17 रानडे रोड / अध्याय 2 / रवीन्द्र कालिया

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अतिथि पात्र चार: के. सी. मलकानी

दिल का राजा जेब का फकीर

उसकी नींद खुली तो उसने देखा गाड़ी दादर पर खड़ी थी। वह जब तक गाड़ी से उतरने का उपक्रम करता, गाड़ी एक हल्के से झटके के साथ चल दी। उसके हाथ पतलून की जेब तक गये तो उसने देखा, जेब सही सलामत थी, यानी कि उसकी जेब में नौटांक के कुछ और घूँट सुरक्षित थे। उसने बगैर यह सोचे कि वह लोकल में बैठा है, बोतल मुँह से लगा ली और दो-चार लम्बे घूँट भरकर बोतल खिडक़ी से बाहर फेंक दी। उसके मुँह का स्वाद पहले ही कसैला हो रहा था, अन्तिम घूँट भरते हुए उसका मुँह जैसे नौसादर की गन्ध से भर गया। उसे खुद ही अपनी साँस से एक नाक़ाबिले बर्दाश्त बू का तीव्र एहसास हुआ, जैसे वह कीचड़ में लोट रहा हो। हर साँस के साथ उसे उबकाई का एहसास होता। उसने कलाई घड़ी से समय देखने की कोशिश की, मगर घड़ी की सुइयों पर दृष्टि स्थिर नहीं कर पाया। उसने तय किया कि इस समय उसे चाय की सख़्त जरूरत है। शायद चाय के एक कप से उसकी गनूदगी कुछ दूर हो। कुछ देर बाद वह लुढक़ते-पुढक़ते एक स्टेशन पर उतर गया। उसने अन्दाज लगाया, वह शायद ग्रांट रोड पर खड़ा है। दूर-दूर तक उसे चाय का कोई स्टॉल दिखाई नहीं दिया। उसके आस-पास तेज कदमों से चलते हुए लोगों की हल्की-सी भीड़ थी। वह भी अपने अस्थिर कदमों से लोगों के पीछे हो लिया। इसके बाद उसे कुछ याद न रहा।

उसकी नींद तब टूटी जब उसने पाया कोई उसे बुरी तरह से झँझोड़ रहा है। उसने देखा बड़े-बड़े बदसूरत दाँतों वाला एक अपरिचित-सा शख्स उसे कॉलर से पकडक़र उठाने की कोशिश कर रहा है।

“पिएला है।” उसने पास खड़े एक खूबसूरत सिन्धी से कहा, जो हाथ में चाबियों का गुच्छा झुला रहा था।

“मार साले को।” उसने कहा, “अब मवाली भी साफ-सुथरे कपड़े पहनने लगे हैं। इससे पूछो, यह इसके बाप की दुकान है, जो यहाँ टाँगें फैलाकर सोया है।”

सम्पूरन ने लेटे-लेटे ही अपनी टाँग से उस मरियल शख़्स को परे धकेल दिया और उठकर खड़ा हो गया। उसकी पतलून पर जगह-जगह कीचड़ लगी थी। कमीज पर भी कालिख लगी थी और गिरेबान से फट गयी थी। अपनी दशा देखकर उसे खुद ही बहुत बुरा लगा। उसे कुछ याद नहीं था, कहाँ कीचड़ लगी और कैसे कमीज फट गयी। इस दुकान के पटरे पर वह कैसे पहुँच गया। स्वर्ण को कहाँ छोड़ा और वह इस वक्त कहाँ होगा। हौली की हल्की-सी स्मृति शेष थी। उसे मात्र इतना याद है कि उसने स्वर्ण से आज की रात रानडे रोड में बिताने का आग्रह किया था, मगर वह किसी भी सूरत में इसके लिये तैयार नहीं हुआ। उसका तर्क था कि वह उस भुतहे फ्लैट में सोकर अपनी मानसिकता बर्बाद नहीं करना चाहता, पहले ही वह बहुत-सी समस्याओं से घिरा हुआ है। उसने यह भी बताया था कि उसका एक दोस्त दिल्ली से 'उर्दू अदब' में सहायक सम्पादक होकर बम्बई आ रहा है, उसने स्वर्ण से मुम्बई की किसी लॉज में उसका इन्तजाम करने को कहा है, उसे सम्पूरन के साथ कर देगा।

सम्पूरन ने उस सिन्धी युवक से चाबियों का गुच्छा छीनकर हवा में उछाल दिया, “ज्यादा गरूर अच्छा नहीं होता मेरी जान, यह बम्बई है, कल यह दुकान मेरी हो सकती है और यह पटरा तुम्हारा।”

