हारे साथ रहूँगा। इस बीच लायब्रेरी से मौसीकी और गज़ल साहित्य पर कुछ किताबें इश्यू करा लो। अब तक बेगम पर भी कोई न कोई किताब आ चुकी होगी। लायब्रेरी में न हो तो खरीदवा लो। मेरे रहते हुए तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं।”

“किताबें तो मँगवा लूँगी मगर उन्हें पढ़ेगा कौन? मैं तो अफसाना तक नहीं पढ़ पाती, मौसीकी पर कैसे पढ़ूँगी?”

“तुम क्या चाहती हो मेरी जान, वही होगा।” भटनागर साहब धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। 'मेरी जान' का प्रयोग भी उन्होंने 'हैलो टैस्टिंग' के लिए किया था। नीलिमा ने इस शब्द पर आपत्ति नहीं की। मन ही मन भटनागर साहब बहुत प्रसन्न हुए। उनके हाथ नीलिमा को छूने के लिए मचलने लगे। मगर वह जल्दबाज़ी नहीं करना चाहते थे।

“बेगम एक रोज़ पहले क्यों आ रही हैं?” नीलिमा ने अपनी समस्या बतायी, “कौन तो उनके नखरे उठाएगा और जी हुज़ूरी करेगा! सुनते हैं आकाशवाणी भोपाल के प्रोड्यूसर को तो उन्होंने भरी महफ़िल में ज़लील कर दिया था।”

“तुम्हें मालूम नहीं, उनका आटोग्राफ लेने के लिए बच्चे-बूढ़े परेशान रहते हैं और एक तुम हो कि उनकी सोहबत के मौके कोठुकराना चाहती हो। तुम तो पगली हो।”

साहस बटोर कर भटनागर साहब ने नीलिमा के गाल थपथपा दिये, जैसे एक मरहला और पार कर लिया। उन्होंने घंटी बजा कर चपरासी को तलब किया और पुरुषार्थी को बुला लाने का आदेश दिया। चपरासी ने दफ्तर का कोना-कोना छान मारा मगर पुरुषार्थी साहब कहीं बरामद न हुए। भटनागर साहब ने उसी वक्त फोन पर स्पोकन वर्ड के प्रोड्यूसर को डाँट पिला दी कि उन्होंने स्क्रिप्ट राइटरों को छुट्टा छोड़ रखा है। पुरुषार्थी दिखाई दे तो उसे फौरन उनके कैबिन में भेजें।

पुरुषार्थी कमरे में दाखिल हुआ तो वह पान चबा रहा था। पान चबाने से उसे बेहद चिढ़ थी, मगर उसने दफ्तर के समय में चौधरी के साथ बीयर पी ली थी और अब बीयर की गन्ध छिपाने के लिए उसने चौधरी के एक फैन के इसरार पर पान का बीड़ा मुँह में रख लिया था। उसे पान खाने का अभ्यास था न शऊर, लिहाज़ा जेब के पास पान का धब्बा लग चुका था। हस्बेमामूल उसके कुर्ते के बटन भी खुले थे। उसे इस निहायत गैरदफ्तरी वेशभूषा में देखकर भटनागर साहब ने उसके अभिवादन के जवाब में बेहद तल्खी से कहा, “पहले आप कुर्ते के बटन बन्द कीजिए और बात करने से पेश्तर पान बाहर थूक आइए, मुझे थुक्का फज़ीहत सख्त नापसन्द है।”

पान थूक आने के बाद पुरुषार्थी स्टेशन डायरेक्टर से मुखातिब हुआ, “आपने आज का 'दिवाकर' देखा?”

“क्या आज फिर कुछ छपा है?”

नीलिमा ने घबराहट में पूछा, “क्या छपा है?”

“यही कि आकाशवाणी के इस केन्द्र को 'गज़लों का गुलदस्ता' कार्यक्रम बन्द कर देना चाहिए। पिछले सप्ताह उस्तादों के कलाम कार्यक्रम में तल्लफुज की बहुत सी गलतियाँ हुईं। मीर की गज़ल दाग के नाम से प्रसारित हो गयी।”

भटनागर साहब का पारा एकदम नीचे आ गया। उन्हें कुछ लोगों ने बता रखा था कि 'दिवाकर' में पुरुषार्थी ही छद्म नाम से आकाशवाणी पर कालम लिखता है। उन्होंने बहुत कोशिश की थी मगर आज तक कोई शख्स इसका सुबूत नहीं पेश कर पाया। बहुत ज़ब्त करते हुए भी उनके मुँह से निकल गया, “लोगों का ख्याल है कि दिवाकर में आप ही छद्म नाम से कालम लिखते हैं।”

पुरुषार्थी ने ठहाका लगाया और बगैर किसी दावत के कुर्सी पर बैठ गया। उसने कहा, “भटनागर साहब, शक का इलाज हकीम लुकमान अली के पास भी नहीं था। आप ही बताएँ जब मैं अपने प्रोग्राम तक नहीं सुनता तो दूसरों के प्रोग्राम क्योंकर सुनूँगा! उस रिव्यू में तो औरतों के प्रोग्राम की भी धज्जियाँ उड़ाई गयी हैं। जाने किस व्यंजन में आपकी वार्ताकार ने अदरक मिलवा दिया, जबकि अदरक से उसका स्वाद कड़वा हो जाता है।”

“मुझे तो इस साज़िश के पीछे आपका ही हाथ नज़र आता है।”

“साज़िश तो वह कर सकता है जिसका प्रोग्राम हो। संगीत की प्रोड्यूसर आपके सामने बैठी हैं। गृहिणी कार्यक्रम सुषमा जी देखती हैं। ऐसे में मेरे लिए साज़िश करने की गुंजाइश ही कहाँ बचती है?”

“दिवाकर में आपके कार्यक्रम की कभी बुराई नहीं छपती।”

“हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया।”

“पुरुषार्थी साहब आप नाराज़ न हों, आपको किसी दूसरे काम से बुलाया गया था।” नीलिमा ने कहा।

“बन्दा हाज़िर है।”

“आपको मालूम होगा, बेगम साहिबा इस केन्द्र के मुक्त आँगन में पहली बार अपना प्रोग्राम पेश करेंगी।”

“ज़हे नसीब। उनका नियाज़ हासिल करने का मौक़ा मिलेगा।”

“यही सोचकर आपको बुलवाया था कि आप उनकी अहमियत से वाकिफ हैं और उनकी इस्तकबालिया कमेटी में शामिल होंगे।” भटनागर साहब ने कहा और मन में तय किया कि प्रोग्राम के बाद इस मगरूर शायर को सबक सिखाएँगे। उन्हें इल्म था कि पुरुषार्थी दिन में भी एकाध पैग चढ़ाए रहता है, किसी दिन मेडिकल टेस्ट करवा के इस बला से छुट्टी पा लेंगे।

“मैं बेगम साहिबा की इज़्ज़त करता हूँ, मगर उनकी इस्तकबालिया कमेटी में शामिल होने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं। कमेटी में बड़े लोगों को रखें, मैं तो अपने को इस काबिल नहीं समझता।”

“आप जा सकते हैं।” भटनागर साहब ने कहा और उसके बाहर कदम रखते ही नीलिमा से कहा, “ही थिंक्स टू मच ऑव हिमसेल्फ।”

“सर दिवाकर मँगवाइए। कोई मेरे पीछे पड़ गया है। हर हफ्ते कुछ न कुछ उल्टा-सीधा छप जाता है। ये लोग डीडीजी के पास इसकी कतरनें भी भेजते होंगे।”

भटनागर साहब ने 'दिवाकर' के लिए लायब्रेरी में फोन मिलाया।

नीलिमा ने किसी तरह भटनागर साहब को तैयार किया कि वह पुरुषार्थी को कैसे भी बहला फुसला कर इस कार्यक्रम में शामिल करवा दें। बेगम साहिबा खफा हो गयीं तो हम लोगों पर आफत आ सकती है, सुनते हैं बेगम के केलेकर साहब से बहुत घरेलू किस्म के रिश्ते हैं। केलेकर साहब प्रसारण मन्त्री थे और संगीत में उनकी गहरी पैठ थी। देश के तमाम शास्त्रीय और अर्द्धशास्त्रीय संगीतज्ञों से उनकी दोस्ती थी। अधिकतर संगीतकारों को उन्होंने किसी न किसी रूप में आकाशवाणी से सम्बद्ध कर लिया था।

भटनागर साहब ने चौधरी को बुलाया और पुरुषार्थी को आकाशवाणी के प्रतिनिधि के तौर पर बेगम साहिबा की आव-भगत करने की ज़िम्मेदारी सँभालने के लिए राज़ी करने का अनुरोध किया। चौधरी साहब को आज तक किसी केन्द्र निदेशक ने अपने कमरे में बुलाकर कोई काम नहीं सौंपा था, उसने पुरुषार्थी की तरफ से हाँ भर दी और कहा कि साहब निश्चिन्त हो जाएँ, वह पुरुषार्थी को मोर्चे पर लगा देगा। चौधरी के लिए यह बायें हाथ का काम था। उसने पुरुषार्थी से कहा कि उसकी ज़िन्दगी में इससे अच्छा अवसर न आएगा। देश की सबसे लोकप्रिय गज़ल गायिका से सम्पर्क साधने का इससे सुनहरा अवसर क्या हो सकता है। हम दोनों मिलकर बेगम साहिबा को ऐसा मुत्तासिर कर देंगे कि बेगम ज़िन्दगी भर याद रखेंगी।

चौधरी ने जो कहा, वह कर दिखाया। सुबह नाश्ते के वक्त पुरुषार्थी से कुछ गज़लें सुनाने का अनुरोध किया और बेगम से कहा, “बेगम साहिबा मैं इस केन्द्र का एक अदना-सा अनाउंसर हूँ। यकीन मानिये जब मैं शायरी अथवा संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत करता हूँ तो श्रोता झूम झूम जाते हैं। जितने फरमाइशी पत्र हमारे केन्द्र को प्राप्त होते हैं उतने किसी अन्य केन्द्र को नहीं। यहाँ तक कि दिल्ली केन्द्र को भी नहीं। मुझे यकीन है आप पुरुषार्थी को सुनेंगी तो उनकी गज़लें पसन्द करेंगी। यह न कहीं शाया करवाते हैं न ही मुशायरों में जाते हैं। समझ लीजिये एक फकीर शायर हैं।”

बेगम साहिबा ने उत्सुकता से कहा, “भई हमको क्यों महरूम रखे हो, कोई उम्दा-सी गज़ल पेश करो। याद रहे मैं सिर्फ एक गज़ल सुनूँगी।”

सुदर्शन ने बगैर ज़्यादा सोचे समझे एक शेर पेश किया और बोला, “बेगम साहिबा मैं गज़ल भी नहीं फकत एक शेर सुनाता हूँ। मुलाहिज़ा फरमाइए।” उसने कहा :

हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब

आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।

बेगम नाश्ता करते हुए मेज़ थपथपा कर दाद देने लगीं- बोलीं, “किबला आपने तबीयत खुश कर दी। फौरन से पेश्तर पूरी गज़ल अभी लिखकर दे दीजिये। मुझे पसन्द आयी तो किसी सही मौके पर इसका इस्तेमाल करूँगी।”

“बेगम साहिबा यह जेब में कागज़ रखते हैं न कलम। गज़ल लिखते नहीं कहते हैं। शागिर्द लोग लिख कर आपस में बाँटते रहते हैं, मगर आज यह अपने हाथों से पहली बार आपके लिए गज़ल लिखेंगे। मैं अभी कागज़-कलम लाकर देता हूँ।”

जब तक चौधरी कागज़-कलम लेकर आता बेगम पूरी गज़ल सुन चुकी थीं।

शाम को सात बजे शहर के सबसे बड़े पार्क के मुक्तांगन में बेगम की गज़लों का कार्यक्रम आयोजित था। पूरा शहर पार्क की तरफ बढ़ रहा था। लोगों का ऐसा हुज़ूम तब देखा गया था जब महात्मा गाँधी और नेहरूजी शहर में आये थे। चारों तरफ गर्द उड़ रही थी। कोई यकीन नहीं कर सकता था कि नगर में इतने अधिक संगीत के दीवाने हैं। मुक्तांगन में तिल धरने की जगह न थी, जब बेगम मंच पर नमूदार हुईं। उन्होंने आते ही जनता का अभिवादन किया और बोलीं, “हाज़रीन! जिस शहर में संगीत के इतने अधिक शैदायी हों, वहीं के.एल. सहगल का संगीत की दुनिया में जन्म हो सकता था। इस शहर के हरिवल्लभ मेले में कौन ऐसा शास्त्रीय गायक है जो कम-से-कम एक बार न आया हो। आज भी यह शहर आपके राज्य की सांस्कृतिक राजधानी है। आज भी यहाँ बहुत से गायक देश के मंच पर प्रकट होने के लिये साधना कर रहे होंगे। बहुत से शायर होंगे जो फकीर-मलंगों की तरह शहर की आबोहवा से तखलीकी ताकत पा रहे होंगे। मैं अपने प्रोग्राम का आगाज़ आपके शहर के एक होनहार शायर जनाब सुदर्शन पुरुषार्थी के कलाम से कर रही हूँ। आप जानना चाह रहे होंगे कि कौन है वह शायर, मगर उनके बारे में आपको कार्यक्रम के संचालक ही बताएँगे, मैं नहीं। मैं सिर्फ इस शायर को सलाम करते हुए उनकी एक गज़ल से आज की गज़ल सन्ध्या का आगाज़ करूँगी।” बेगम ने ज्योंही तान शुरू की गहरा सन्नाटा छा गया।

हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब

इसी एक पंक्ति की अदायगी में बेगम ने एक मिनट का समय लिया और फिर जब दूसरी पंक्ति जोड़ी तो भीड़ में जैसे तूफान बरपा हो गया। बेगम ने कहा था-

हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब

आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।

तालियाँ इतनी बजीं कि थमने का नाम न ले रही थीं। भीड़ दाद दे रही थी और बेगम खरामा-खरामा चाय की चुस्कियाँ ले रही थीं।