“तैश में क्यों आते हो साईं?” सम्पूरन के तेवर देखकर उसका पारा यक़ायक नीचे आ गया था, “सुबह-सुबह क्यों झगड़ा करता है। आदमी को पहचानने में मैंने कभी चूक नहीं की थी, लगता है आज हो गयी।”

सम्पूरन ने उसकी पीठ थपथपायी और चलने को हुआ। सिन्धी ने उसे रोक लिया, “अब तो आप चाय पीकर ही जा सकते हैं।”

सम्पूरन को चाय का प्रस्ताव बुरा नहीं लगा, उसने कहा, “अगर जल्दी चाय पिलवाएँ तो पी लूँगा।”

उसने एक पर्ची पर दो स्पेशल चाय का ऑर्डर लिखकर आदमी को चाय के लिये रवाना कर दिया और खुद गल्ले के ऊपर लगी झूलेलाल की प्रतिमा की पूजा करने लगा। सम्पूरन दुकान का जायजा लेने लगा। छोटी-सी दुकान थी, मगर माल से ठसाठस भरी थी। मोज़े, गंजी, टी-शर्ट और औरतों के अन्त:वस्त्रों का बहुत सामान था। उसने खड़े-खड़े कई डिब्बे खोलकर देख लिए। इस बीच दुकान में अगरबत्ती की गन्ध रच-बस गयी थी। अपनी कुर्सी झाड़पोंछ कर दुकान का स्वामी काउंटर पर स्थापित हो गया था।

सम्पूरन ने उसके सामने बैठते हुए कहा, “बन्दे को सम्पूरन कहते हैं, सम्पूरन ओबेराय।”

“हमारा नाम मलकानी है, के.सी. मलकानी।” उसने हाथ मिलाते हुए कहा।

“मलकानी साहब, आप चाय में चीनी ज्यादा पीते हैं।” सम्पूरन ने चाय सुडक़ते हुए कहा, “आपकी उम्र में चीनी की इनटेक कम कर देनी चाहिए।”

“हमारी वाइफ भी यही कहती है। वह तो अभी से फीकी चाय पीती है।”

“आपकी वाइफ समझदार है।”

“समझदार ही नहीं कमाऊ भी है। हाईस्कूल में गणित पढ़ाती है। घर में कुछ वाईट-मनी भी रहना चाहिए कि नईं?”

“बच्चे कितने हैं?”

“एक बिटिया है, उसी के स्कूल में पढ़ती है आठवीं क्लास में। माँ की तरह वह भी गणित में बहुत तेज है।”

“खाना कौन बनाता है?”

“वह और बेटी मिलकर बना लेती हैं। खाने की कोई प्रॉब्लम नहीं। ठीक बारह बजे डिब्बा आ जाता है। झूलेलाल की मेहर है।”

सम्पूरन बैठे-बैठे अपने जूते के फीते खोलने लगा, उसने जूते उतारे फिर मोज़े और मलकानी से बोला, “कोई बढिय़ा से मोज़े दिलवाइए।”

मलकानी ने काउंटर पर मोज़ों के कई डिब्बे खुलवा दिये। सम्पूरन ने ऑफ वाइट रंग का एक मोज़ा निकाला और पहनने लगा। नये मोज़े पहनकर उसे राहत महसूस हुई। उसके उतारे हुए मोज़े मरे हुए चूहों की तरह उसके पास पड़े थे।

“उतरे हुए मोज़े बाहर फिंकवा दीजिये।” सम्पूरन ने मलकानी से कहा। उसे मालूम था कि यह काम मलकानी नहीं करेगा और उसके पास एक ही सहायक है, जो अभी कुछ समय पहले सम्पूरन पर बमक रहा था। मलकानी को अपने आदमी से यह कहने की जरूरत नहीं पड़ी, उसने सम्पूरन की बात सुनते ही अपने पाँव से ठेलते हुए मोज़े दुकान से बाहर कर दिये। मलकानी और सम्पूरन दोनों उसका उपक्रम देखते रहे। मलकानी कुछ बोले, उससे पहले ही वह मोज़ों को रेलिंग तक ले गया और वहाँ से गेंद की तरह उछाल कर रेलिंग के पार फेंक दिए।

“एक बढिय़ा-सी टी-शर्ट भी दिखाइए।” सम्पूरन ने कहा और इससे पहले कि मलकानी पैसों के लिये चिन्तित हो, उसने पतलून की चोर जेब से सौ का नोट निकाल कर मलकानी के काउंटर पर रख दिया। नोट देखकर मलकानी की बाछें खिल गयीं, उसने नोट को अपने माथे से छुआया और बोला, “मेरे पास टी-शर्ट का एक इम्पोर्टेड पीस रखा है। आपको लागत पर दे दूँगा-सिर्फ पचास रुपये में, बाजार में पचहत्तर से कम न मिलेगा।” उसने काउंटर के नीचे हाथ ले जाकर सलेटी रंग का एक टी-शर्ट काउंटर पर फैला दिया। सलेटी रंग पर गहरे नीले रंग की धारियाँ थीं। सम्पूरन ने उसे दोनों हाथों से फैलाकर देखा और शर्ट उतारने लगा। शर्ट के साथ-साथ बनियान भी उतर गयी। सम्पूरन ने टी-शर्ट पहनकर आईने में देखा, टी-शर्ट उस पर फब रही थी, मगर उसने प्रत्येक कोण से उस टी-शर्ट में अपना जायजा लिया और उतार कर काउंटर पर रख दी, “मुझे दरअसल, इस समय फार्मल यानी एक्जीक्यूटिव किस्म की बढिय़ा सूती कमीज की जरूरत है। टी-शर्ट तो मेरे लिये पैक करा दीजिये, फिलहाल कोई बहुत बढिय़ा शर्ट दिखाएँ। ऐसी शर्ट कि बस देखते ही रह जाएँ। है कोई ऐसी शर्ट?”

“क्यों नहीं है साईं। जरा एक्सपेंसिव है। यही सौ की रेंज में।”

“तो दिखाओ न साईं।”

“गोदाम से मँगवानी पड़ेगी।”

“तो मँगवाओ न। मैं तब तक शेव बनवा कर आता हूँ।” सम्पूरन ने कहा।

सडक़ पार ही केश-कर्तनालय था। सम्पूरन ने नयी टी-शर्ट पहनी और सडक़ पर ट्रैफिक से बचते हुए ग्राफ-सा बनाता हुआ मलकानी की आँखों से ओझल हो गया। मलकानी देखता रह गया, उसे लगा कि उसकी बोहनी खराब न हो जाए। वह दुकान से बाहर निकल आया और केश-कर्तनालय में सम्पूरन की टोह लेने लगा। उसे सम्पूरन दिखाई न दिया तो अपने आदमी को खोज-खबर के लिये रवाना कर सीढ़ी लगाकर दुछत्ती पर चढ़ गया। इम्पोर्टेड माल वह यहीं छिपा कर रखता था। मीडियम साइज की कुछ कमीजें छाँट कर वह नीचे ले आया। उसके आदमी ने खबर दी कि आदमी शेव बनवा रहा है तो उसने राहत की साँस ली। वह तय नहीं कर पा रहा था कि ग्राहक की जेब में और पैसा है या नहीं। उसके दिल में धुक-धुक हो रही थी कि कहीं सुबह-सुबह उधार न माँग बैठे। इस बीच कुछ लड़कियाँ ब्रा खरीदने आयीं। वह डिब्बे खोल-खोलकर उन्हें नये से नये फैशन की ब्रा दिखाता रहा, मगर उसका ध्यान सम्पूरन पर लगा था। दोनों लड़कियाँ जल्दी में थीं और उन्होंने एक-एक ब्रांडेड ब्रा खरीद ली। पैसा गिनते हुए वह सोचता रह गया कि इन लड़कियों को सुबह-सुबह ब्रा की जरूरत क्यों पड़ गयी?

सम्पूरन लौटा तो वह काफी तरोताजा लग रहा था। शेव बनवाने से उसके व्यक्तित्व में निखार आ गया था। लग रहा था, जैसे इस बीच वह स्नान भी कर आया हो। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही व्यक्ति है जो कुछ देर पहले फुटपाथ पर सोया हुआ था और जिसके कपड़े कीचड़ से दाग-दाग थे। सम्पूरन ने दुकान में घुसते ही टी-शर्ट उतार दी और मलकानी के सामने पड़ी एक शर्ट से आलपिन निकालकर उसकी तहें खोलने लगा। ऑफ वाईट रंग की शर्ट पर उसी रंग की हल्की धारियाँ थीं। शर्ट जैसे सम्पूरन के लिये ही सिली थी। उसने शर्ट पहन ली और आईने में देखकर मलकानी से बोला, “कैसी है साईं?”

“फस्ट क्लास शर्ट है। आपने सबसे अच्छा पीस उठा लिया।”

“इसकी टक्कर की पतलून भी दिखा डालो।”