पुरुषार्थी और चौधरी इस सबसे बेन्याज़ बार में बैठे इस बात की समीक्षा कर रहे थे कि उन्होंने बेगम को शिक़ायत का अवसर दिया या नहीं। दोनों को यकीन था कि बेगम उनकी देखभाल से सन्तुष्ट हैं। कार्यक्रम के बाद बेगम का डिनर शहर के सबसे बड़े उद्योगपति के यहाँ था, सुबह तक दोनों बेफ़िक्र थे। जब तक बार बन्द होने का समय नहीं आया, बलराज उनकी खिदमत करता रहा। वह आज बाप के गल्ले से अच्छी-खासी रकम उड़ा कर लाया था। चौधरी और पुरुषार्थी दोनों के कदम लडख़ड़ा रहे थे, जब उन्होंने खराबात से विदा ली। बलराज ने अपनी गाड़ी में पहले चौधरी को उसके घर पर उतारा फिर पुरुषार्थी को अपने घर ले गया।

पुरुषार्थी अभी सो ही रहा था कि बलराज शहर का सबसे लोकप्रिय अखबार पढक़र मदहोश हो गया। प्रथम पृष्ठ पर बेगम की तस्वीर थी और पुरुषार्थी पर विशेष सामग्री।

जनाब पुरुषार्थी साहब ने शहर को नयी शिनाख्त दी। तीसरा पृष्ठ पुरुषार्थी की तस्वीरों से भरा पड़ा था। जाने रातभर में अखबार ने पुरुषार्थी के चित्र कहाँ से जुटा लिए थे! ज़्यादातर तस्वीरों में उसके हाथ में मय का पैमाना था। जब तक पुरुषार्थी चैतन्य होता, वह शहर का हीरो बन चुका था। दोस्तों ने उसे मजबूर कर दिया कि वह अब शहर का नाम रौशन करने के लिए फौरन से पेश्तर मुम्बई रवाना हो जाए। बलराज ने तो फ्रंटियर मेल में उसकी सीट भी रिज़र्व करवा दी और गुज़ारे भत्ते के लिए उस दिन की अपने बाप की सारी कमाई पुरुषार्थी की नज़र कर दी।

पुरुषार्थी एक ऐसे शहर में आ पहुँचा जहाँ उसने अपने लिए नौकरी का जुगाड़ तो कर रखा था, आवास की कोई व्यवस्था न थी। अचानक वह सुदर्शन पुरुषार्थी से सचमुच सुदर्शन शरणार्थी हो गया था।


अतिथि पात्र दो : स्वर्ण सिंह, सम्पादक चेतना

बर्मिंघम से आया मेरा दोस्त

अचानक गौरा ने सुदर्शन को फोन पर सूचना दी कि आपके दोस्त सम्पूरन ओबेराय नहीं रहे। सातवें दशक में मुम्बई में सुदर्शन उनका 'पेइंग गेस्ट' था। गौरा सुदर्शन की एक प्रशंसिका थीं और सुदर्शन उर्दू का उभरता हुआ शायर था, जो फ़िल्मी जगत में गीतकार बनने के इरादे से बम्बई आया था और फ़िलहाल 'उर्दू अदब' नाम के मासिक पत्र में बतौर सहायक सम्पादक काम कर रहा था। अपने एक दोस्त की सिफारिश से सुदर्शन को सम्पूरन के यहाँ तीन सौ रुपये मासिक पर 'पेईंग गेस्ट' की हैसियत से रहने का अवसर मिल गया था। यह सातवें दशक की शुरुआत के दिन थे, जब सोना सौ रुपये तोला था और मुम्बई, बम्बई के नाम से जाना जाता था। कुछ लोग इसे बॉम्बे भी कहते थे। टैक्सियों का न्यूनतम भाड़ा साठ पैसे हुआ करता था। सुदर्शन ने कुछ ही दिनों में महसूस कर लिया था कि सम्पूरन के सन्दर्भ में 'पेईंग' शब्द इस्तेमाल करना निरर्थक था। हिसाब लगाया जाये तो वह तीन सौ से कहीं अधिक रकम सुदर्शन पर खर्च कर देता था।

आज से पचीस वर्ष पूर्व सुदर्शन उससे विदा लेकर दिल्ली लौट आया था। इन पचीस बरसों में ओबेराय ने साल में चाहे एक बार ही सही मगर सम्पर्क ज़रूर रखा। कभी 'ग्रीटिंग' कार्ड भेजकर, कभी फोन मिलाकर, कभी अचानक दिल्ली नमूदार होकर। अभी कुछ बरस पहले सुदर्शन और उसकी पत्नी बम्बई गये तो ओबेराय की समझ में नहीं आ रहा था कि उनके लिए क्या कर डाले? वह सुदर्शन को अपनी वार्डरोब के पास ले गया और उसे कमीज़ उतारने पर विवश कर दिया। वार्डरोब से एक नयी कमीज़ निकालकर सुदर्शन को पहना दी। वह उसके जूते भी बदलना चाहता था, मगर उसके तमाम जूते सुदर्शन के पैरों के लिए छोटे पड़ रहे थे। उसके बाद वह सुदर्शन को अपने 'बार' तक ले गया। विश्व का कोई ऐसा प्रसिद्ध ब्रांड न था, जो उसके 'बार' की शोभा न बढ़ा रहा हो। कोई पन्द्रह-बीस बरस पूर्व 'इंडिया टुडे' में उस पर 'राइटअप' देखकर सुदर्शन चौंका था। मालूम हुआ, बम्बई के विज्ञापन जगत का वह बेताज बादशाह बन चुका है। 'इरमा' की विज्ञापन फ़िल्म ने ऐसा चमत्कार कर दिखाया था कि 'इरमा' भारत के मध्यवर्ग का कपड़े धोने का सर्वप्रिय डिटर्जेंट साबुन बन गया। 'इरमा' की धुनें घर-घर रेडियो-दूरदर्शन पर बजने लगीं। 'सीको वज्रदन्ती' को भी उसने चार चाँद लगा दिये थे। वह जिस उत्पाद को छूता, वह सोना हो जाता। सुदर्शन जब-जब सपत्नीक बम्बई गया, सम्पूरन ने हवाई जहाज़ से लौटने की व्यवस्था की।

सम्पूरन से सुदर्शन को सबसे पहले स्वर्ण ने मिलवाया था। स्वर्ण उन दिनों पंजाबी की साहित्यिक पत्रिका 'चेतना' का सम्पादक था। दिल्ली में सुदर्शन की उससे दोस्ती हो गयी थी। वह अक्सर बम्बई जाता रहता था। गुलज़ार, सागर सरहदी वगैरह फ़िल्मी लोगों से उसकी मित्रता थी। सुदर्शन को जब 'उर्दू अदब' में नौकरी मिली तो स्वर्ण ने आश्वासन दिया, बम्बई में वह उस के आवास की व्यवस्था कर देगा।

यह तय पाया गया था कि निर्धारित तिथि को स्वर्ण सुदर्शन को दादर रेलवे स्टेशन पर मिलेगा। सुदर्शन ने सुन रखा था कि दादर के कुली यात्रियों से मनचाही वसूली करते हैं। देर तक वह स्वर्ण की प्रतीक्षा करता रहा। स्वर्ण पर उसे इतना भरोसा था कि उसने कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी न की थी। सुदर्शन का धैर्य जब जवाब दे गया तो उसने कुलियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और प्रभादेवी के उस लॉज की तरफ जाने का मन बनाया जहाँ हरिवंश तिवारी रहते थे। हरिवंश उन दिनों किसी प्रसिद्ध फ़िल्मी पत्रिका में सहायक सम्पादक के रूप में काम करते थे। टैक्सीवाले ने सुदर्शन का खूब शोषण किया। अक्खी बम्बई की सैर कराते हुए किसी तरह निर्दिष्ट 'लॉज' तक पहुँचाया। तब तक शाम ढल चुकी थी। लॉज पर पहुँचकर पाया हरिवंश नदारद था। लॉज के मालिक ने हरिवंश का कमरा नहीं खोला और सुदर्शन की मजबूरी को देखते हुए रात भर ठहरने के लिए 'लॉज' के स्टोर में खटिया डलवा दी। वहाँ गेहूँ के बोरे रखे थे, घी के कनस्तर, आलू के बोरे और जाने क्या-क्या।