मलकानी ने फीते से सम्पूरन की कमर का नाप लिया और दोबारा सीढिय़ाँ चढ़ गया। दुकान में इस बीच एक पारसी महिला दाखिल हुई। एक छोटी-सी बच्ची ने उसकी अँगुली थाम रखी थी। सम्पूरन ने बच्ची को देखकर हाथ हिलाया, “हैलो बेबी।” मलकानी जब जीने से उतरा उस समय वह महिला बगैर मोल-भाव किये बच्ची के लिये एक फ्राक खरीदकर पैसे दे रही थी। मलकानी ने पतलून के डिब्बे सम्पूरन के सामने रखे और लपककर पैसे सेफ में रख लिये। तभी दो गुजराती महिलाएँ दाखिल हुईं। वे हाउसकोट में ही चली आयी थीं अैर मलकानी की परिचित थीं। लग रहा था, इसी इमारत में रहती हैं। वे पेटीकोट देख रही थीं। सेल्समैन उन्हें रंग-बिरंगे पेटीकोट दिखा रहा था। मलकानी ने एक डिब्बा खोला और पतलून दिखाते हुए बोला, “ऐसी पतलून आपको कोलाबा में भी न मिलेगी। सुपर कोम्ब कॉटन की एक्जीक्यूटिव पतलून है। मेरे पास चार इंगलिश ओवरटोन रंगों में है। आपकी शर्ट के साथ यह ग्रे ओवरटोन चलेगा।”

सम्पूरन ने पतलून उठाई और ट्रायलरूम में घुस गया। पतलून खूबसूरत ही नहीं बहुत आरामदेह भी थी। उसने कमीज पतलून के अन्दर की और बाहर निकल आया।

“वाह वाह, आप तो इन कपड़ों में हीरो के माफ़िक लग रहे हैं।”

“हीरो बनने ही बम्बई आया हूँ।” सम्पूरन ने कहा, “एक बार हीरो बन गया तो तुम्हारा सब उधार चुका दूँगा।”

मलकानी का चेहरा उतर गया, बोला, “मगर मैं तो उधार का दुश्मन हूँ। एक पाई का उधार नहीं देता।”

“यह तो बड़ी मुश्किल की बात है। तुमने पहले क्यों नहीं बताया?”

मलकानी ने पीछे इशारा किया, “पढ़ लो, मैंने इसीलिए यह लिखकर टाँग रखा है- टम्र्स कैश।”

“ट्रायलरूम में मेरी पुरानी पतलून रखी है। समझ लो मैंने एक्सचेंज कर ली।”

“सुबह-सुबह हमारा वक्त न खराब करो नीं।” मलकानी ने एक कागज पर बिल बनाकर सम्पूरन को सौंप दिया। कुल दो सौ उन्चास रुपये हुए थे।

सम्पूरन ने उसका बिल जेब के हवाले किया और बोला, “अगर मैं अभी इन कपड़ों में बाहर निकल जाऊँ तो क्या करोगे?”

“ऐसा अन्धेर नहीं है बम्बई में। अभी भीड़ लग जाएँगी।”

“क्या करोगे? कपड़े उतरवा लोगे?”

“आपने कपड़े खरीदे हैं, उनका पैसा दीजिए।”

“अगर पैसा न हो?”

“तो मेरे कपड़े वापस कीजिए।”

“अच्छा आप मेरे मोज़े लौटाइए।” सम्पूरन ने बाहर देखते हुए कहा। उसने देखा जहाँ उसके आदमी ने मोज़े फेंके थे, कोई उठा ले गया था। एक जूते पालिश करने वाला छोकरा ब्रश बजाता हुआ गुजर रहा था। सम्पूरन ने खास बम्बइया अन्दाज में सीटी बजाकर उसे बुलाया और जूते पालिश कराने लगा। दुकान में कुछ और ग्राहक आ गये थे। मलकानी का मन उनमें नहीं लग रहा था, उसकी सारी चेतना सम्पूरन पर केन्द्रित थी। जूते पालिश हो गये तो सम्पूरन ने मलकानी से कहा, “इसे एक चवन्नी दे दो।”

“मैं क्यों दे दूँ, जूते आपने पालिश कराए हैं, आप दीजिए।”

“मेरे हिसाब में दे दो।”

“आपका कोई हिसाब नहीं है मेरे पास।”

“क्यों झूठ बोल रहे हो? अभी-अभी सौ रुपये दिए थे, भूल गये?”

मलकानी ने एक चवन्नी नीचे फेंक दी। छोकरा चवन्नी लेकर चलता बना।

“मलकानी तुम्हारी नीयत ठीक नहीं है।” सम्पूरन ने जेब से बिल निकालकर देखा, “तुमने बिल में से सौ रुपये कम नहीं किए।”

“लाओ कर देता हूँ।”

“अब पकड़े गये तो कह रहे हो, लाओ कर देता हूँ। अगर मैं भूल जाता तो?”