बम्बई आकर पहले ही रोज़ सुदर्शन को एकसाथ कई अनुभव हुए थे। उसने कल्पना न की थी कि किसी शहर में इतने लोग समा सकते हैं। वह जब अपने दड़बे (लॉज) से पहली बार सुबह नाश्ते की तलाश में निकला तो लोगों का हुजूम देखकर सहम गया। थोड़ी देर बाद वह भी लोगों के हुजूम में शामिल हो गया। बाजार में चलते हुए कई छोटे रेस्तराँ दिखाई दिए, ज्यादातर ईरानी रेस्तराँ थे। दुकानों के प्रवेश पर ही काउंटर टेबल लगाकर रेस्तराँ का मालिक लगातार पैसे बटोरते दिखाई देता। एक ईरानी रेस्तराँ में वह घुसा। व्यंजनों की लम्बी फेहरिस्त पढक़र वह तय नहीं कर पाया कि उसे नाश्ते में क्या लेना चाहिए। उसने बैठते ही चाय का ऑर्डर दे दिया ताकि उसे सोचने के लिए कुछ समय मिल जाए। चाय पीकर वह तुरन्त भुगतान करके बाहर निकल आया। बाहर आकर वह दुबारा हुजूम में शामिल हो गया। थोड़ी ही दूर पर उसे एक 'उडिपी' रेस्तराँ दिखाई दिया। यहाँ के मैन्यू से वह परिचित था। उसने एक प्लेट इडली-साम्भर का ऑर्डर दिया। उसे ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। सामने मेज पर इडली-साम्भर हाज़िर था। वह उसी प्रकार इडली-साम्भर पर टूट पड़ा जैसे रात को मच्छर उस पर टूट पड़े थे। थकान, चिन्ता, घबराहट और बेचैनी में वह ठीक से सो भी न पाया था। रात को मच्छर उसके लहू के प्यासे हो गये थे।

उसके मुँह, पैर और बाँहों पर मच्छर अपने स्मृति चिह्न छोड़ गये थे। स्टेशन से उतरते ही वह पहले कुलियों की मनमानी का शिकार हुआ था। दादर के कुलियों की उसने पहले ही बहुत ख्याति सुन रखी थी, वह देर तक उनकी छीना-झपटी से बचता रहा और जब युगों-युगों तक प्लेटफार्म पर स्वर्ण दिखाई नहीं दिया तो उसने एक कुली के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। स्वर्ण से उसे ऐसी उम्मीद न थी कि इस महानगर में वह उसे यों बेसहारा छोड़ कर गायब रहेगा, जबकि दिल्ली से चलने से पूर्व वह फोन पर उसे अपनी गाड़ी की सही सूचना दे चुका था।

स्वर्ण दिल्ली में उसका रूममेट था। उन दिनों वह पंजाबी की एक लघुपत्रिका 'चेतना' का प्रकाशन, सम्पादन करता था। दिनभर वह विज्ञापनों के लिये दौड़ता, शाम को टी हाउस में युवा लेखक उसके आगे-पीछे दौड़ते। पत्रिका की कुल जमा पाँच सौ प्रतियाँ प्रकाशित होती थीं, मगर शाम को टी हाउस में बैठकर वह अपने को स्टीफेन स्पेंडर से कम न समझता था। लेखक लोग उसकी काफी का बिल चुकाने को आतुर रहते। कभी-कभी जब कोई अप्रवासी पंजाबी लेखक दिल्ली पधारता तो स्वर्ण की साँसों में स्कॉच रच-बस जाती। कुछ दिनों वह किसी राजकुमार की तरह व्यवहार करता, लोग उसे टैक्सी से उतरते या टैक्सी में सवार होते देखते। उन्हीं दिनों उसने अपना पासपोर्ट भी बनवा लिया था और अक्सर टी हाउस में अपने पोर्ट फोलियों में से कोई रचना खोजते हुए उसका पासपोर्ट जरूर मेज पर गिर जाता। उसने तब तक शादी नहीं की थी और पंजाबी की एक धाकड़ और खूबसूरत कवयित्री अक्सर उसे लंच या डिनर पर आमन्त्रित करती। एक दिन पता चला कि वह कवयित्री यक़ायक उसकी सूची से गायब हो गयी है।

“वह अच्छी कविताएँ नहीं लिख सकती।” एक दिन सुदर्शन को उसने बताया, “वह पर्सनल हाइजीन की तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं देती। एक दिन मैंने उसकी नाक से होंठों को छू छू जाता एक बाल देखा तो मुझे उससे वितृष्णा हो गयी।”

उन दिनों वह बीच-बीच में बम्बई आता-जाता रहता था। बम्बई में उसका एक मित्र था, शाद जालन्धरी। वह उर्दू में गजलें कहता था और उन दिनों फ़िल्मों में संघर्ष कर रहा था। वह स्वर्ण को कुछ साहित्यप्रेमी उद्योगपतियों से 'चेतना' के लिये विज्ञापन दिलवा देता था। स्वर्ण 'चेतना' की पाँच सौ प्रतियों का भी ठीक से वितरण न कर पाता था। यों पंजाब के मुख्य नगरों- चण्डीगढ़, पटियाला, अमृतसर, लुधियाना और जालन्धर में उसकी पत्रिका की पच्चीस-पच्चीस प्रतियाँ जाती थीं, मगर आज तक किसी भी विक्रेता ने बिक्री का हिसाब नहीं भेजा था। स्वर्ण ने भी कभी तक़ादा नहीं किया। इसका एक लाभ उसे यह जरूर मिला कि जब पंजाब से कोई लेखक दिल्ली आता तो वह स्वर्ण को जरूर खोज निकालता। उसे विदेशों में बसे पंजाबी रचनाकारों के पत्र मिलते तो वह आश्चर्य करता कि उन तक उसकी पत्रिका कैसे पहुँच रही है! बर्मिंघम में बसे पंजाबी के एक कवि हरविन्दर रवि दिल्ली आये तो उन्होंने होटल जनपथ में उसे दावत के लिये बुलाया। वह अपने साथ सुदर्शन को भी ले गया। वहाँ बढिय़ा स्कॉच और बासी कविताओं की पार्टी देर रात तक चली थी। जब तक हरविन्दर दिल्ली में रहा, स्वर्ण को अपने लिए शाम के भोजन की चिन्ता न करनी पड़ी। स्वर्ण ने अपने कई मित्रों को अपना यह जलवा दिखाया।

“मैगजीन छापने में आपका बहुत पैसा खर्च होता होगा? क्या आपका खर्चा निकल आता है?” एक दिन हरविन्दर ने पूछा।

“भरा जी, मैगजीन निकालना एक घाटे का सौदा है।” स्वर्ण ने शहीदाना अन्दाज में बताया, “पूर्वजों से विरासत में मिली ज्यादातर जमीन अब तक चेतना के चक्कर में बिक चुकी है। जमीन बिकने का मुझे इतना गम नहीं है जितना इस बात का गम है कि पंजाबी के पाठकों की संख्या लगातार कम हो रही है। मैं भी हौसला हार बैठूँ तो हमारे साहित्य का और हमारी भाषा का क्या होगा!”