“तुम बात बहुत बनाता है। मेरी दुकान में तो तुम्हारे जैसा मानुस कभी नहीं आया।”

“शुक्र करो आज आ गया है। देख रहे हो मेरे आने के बाद तुम्हारी बिक्री कितनी बढ़ गयी है! कभी आते थे सुबह-सुबह इतने ग्राहक, सच-सच बताओ।”

मलकानी को लगा, सचमुच सुबह से बिक्री हो रही थी। ऐसा बहुत कम होता था।

“मैं न आता तो अब तक बैठे मक्खियाँ मारते।”

“अब मेरा टाइम खराब न करो। लाओ पैसे निकालो।”

“पैसे कहाँ हैं मेरे पास। यह सोचकर सब्र कर लो कि चोरी हो गयी।”

कैसी बातें करता है यह शख्स! मलकानी की समझ में नहीं आ रहा था कि वह मसखरी कर रहा है या सच बोल रहा है।

तभी डिब्बेवाला मलकानी के काउंटर पर खाने का डिब्बा रख गया।

“लो खाना खाओ और गुस्सा थूक दो।” सम्पूरन बोला।

“खाना मैं एक बजे खाता हूँ।”

“अभी क्या टाइम हुआ है?”

“सामने घड़ी है, देख लो।”

“मुझे टाइम देखना नहीं आता।” सम्पूरन ने कहा, “टाइम बताने में भी पैसा खर्च होता है क्या?”

“देख नहीं रहे, साढ़े ग्यारह बज गये हैं। एक-एक ग्राहक के साथ इतनी मगजपच्ची करूँगा तो चला चुका दुकान।”

“तो दुकान चलाओ। एक अच्छी-सी टाई दिखाओ और एक बेल्ट।”

मलकानी ने उसकी बात पर गौर नहीं किया और एक आदमी को अंडरवियर दिखाने लगा। सम्पूरन ने सोचा, लोग सुबह-सुबह अन्त:वस्त्र ही खरीदते हैं, कोई अंडरवियर खरीद रहा है कोई ब्रा और कोई पेटीकोट खरीद कर चली गयी। सम्पूरन काउंटर के सामने रखे लम्बे-से स्टूल पर स्थापित हो गया था। स्टूल ऐसा था कि चारों तरफ घूम जाता। उसने बच्चों की तरह बैठे-बैठे ही एक बार पैर उठाकर स्टूल घुमाकर देखा। मलकानी खाली हुआ तो उसने कहा, “मैंने बेल्ट और टाई दिखाने को कहा था।”

“मूड़ी है जेब में?” मलकानी ने पूछा। मूड़ी गुजराती शब्द है, जिसका अर्थ सम्पूरन जानता था। उसने जेब में दूसरा अन्तिम सौ का नोट निकाला और मलकानी के सामने रख दिया। मलकानी पैसा उठाता उससे पहले ही सम्पूरन ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया, “पहले बेल्ट दिखाओ।”

नोट देखकर मलकानी कुछ आश्वस्त हुआ और बेल्ट का एक छोटा-सा डिब्बा उठा लाया।

“यहाँ क्या हर चीज डिब्बे में मिलती है?” सम्पूरन ने डिब्बा खोलकर कमर में बेल्ट कस ली, “अब जरा टाई का डिब्बा भी दिखाओ।”

टाई के कई डिब्बे काउंटर पर खुल गये। सम्पूरन एक कत्थई रंग की डिजाइनदार टाई निकालकर गले में गाँठ लगाने लगा।

“लीजिए बिल में बेल्ट और टाई के दाम भी जोड़ दीजिए।”

मलकानी ने पचहत्तर रुपये बिल में जोड़ दिए। सम्पूरन ने उसे सौ का नोट देते हुए कहा, “अब इसमें से दो सौ रुपये घटा दीजिए।”

मलकानी ने बिल में से दो सौ रुपये घटाकर बिल सम्पूरन को लौटा दिया। सम्पूरन ने बिल जेब के हवाले किया और बोला, “अच्छा तो मैं अब चलता हूँ। बहुत जल्द पेमेंट भिजवा दूँगा।”

“यह क्या तमाशा कर रहे हो?” मलकानी बोला, “अपना ही नहीं, मेरा वक्त भी बर्बाद कर रहे हो।”

“मुझे भूख लग रही है।” सम्पूरन बोला, “डिब्बा देखकर बताओ भाभी ने क्या भेजा है?”

“मैं तुम्हारा कोई कर्जदार हूँ क्या?”

“मैं तो हूँ। कर्ज तो कर्ज है, एक हो या एक सौ।”

“तुम बातें बहुत बनाते हो।”

“बातों से पेट नहीं भरता। घर का खाना नहीं खिलाना चाहते तो मैं बाहर जा कर ऊसल पाव खा आता हूँ।”

मलकानी को लगा, यह शख्स खिसकने की योजना बना रहा है, उसने कहा, “जहाँ जाना चाहो जाओ, मगर मेरे पैसे देकर।”

“पैसे तो सब तुमने ऐंठ लिये। मेरी तलाशी ले लो, जितने पैसे निकलें वे तुम्हारे।”

“मैं अपने ग्राहकों की तलाशी नहीं लेता।”

“यह तो बहुत अच्छी बात है।” सम्पूरन ने कहा, “तुम और अच्छे इनसान बन सकते हो। थोड़ा पढ़ा-लिखा करो। घर में कोई अखबार मँगवाते हो?”

मलकानी ने हाथ जोड़ दिए, “मेरा पीछा छोड़ो बाबा और पैसे चुका कर अपना रास्ता नापो।”

“आज का अखबार पढ़ा है?” सम्पूरन ने कहा, “जो आदमी अखबार नहीं पढ़ता, वह अच्छा दुकानदार भी नहीं हो सकता।”

मलकानी को लगा, यह शख्स उसे निहायत बेवकूफ और अनपढ़ समझ रहा है। उसने कहा, “टाइम्स ऑव इंडिया पढक़र घर से निकलता हूँ। इतवार को इलस्ट्रेटेड वीकली भी पढ़ता हूँ।”

“यह तो बहुत अच्छी बात है। एक वीकली और पढ़ा करो, तुम्हारे दिमाग की तमाम खिड़कियाँ फटाक-फटाक खुलने लगेंगी। तुमने सुना ही होगा, टाइम वीकली का नाम।”

“सुना है, मगर देखा नहीं कभी।”

“अभी दिखाता हूँ।” सम्पूरन ने अपने ऑफ़िस में फोन मिलाया। वह दफ्तर खुलने की प्रतीक्षा कर रहा था। ग्यारह बजे तक सुप्रिया या चपरासी, कोई न कोई जरूर आ जाता है।

“गुड मार्निंग। सम्पूरन हियर। अगर कोई पिउन आ गया हो तो मेरा बैग भिजवा दो, मैं पास ही ग्रांट रोड पर 'ए टु ज़ेड' में बैठा हूँ। बाटा के शोरूम के सामने। हाँ-हाँ एक बजे तक पहुँच जाऊँगा।”

फोन पर बातचीत सुनकर मलकानी ने राहत की साँस ली। यह आदमी मवाली नहीं है, कोई दफ्तर भी है इसका।

“तुम्हारा दफ्तर कहाँ है साईं!”

“लेमिंगटन रोड पर। विरमानी डिस्ट्रीब्यूटर्स को जानते हो? मेरे पड़ोस में उनका भी दफ्तर है।”

“रमेश विरमानी?”

“हाँ हाँ वही लम्बू। 'बेवफा' क्या चल निकली, उसके पैर धरती पर नहीं पड़ रहे।”

“बहुत पैसा कमाया है उसने। उल्हास नगर में एक और फ्लैट बनवा लिया है।”

“उससे बात करवाऊँ तुम्हारी?”

“मैं उससे क्या बात करूँगा!”

“इसीलिए तो कहता हूँ कि आदमी को पढऩा चाहिए। अँग्रेजी तो पढ़ ही लेते होंगे। एक मैगजीन छपता है अमरीका से- 'टाइम'। विरमानी भी पढ़ता है। उसे पढक़र फ़िल्मों के हिट होने का फार्मूला जान गया। आप भी पढि़ए और देखिए आपका बिजनेस कितना चमक जाता है। दुनियाभर की खबरें और उन पर टीका-टिप्पणी रहती है। उसे पढऩा शुरू कीजिए तो देखिए आपकी पर्सनेलिटी बदल जाएगी। आप प्रधानमन्त्री से लेकर टेक्सटाइल इंडस्ट्री के टाइकून तक से बात कर सकेंगे। आपकी जिन्दगी में एक जलजला आ जाएगा। आपकी बीवी आपसे बात करने में घबराएगी। चाहे कितनी बड़ी टीचर क्यों न हो!”

जब तक सम्पूरन का चपरासी उसका बैग लेकर आता, सम्पूरन मलकानी के साथ भोजन ही नहीं कर चुका था बल्कि उसे 'टाइम' का वार्षिक ग्राहक बनने के लिए भी राजी कर चुका था। उसने चपरासी को देखते ही उसे डाँटा कि वह बैग लेकर टैक्सी में क्यों नहीं आया! उसका एक घंटा बर्बाद कर दिया, “सुप्रिया को कितनी बार समझाया है कि मैं कुछ मँगवाऊँ तो आदमी को टैक्सी में रवाना करना चाहिए। महज़ साठ पैसे बचाने में मेरा इतना समय नष्ट हो गया। अब खड़े-खड़े मेरा मुँह क्या तक रहे हो, जाओ और मेरे पहुँचने से पहले सब चिटिठ्याँ डिस्पैच हो जानी चाहिएँ।”