“हमारे लिये शर्म की बात है कि अपनी भाषा को भूल कर हम लोग विदेशों में खूब पैसा बटोर रहे हैं और आप जैसे लोग हमारी भाषा की मशाल को जलाये रखने में अपना घर-बार फूँक रहे हैं। मगर अब ऐसा नहीं होगा। पाँच हजार का चैक तो मैं अभी आपकी नज़र कर रहा हूँ। बर्मिंघम पहुँचकर कुछ और पैसे का इन्तजाम करूँगा। स्वर्णजी, आप इत्मीनान रखें, चेतना निकलेगी और निकलती रहेगी। लौटकर, मैं अपने दूसरे साथियों से भी चन्दा भेजने के लिये कहूँगा। आपने आजीवन सदस्यता का चन्दा पाँच सौ रुपये रखा है। दो सौ ग्राहक तो मैं इसी बरस बनवा दूँगा।”

स्वर्ण को लगा, उसकी जैसे लाटरी खुल गयी हो। उसने उठकर रवि को अपनी बाँहों में भर लिया और उसकी दाढ़ी का चुम्बन लेते हुए बोला, “तुहाडा सहयोग मिल गया, हुन मैनूँ कोई चिन्ता नहीं।” स्कॉच की गर्मी उसकी नसों में दौड़ रही थी, वह वहीं कमरे में बाँहें उठाकर भाँगड़ा करने लगा-बल्ले बल्ले।

पाँच हजार का चैक मिलते ही उसने रवि के साथ बैठकर 'समकालीन पंजाबी साहित्य विशेषांक' की रूपरेखा तैयार कर डाली।

जल्द ही सुदर्शन को 'उर्दू अदब' में कार्यभार सम्भालना था। सुबह कार्यालय पहुँचा। साथियों को अपनी दुर्दशा बतायी। वे लोग कहीं सुदर्शन का इन्तज़ाम करते इससे पूर्व ही दोपहर को स्वर्ण चला आया। उसने बताया कि उसने दादर स्टेशन का कोना-कोना छान मारा, मगर सुदर्शन उसे नहीं मिला। बहरहाल, उसने एक दिन का समय माँगा और आवास की व्यवस्था का पक्का आश्वासन देकर चला गया।

अतिथि पात्र तीन : एक अद्भुत प्रेतात्मा

भूतबँगले में पहला दिन

स्वर्ण शाम को ही सम्पूरन के साथ 'लॉज' पर चला आया, जहाँ सुदर्शन ने अस्थायी रूप से डेरा जमा रखा था, सम्पूरन ने उसे सर से पाँव तक देखा और पूछा, “पंजाबी बोल सकते हो?”

“लिख-पढ़ भी सकता हूँ।” सुदर्शन ने कहा।

“अच्छा यह बताओ कि 'गंड ताँ मैं चक्क लऊँ, घे तेरा पे चक्कू' का क्या अर्थ है?”

सुदर्शन ने कहा, “गठरी तो मैं उठा लूँगा, घी तुम्हारा बाप उठाएगा?”

“वाह वाह!” सम्पूरन बोला, “कित्थे है तेरी गठरी?”

सुदर्शन ने अपना सामान उठाया और टैक्सी में भरने लगा।

“ठीक है, कुछ दिन साथ रहते हैं। मामला जमा तो ठीक वरना यहीं छोड़ जाऊँगा...” सम्पूरन ने कहा, “वैसे मेरे घर के पास भी एक लॉज है।”

सम्पूरन और स्वर्ण लोग टैक्सी में आये थे, सुदर्शन का सामान टैक्सी में लाद दिया गया और टैक्सी वर्ली से होती हुई शिवाजी पार्क सी-फेस पर जा कर रुकी। वहीं समुद्र के किनारे पहली मंज़िल पर सम्पूरन रहता था, नौकर ने सामान ऊपर पहुँचा दिया। सुदर्शन और सम्पूरन लोग अभी चाय पी ही रहे थे कि एक लडक़ी चली आयी।

“यह सुप्रिया है और यह सुदर्शन शरणार्थी, कुछ ऐसा ही नाम है।” सम्पूरन ने कहा।

सुप्रिया बिगड़ गयी, “यह कैसा इंट्रोडक्शन है?” उसने अँग्रेज़ी में कहा।

“ठीक है, अपने आप हो जाएगा इंट्रोडक्शन।” सम्पूरन ने लापरवाही से कहा।

स्वर्ण को कहीं जाना था। वह दूसरे दिन आने का वादा करके चला गया। सम्पूरन ने सुदर्शन का सूटकेस खोला, उसका सामान देखकर वह बहुत चमत्कृत हुआ। उसमें ज़्यादातर किताबें थीं या कागज़ात। उनमें उसकी दिलचस्पी नहीं थी।

अचानक उसके हाथ में सुदर्शन का शेविंग का सामान आ गया, “इससे शेव बनाते हो? यह ब्रश है? यह बनियान पहनते हो और यह अंडरवियर?” देखते-देखते उसने सुदर्शन का आधे से ज़्यादा सामान खिडक़ी के रास्ते समुद्र में फेंक दिया। शायद पूरा सूटकेस बाहर फेंक देता अगर सुप्रिया ने उसे रोका न होता। सुदर्शन ने दिल्ली में बड़े चाव से ज़रूरत का जो सामान खरीदा था, उसने पहली नज़र में खारिज़ कर दिया। सुदर्शन मजबूर हताश-सा उसे देखता रहा। सुदर्शन ने नीचे झाँककर देखा। समुद्र 'लो टाइड' में था और सामान यों ही नीचे पड़ा था। सुदर्शन ने सोचा, मौक़ा लगते ही उठा लाएगा।

सामान फेंकने के बाद सम्पूरन के चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ और वह सोफे पर धँस गया।

“एक चाय और हो जाए।” उसने कहा।

सुप्रिया किचन में घुस गयी।

सुदर्शन ने देखा, एक बड़ा हॉल था। एक तरफ दो पलंग बिछे थे। उन पर धुली सफेद चादरें बिछी थीं। कमरे के बीचों-बीच सोफे लगे थे। सम्पूरन ने चाय पी और बाथरूम में घुस गया। वह निकला तो सुप्रिया नहाने चली गयी। सुप्रिया निकली तो सम्पूरन ने कहा, “हुज़ूर, आप भी नहा लीजिए।”

सुदर्शन ने भी जमकर स्नान किया। सुप्रिया ने सम्पूरन का धुला कुर्ता पायजामा पहनने के लिए दिया। सुदर्शन मना न कर पाया, जबकि पायजामा सुदर्शन को काफी छोटा पड़ रहा था। सुदर्शन का हुलिया देखकर सम्पूरन ज़ोर से हँसा और अलमारी से एक लुंगी निकालकर दी, “यह पहन लो। पायजामे में तो तुम कार्टून लग रहे हो।”

सुदर्शन ने आज्ञाकारी बालक की तरह लुंगी पहन ली। उसकी इच्छा हो रही थी कि किसी तरह इस पागलखाने से भाग निकले। लग रहा था वह किसी सिरफिरे के चक्कर में पड़ गया है।

शाम घिर आयी थी। समुद्र दहाडऩे लगा था। कई बार समुद्र की लहरें पहली मंज़िल तक पहुँच जातीं। अगर खिड़कियाँ बन्द होतीं तो उस पर सर पटकतीं।

सम्पूरन ने ड्रिंक्स तैयार किये। सुदर्शन के सामने भी गिलास सरका दिया। सुदर्शन ने सोचा मना करूँगा तो जाने यह क्या कह दे। उसने डर के मारे काँपते हाथों से गिलास उठा लिया- सुदर्शन ने अभी दो-एक 'सिप' ही लिये थे कि सम्पूरन गिलास खत्म करके किचन में घुस गया। सुप्रिया प्रॉन और सम्पूरन चिकेन बनाने में व्यस्त हो गये। वह बीच-बीच में आकर एक-आध घूँट भर लेता। लगभग एक घंटा तक सुप्रिया और सम्पूरन किचेन में घुसे रहे। बाद में नौकर को चपाती बनाने का आदेश देकर चले आये। सम्पूरन चिकेन के कुछ टुकड़े तश्तरी में उठा लाया था। उसने खूब 'छक' कर पी और मुर्गा खाते-खाते सो गया, सोने से पहले उसने सुदर्शन को साठ पैसे दिये कि वह टैक्सी में सुप्रिया को उसके घर पर छोड़ आये। उन दिनों सुप्रिया दादर में अपने परिवार के साथ ही रहती थी और शिवाजी पार्क से टैक्सी का आने-जाने का भाड़ा साठ पैसे बैठता था। सुदर्शन उठा और सम्पूरन की इच्छा के अनुसार सुप्रिया को दादर उसके घर पर छोड़ आया। लौटकर देखा, सम्पूरन जाग रहा था और सोफे पर बैठा था, “ऐसे ही झपकी लग गयी थी।” वह बोला।

“तो अब सोने की तैयारी की जाए?”, सुदर्शन ने कहा।

“ज़रूर-ज़रूर।” अचानक वह जोर से हँसा, “मैं तुम्हें पहले बता देना अपना फर्ज समझता हूँ कि जिस बिस्तर पर तुम सोने जा रहे हो उस पर तीन मर्डर हो चुके हैं।”

सुदर्शन अचकचा कर उठ बैठा, “क्या मतलब?”

“मतलब क्या, वही जो मैं कह रहा हूँ।”

“फिर तो मैं अब इस बिस्तर पर सो न पाऊँगा।”

“तो इस बिस्तर पर चले आओ।” उसने उठते हुए कहा, “इस बिस्तर पर हमारे लैंड लॉर्ड ने आत्महत्या की थी। मधुमति यहीं पागल हुई थी।” उसने कहा, “शायद यही वजह है कि इस मकान को 'भुतहा' करार देकर छोड़ दिया गया था। यह तो मेरी हिम्मत है जो इस भुतहे मकान में बगैर डर के रह रहा हूँ। किराया भी नाममात्र है, मात्र चौंतीस रुपये। बम्बई में सात-आठ सौ से कम पर सी-फेस पर ऐसी जगह न मिलेगी।”

बात करते-करते सम्पूरन को फिर झपकी आ गयी। बाहर समुद्र दहाड़ रहा था। कमरे में एक नन्हा-सा नाइट लैम्प जल रहा था। सुदर्शन को लग रहा था, खिडक़ी से कूदकर अभी कोई राक्षसनुमा आदमी आएगा और उसके पेट में छुरा घोंप देगा। “सम्पूरन... सम्पूरन...” उसने दो-तीन बार पुकारा मगर सम्पूरन जवाब में खर्राटे भरता रहा।

सुदर्शन को गायत्री मन्त्र और थोड़ा-थोड़ा हनुमान चालीसा याद था, आँखें बन्द किये वह कभी गायत्री मन्त्र का और कभी हनुमान चालीसा का पाठ करता। उसने तय कर लिया कि कल दफ्तर से यहाँ नहीं लौटेगा। सुबह दफ्तर में हरिवंश तिवारी को फोन करके उससे कहेगा कि किसी भी कीमत पर लॉज में उसे जगह दिलवा दे। स्वर्ण पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था, जिसने भूतों के डेरे पर उसे असहाय छोड़ दिया था।

सुबह नींद खुली तो सम्पूरन कुर्सी पर उकडूँ बैठा चाय पी रहा था, “आओ बादशाहो चाय पियो, रात को कैसी नींद आयी?”

“रात भर अपने को कोसता रहा।” सुदर्शन ने कहा।

वह हँसा, “मैं बरसों से इस मकान में रह रहा हूँ। मुझे कोई भूत-वूत दिखाई नहीं दिया, तुम्हारे सामने सही सलामत बैठा हूँ।”

दरवाज़े पर दस्तक हुई। जूते पॉलिश करनेवाला था। सम्पूरन ने लकड़ी की आलमारी खोली। लगभग पचीस-तीस जोड़े जूते थे, सब पर पॉलिश होने लगी।

“तुम्हारे जूते भी फेंकने लायक हैं।” उसने कहा, “मैंने इस वजह से जूते नहीं फेंके कि मेरे जूते तुम्हारे पैर में न आये तो सुबह दफ्तर जाने में दिक्कत होगी।”

सुदर्शन जूतों की पॉलिश का कार्यक्रम देखता रहा। सम्पूरन के जूते पॉलिश हो गये तो सुप्रिया के जोड़े निकल आये। पता चला, सब जोड़े, रोज़ बाक़ायदा पॉलिश होते हैं और पॉलिशवाले को कभी रोज़, कभी साप्ताहिक, कभी मासिक और कभी वार्षिक रूप से मेहनताना दिया जाता है।

एक दिन पता चला जूते पॉलिश करनेवाले का बिल दो सौ रुपये से ऊपर पहुँच चुका है। आज से तीस बरस पूर्व दो सौ रुपये की क्या कीमत होगी आप अनुमान लगा सकते हैं। मगर पॉलिशवाला मनोयोग से अपना काम करता रहा।

“आज ट्रेन का पास बनवा लेना। दादर से नौ तेरह की डबल फास्ट गाड़ी मिलेगी। नौ सत्ताइस पर वी.टी. पहुँचा देगी। नीचे साठ पैसे में दादर के लिए टैक्सी मिल जाएगी।” सम्पूरन सुदर्शन को दफ्तर पहुँचने का तरीक़ा बताने लगा।

सुदर्शन मन में हँसा। जो हुआ सो हुआ। अब यहाँ कम-से-कम वह तो न आएगा। किसी वक्त आकर बचा-खुचा सामान उठा लेगा।

दफ्तर पहुँचकर उसने सहकर्मियों को अपना रोंगटे खड़े कर देनेवाला अनुभव सुनाया। एक सहकर्मी ने आश्वासन दिया वह उसे अपने साथ गोरेगाँव ले जाएँगे और जल्द ही रहने की कहीं व्यवस्था कर देंगे।

दिनभर सुदर्शन को बीती रात याद आती रही। अपना फेंका गया सामान भी याद आ रहा था। सेफ्टीरेज़र के अभाव में बिना शेव बनाये दफ्तर आना पड़ा था। दूसरे का रेज़र या तौलिया वह इस्तेमाल कर भी नहीं सकता था।