वह चला गया तो सम्पूरन ने सोचा, जल्द ही उसे वर्दी दिलवाएगा।

सम्पूरन ने अपने बैग को पिटारे की तरह खोला और एक बरस पुराना टाइम का अंक मलकानी के सामने फैला दिया। जब तक मलकानी उसके पन्ने पलटता, उसने वार्षिक चन्दे की रसीद उसके हाथ में थमा दी।

“क्लिफ्टन पार्क एंड ली के नाम से एक सौ पचीस का चैक बना दें। छह सप्ताह का समय प्रोसेसिंग में लगेगा, उसके बाद मैगजीन आपको प्रति सप्ताह मिलने लगेगी।”

सम्पूरन की तत्परता देखकर मलकानी हक्का-बक्का रह गया। कहाँ वह अब तक उससे पैसे की माँग कर रहा था और कहाँ यह शख़्स उसी से चैक उगाह रहा है। अपने पैसे की माँग करने में वह संकोच कर रहा था।

“घबराओ नहीं, अभी तुम्हारा भुगतान भी कर दूँगा।” सम्पूरन बोला, “मैंने तुम्हारी बोहनी करायी थी, तुम मेरी बोहनी कराओ।”

बहुत अनमने भाव से मलकानी ने सेफ से मोटी-सी चैक बुक निकाली और चैक तैयार कर दिया।

“आपके कितने पैसे हुए?” सम्पूरन ने उसका चैक बैग में रखते हुए पूछा।

“तीन सौ पचीस का सामान है। दो सौ आपने नकद दे दिए, बाकी एक सौ पचीस बचे।” उसने कहा।

सम्पूरन ने अपनी चैक बुक निकाली और चैक लिखने लगा।

“चैक न लिखें, नकद ही दे दें।” मलकानी ने कहा।

“कैसी बात करते हो साईं!” सम्पूरन बोला, “जब मैं आपका चैक स्वीकार कर रहा हूँ तो आप क्यों नहीं कर सकते? दूसरे अब बैंक बन्द होने का समय भी हो गया है। आपके पास नकदी की क्या कमी!”

सम्पूरन ने चैक काटा और उस पर एक हफ्ते बाद की तारीख डाल दी। मलकानी का ध्यान इस तरफ नहीं गया, चैक देखकर वह सकपका गया। चैक दो सौ रुपये का था।

“ज्यादा पैसे क्यों दे रहे हैं?” उसने पूछा।

“इसलिए दे रहा हूँ कि अब बैंक बन्द हो चुका होगा, मुझे अभी दो बजे टाटा हाउस पहुँचना है। पचहत्तर रुपये आप नकद दे दें।”

“आप तो डकैती पर उतर आये हैं!” उसने दु:खी होते हुए कहा।

“कैसी डकैती? अरे स्टेट बैंक का चैक है, कोई पुर्जा नहीं। जल्दी से पचहत्तर रुपये दें ताकि मैं वक्त पर पहुँच सकूँ।

मलकानी देर तक चैक को उलट-पुलट कर देखता रहा। उसे लग रहा था, उसके साथ कोई धोखा हो गया है।

“हमको ऐसा सौदा नहीं सुहाता।” मलकानी ने कहा, “अपना माल भी दे दिया, ग्राहक भी बना दिया और अब नकद भी माँग रहे हो।”

“इतनी बड़ी दुकान चलाते हो मगर चिडिय़ा का दिल पाया है।” सम्पूरन ने कहा, “लौकर पैसा निकालो, मुझे देर हो रही है।”

“कपड़े ले जाओ पर मैं नकद नहीं दूँगा।” मलकानी बोला।

“कैसी बच्चों जैसी बात करता है तू मलकानी। यह ले मेरा विजटिंग कार्ड। शाम को चैक के साथ किसी को भेज देना, तुम्हारा पैसा लौटा दूँगा। ठीक?”

मलकानी ने विजिटिंग कार्ड देखा तो प्रभावित हुए बिना न रहा। दरअसल, कार्ड बम्बई की सबसे बड़ी ऐड एजेन्सी 'अलका' के कला विभाग के आर्ट डायरेक्टर सत्यसेवक ने डिजाइन किया था, जो क्लिफ्टन का गहरा दोस्त था। क्लिफ्टन पार्क एंड ली की सारी स्टेशनरी सत्यसेवक ने ही डिजाइन की थी। सम्पूरन ने उसी ले आउट और फॉन्ट मंा क्लिफ्टन के स्थान पर अपना नाम-पता डलवा कर उसी प्रेस से अपने विजिटिंग-कार्ड छपवा लिये थे। यह सोचकर उसे बहुत दु:ख हुआ कि प्रेस का छोटा-सा चैक बाउंस हो चुका होगा। अगर अभी वह मलकानी से किसी तरह पचहत्तर रुपये झटकने में कामयाब हो गया तो सबसे पहले प्रेस के पचास-सौ रुपये दे आयेगा।

कार्ड पर शिवाजी पार्क का पता देखकर कर मलकानी का रुख कुछ अनुकूल हुआ, उसने पूछा, “शिवाजी पार्क पर रहते हो?”