शाम को जब सब लोग नीचे उतरे तो देखा दफ्तर के बाहर एक टैक्सी खड़ी थी। टैक्सी में सम्पूरन और सुप्रिया बैठे थे। सुदर्शन को काटो तो खून नहीं। उसने सोचा, ये लोग आज फिर उसे अगवा करके ले जाएँगे और उस भुतहा बँगले में कैद कर देंगे।

“सुदर्शन।” सम्पूरन ने उसे देखते ही आवाज़ दी और टैक्सी से बाहर निकल आया। शाम के पाँच बजे भी वह एकदम ताज़ा लग रहा था। जूते चमचमा रहे थे, कमीज़ में एक भी सिलवट न थी। सुदर्शन ने देखा, सुप्रिया टैक्सी के भीतर बैठी थी, उसके हाथ में बहुत से पैकेट थे, शायद वे शॉपिंग करते हुए आ रहे थे। सम्पूरन ने आगे बढक़र टैक्सी का दरवाज़ा खोला।

“सुदर्शन आज मेरे साथ जाएगा।” सुदर्शन के एक सहकर्मी ने उसका बचाव करते हुए कहा।

“यह कैसे हो सकता है। यह मेरा गेस्ट है। लगता है रात को डर गया है, एक-दो दिन में अभ्यस्त हो जाएगा।”

सुदर्शन ने बलि के लिए जाते हुए उस बकरे की तरह अपने सहकर्मियों की तरफ देखा, जिसे अभी से झटके का आभास हो रहा हो। एक अन्य सहकर्मी ने सुदर्शन का साथ दिया और दुबारा आग्रह किया।

“आइए आप भी चलिए। घर पहुँचकर फैसला करते हैं।”

सहकर्मियों की गाड़ी न छूट जाए, यह सोचकर सुदर्शन ने उनसे विदा ली और टैक्सी में बैठ गया। सम्पूरन ने सुप्रिया के हाथ से पैकेट ले लिये और सुदर्शन को दिखाने लगा, “तुम्हारे लिए एक दजऱ्न बनियान, एक दजऱ्न अंडरवियर, एक जर्मनी का शेविंग सेट, ये जूते, एक दजऱ्न मोजे, यह शर्ट और पतलून का कपड़ा, वगैरह-वगैरह।”

सुदर्शन हतप्रभ। कोई ऐसी चीज़ न थी, जो सम्पूरन ने फेंकी हो और उसे याद न हो। उसे लगा, सैकड़ों रुपये की ये चीज़ें वह 'अफोर्ड' ही न कर पाएगा। वह तो शायद साल भर में इतना सामान न खरीद पाता। संकोच हो रहा था कि कैसे चुकाएगा। घर पहुँचकर फिर वही कार्यक्रम शुरू हुआ- स्नान, कुकिंग, मद्यपान। सुदर्शन को लग रहा था, वह पूरा वेतन भी खर्च कर दे तो भी इस तरह नहीं रह सकता। बिस्तर की चादरें रोज़ बदली जातीं, तकिये पर नये गिलाफ चढ़ते। उस रोज़ सुदर्शन ने एक पैग ज़्यादा पी ली ताकि डरावने ख्यालों से छुटकारा पा सके। जल्द ही सुदर्शन की नींद लग गयी। समुद्र जैसे लोरियाँ सुनाने लगा।

इस बीच सुदर्शन सम्पूरन के बारे में ज़्यादा न जान पाया। कुछ दिनों में केवल इतना मालूम हो सका कि सम्पूरन का दफ्तर लेमिंग्टन रोड पर है। सुप्रिया उसकी सेक्रेटरी-कम-प्रेमिका है, उसकी रिसेप्शनिस्ट का नाम मारिया है। वह पैसे का दुश्मन है। जब से बम्बई आया है, कभी ट्रेन या बस में सवार नहीं हुआ। सुबह-सुबह उसे चाय के कई प्याले चाहिएँ और सूरज ढलने के बाद वह चाय का नाम नहीं लेता। उसकी आर्थिक स्थिति के बारे में सुदर्शन आश्वस्त नहीं हो पा रहा था, क्योंकि सिगरेट वाले का बिल सैकड़ों रुपये था, दूधवाले का उससे भी ज़्यादा, राशन वाले का दोनों से ज़्यादा। वह घर से टैक्सी में ही निकलता था, चाहे सिगरेट वाला ही टैक्सी का भाड़ा क्यों न चुकाये। उसकी जीवन शैली में अनेक विरोधाभास दिखाई दे रहे थे। सुप्रिया अँग्रेज़ी में बात कर सकती थी या मराठी मिश्रित हिन्दी में। बाद में सुदर्शन के सम्पर्क में वह रवाँ-दवाँ हिन्दी-उर्दू बोलने लगी।

पहली तारीख को जब सुदर्शन पहला वेतन लेकर नीचे उतरा तो देखा, सम्पूरन की टैक्सी दफ्तर के सामने खड़ी थी।

“क्यों, तनख्वाह मिली?”

“हाँ, मिली।”

सम्पूरन का चेहरा खिल गया, “आज बहुत कडक़ी थी।”

सुदर्शन ने जेब से लिफाफा निकालकर उसके हवाले कर दिया। उसने हथेली से वज़न का अन्दाज़ करते हुए कहा, “बहुत से काम हो जाएँगे।”

सुदर्शन टैक्सी में सवार हो गया। क्रॉफर्ड मार्केट के पास उसने टैक्सी रोकी और दोनों उतर गये। सुदर्शन भी साथ-साथ चलने लगा। सम्पूरन चलते-चलते जेब से फालतू कागज़ निकाल कर फेंक रहा था। सुदर्शन ने पूर्जा उठाया जो एक बिल था, कैश मीमो नहीं। बिल 'ए टु ज़ेड' का था, जिसके मालिक का नाम था- के.सी. मलकानी। यह उस सामान का बिल था जो सम्पूरन ने सुदर्शन को भेंट किया था- बनियान, अंडरवियर आदि का। कुल रकम मात्र एक सौ सैंतीस रुपये, दस प्रतिशत स्पेशल डिस्कांउट।

सम्पूरन ने चार छह चिकेन, चार-पाँच किलो गोश्त, मछली, फल, मक्खन, जैम, घी, अंडे, चायपत्ती, जो कुछ भी राशन का सामान दिखाई दिया, खरीद लिया। खरीदारी कुछ इस मुहूर्त में शुरू हुई कि दादर तक पहुँचते-पहुँचते दो-तिहाई पैसे खर्च हो गये। घर पहुँचकर उसने टैक्सी का भाड़ा चुकाया, बाकी जितने पैसे बचे, सिगरेट वाले को दिये और सीटी बजाते हुए सीढिय़ाँ चढऩे लगा, पीछे-पीछे सामान उठाये हुए सुदर्शन, सुप्रिया और नौकर, जो टैक्सी रुकने की आवाज़ सुनते ही नीचे उतर आया था।

हस्बेमामूल सम्पूरन किचेन में घुस गया। सुप्रिया सामान भरने लगी। नौकर, तब तक किचेन में न जाता था, जब तक गोश्त पकता था। सुदर्शन भी तब तक शाकाहारी था, सम्पूरन के सान्निध्य में कुछ ऐसा असर हुआ कि धीरे-धीरे उसी के रंग में रँगने लगा। दफ्तर से लौटकर सुदर्शन स्नान करके समुद्र की तरफ निकल जाता। नारियल का पानी पीता या भेलपुरी का आनन्द लेता।

सुबह जब दफ्तर जाने का वक्त आया तो सुदर्शन ने पाया कि जेब में एक पैसा नहीं। गाड़ी का पास भी नहीं बनवाया था। दफ्तर भी समय पर पहुँचना ज़रूरी था, क्योंकि वहाँ कड़ा अनुशासन था। केवल पाँच मिनट की देरी से आने की छूट थी, उसके बाद रजिस्टर परसोनल विभाग में चला जाता था, वहाँ किसी अधिकारी की उपस्थिति में दस्तखत करने पड़ते थे।

सुदर्शन को अनिर्णय की स्थिति में खड़ा देख सम्पूरन ने कहा, “लगता है दफ्तर जाने के लाले पड़े हुए हैं।”

सुदर्शन मुस्कराया।

सम्पूरन ने कहा, “सामने ड्राअर में पचास रुपये रखे हैं। उठाओ और फूटो।”

गाड़ी छूटने में पन्द्रह मिनट बचे थे। सुदर्शन ने पैसे उठाये और भागा।

शाम को सम्पूरन कहीं से 'स्कॉच' का जुगाड़ कर लाया, पता चला पार्टी है। सुदर्शन भी उसके साथ-साथ इन्तज़ाम में जुट गया। वे लोग दोपहर से किचेन में घुसे थे। पार्टी शुरू हुई तो देखा एक-से-एक खूबसूरत चेहरे वाली एयरहोस्टेसेज़, बड़े-बड़े उद्योगपति, फ़िल्मी हस्तियाँ- मंजू महेन्द्रू, और मिसेज़ भादुड़ी, विद्या आहूजा, तरह-तरह के लोग।

सम्पूरन गज़ब का मेज़बान था। मेहमानों पर सब कुछ न्यौछावर कर देनेवाला।\

एक वाकया तो भुलाये नहीं भूलता। एक दिन पार्टी शबाब पर थी कि अचानक दस्तक हुई। सुदर्शन ने दरवाज़ा खोलकर देखा, राशन की दुकान का मालिक था। सुदर्शन ने उसे बताया कि अन्दर पार्टी चल रही है, सुबह आना, मगर वह टस-से-मस नहीं हो रहा था। सम्पूरन ने अचानक महसूस किया कि कुछ गड़बड़ है। वह भी बाहर चला आया और पीठ से दरवाज़ा बन्द किये रहा। मालूम हुआ, राशन वाले का पाँच सौ बकाया है और वह आज लेकर ही जाएगा। अन्दर पार्टी में कई करोड़पति और बाहर यह बवाल। समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे उस ज़िद्दी आदमी से छुटकारा पाया जाए। आखिर जब सम्पूरन ने देखा कि कोई तर्क काम नहीं आ रहा तो उसे एक तरकीब सूझी। उसने लाला को गुदगुदी करनी शुरू की। बरामदे में खिडक़ी के पास एक लम्बा-सा दीवान पड़ा रहता था। वह हँसते-हँसते उस पर लोटपोट हो गया। सम्पूरन था कि उसे लगातार गुदगुदाए जा रहा था, “अभी पिछले महीने ढाई सौ मिला था कि नहीं, बोल... बोल। अब तक कभी तुम्हारा बिल चैक भी किया है?”... हँसते-हँसते लाला किसी तरह अपना पिंड छुड़ाकर भागा। अन्दर आकर सम्पूरन एकदम सामान्य हो गया। किसी को अहसास ही नहीं हो पाया कि कैसे एक हंगामा होते-होते रह गया था।

भौतिक कष्ट में रहना सम्पूरन ने सीखा ही न था। कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी वह कोई जुगाड़ कर लेता था। जब सुदर्शन ने उसके साथ रहना शुरू किया था तो उसका नौकर वह था, जो कभी माला सिन्हा का नौकर रहा था। खाना बनाने में पारंगत, सालभर उसने खूब मन लगाकर काम किया, एक दिन पता चला, वह दूने वेतन पर देवानन्द के यहाँ चला गया है। इन लोगों के लिए अजीब मुसीबत खड़ी हो गयी। सम्पूरन खाना बना सकता था मगर उसे उसकी पूर्व तैयारी से नफरत थी, जैसे प्याज़ काटना, मसाला पीसना। उन दिनों सुदर्शन प्याज़ काटता, सुप्रिया आटा गूँधती, रात तक किसी तरह भोजन तैयार होता।

एक दिन सब लोग खाने की तैयारी में जुटे थे कि 'कॉलबेल' बजी। सम्पूरन बाहर निकला, लौटा तो उसके पीछे-पीछे पोटली और एक डिब्बा उठाये एक बुज़ुर्ग व्यक्ति थे। शक्ल-सूरत से लग रहा था, राजस्थान से आये हैं। मालूम हुआ कोटा से किन्हीं पोद्दार साहब ने महेन्द्र केजरीवाल के लिए नौकर भेजा है। बुज़ुर्ग व्यक्ति ने जेब से पत्र निकालकर दिया और बोला, “पोद्दार साहब ने बहुत अहसान किया।” और सम्पूरन ने लाचार-सा बनकर जवाब दिया, “देखो काका, हम लोग खाना बनाने के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं।”

काका पेशेवर रसोइया थे, सिर्फ शाकाहारी भोजन बना सकते थे। स्नान करके वे काम में जुट गये और देखते-देखते आधा घंटे में खाना परोस दिया।

“आदमी काम का है मगर आया है ऊपरवाले केजरीवाल के लिए। जब तक नौकर का इन्तज़ाम नहीं हो जाता, इसे बाहर मत जाने देना।” सम्पूरन ने सुप्रिया से कहा।

जिस प्रकार सुदर्शन बहुत जल्दी सम्पूरन से घुलमिल गया था, काकाजी देखते-देखते परिवार का अंग हो गये।

काका अपने लिए देशी घी का डिब्बा गाँव से लेकर आये थे। वह सब लोगों के भोजन में वनस्पति घी का इस्तेमाल करते और अलग से देशी घी में अपना भोजन बनाते। सम्पूरन ने काका के घर दो सौ का मनीआर्डर कर दिया और दो किलो देशी घी काका को ला दिया। काका गद्गद। इस प्रकार डेढ़ बरस गुज़र गया।

एक दिन ऊपर की मंज़िल पर पानी नहीं चढ़ा तो केजरीवाल कन्धे पर तौलिया डाल सम्पूरन के यहाँ स्नान करने चले आये। सम्पूरन ने उन्हें चाय वगैरह भी पिलवायी। तभी केजरीवाल की नज़र काका पर पड़ी। उन्होंने मारवाड़ी में काका से कुछ पूछा। संवाद जारी होते ही दो मिनट में राज़ खुल गया कि काका सम्पूरन के लिए नहीं, केजरीवाल के लिए आये थे। बाद में केजरीवाल साहब ने काका को कई लालच दिये, मगर वह सम्पूरन लोगों को छोडक़र जाने को तैयार न हुए।

ये थे सम्पूरन के बारे में सुदर्शन साहब के कुछ संस्मरण। सुदर्शन ने उस रहस्य का भी पता लगा लिया था, जहाँ से सम्पूरन उसके लिए ढेर सारा होजरी का सामान लाया था। अगले अध्याय में उसी का खुलासा होगा, जिससे सम्पूरन के व्यक्तित्व की कुछ और पर्तें खुलेंगी।