“क्यों कोई शक है? सी फेस फ्लैट है। शाम को चले आओ, बहुत अच्छा डिनर दूँगा।” सम्पूरन ने दावत दी।

'लगता है कि कोई बड़ा आदमी है और फकीर के भेष में मेरा इम्तिहान ले रहा है।' मलकानी ठगा-सा नये कपड़ों में लैस सम्पूरन को देखने लगा। सम्पूरन किसी पहुँचे हुए फकीर की तरह मुस्कराया और मुस्कराता रहा, जब तक मलकानी ने सेफ से पचहत्तर रुपये निकालकर उसे सौंप न दिए।

सम्पूरन ने पैसे जेब में रखे और बोला, “मलकानी तू अभी पक्का बिजनेस मैन नहीं। तुमने मेरा चैक भी ध्यान से नहीं देखा। मैंने एक हफ्ते बाद की तारीख डाली है।”

मलकानी ने चैक निकाला और पढऩे लगा। उसने पूछा, “ऐसा क्यों किया तूने साईं?”

“बस यों ही, तुम्हारा इम्तिहान लेने के लिए।”

“अच्छा किया तुमने खुद ही बता दिया। चैक बाउंस होता तो मुझे बहुत तकलीफ होती।”

“तुम्हारा चैक बाउंस तो न होने देता, चाहे बैंक जाकर तारीख क्यों न बदलनी पड़ती।” सम्पूरन ने हाथ हिलाया, “अब जाता हूँ।”

“फिर आना साईं।”

“जरूर आऊँगा।” सम्पूरन ने कहा, “भाभी से कहना खाना बहुत लजीज बना था।”

वह हाथ हिलाते हुए बाहर निकल गया और टैक्सी की प्रतीक्षा करने लगा।


अतिथि पात्र पाँच : बम्बई


यह शहर किसका है?

सुदर्शन ने दफ्तर से लौटकर समय बिताने के लिए डायरी लिखना शुरू किया, जिसका क्रम मुश्किल से एक महीने चला। फिर उसने डायरी लिखना छोडक़र अपनी प्रेमिका को पत्र लिखने शुरू किए। यहाँ पेश है उनकी एक बानगी :

बम्बई, 4 जनवरी

'...बम्बई। एक दौड़। घुड़दौड़। पानी। समुद्र। छाते। ऊँची इमारतें और बहुत नीची झुग्गियाँ। शराब पर पाबन्दी। हर चौराहे पर शराब। बोरी बन्दर पर एक लडक़ी जल्दी से अपने प्रेमी का हाथ चूम लेती है और भागकर 'डेक्कन क्वीन' में चढ़ जाती है। टिकट-चैकर को डिब्बे में पाकर एक साथ पाँच लडक़े चलती ट्रेन से प्लेटफॉर्म पर कूद जाते हैं। एक आदमी फोर्ट एरिया में सडक़ पर पेशाब करते हुए गिरफ्तार कर लिया जाता है। एक आदमी अपनी बीवी के ऑफिस में बीवी को चूमते हुए पकड़ा जाता है- शादी के छह महीने बाद भी वे मकान नहीं ढूँढ़ पाये थे। फुटपाथ पर एक औरत चपातियाँ बना रही है और बच्चे सडक़ के आँगन में खेल रहे हैं। अन्धेरी में एक आदमी आत्महत्या कर लेता है कि उससे और अधिक 'क्यू' में नहीं खड़ा हुआ जा सकता। पेशाबघरों के सामने क्यू लगा है। घासलेट (कैरोसिन) लेने वालों की कतार इतनी लम्बी हो गयी है कि वहाँ ठेले वाले आ गये हैं- सींगदाना, भेलपुरी। बटाटा बड़ा। पानी पुरी। मेरीन ड्राइव की बेंचों पर बूढ़े पारसियों की जमात जैसे जन्म-जन्म से समुद्र की ओर घूर रही है। एक युवक धीरे-से एक नवजात को समुद्र में बहा देता है। लोग मुँह मोड़ लेते हैं। एक कमरे के फ्लैट में घर में सात प्राणी रहते हैं, जिनमें चार औरतें हैं। वे चारों औरतें बारी-बारी से गर्भ धारण करती हैं और कमरे की लम्बाई-चौड़ाई में कोई तब्दीली नहीं आती। गर्भपात के सिलसिले में लड़कियाँ माँ की सलाह लेती हैं और दस दिन की छुट्टी।

इमारतों में कहीं-कहीं कबूतर पर फडफ़ड़ाते हैं। एक जुलूस गुज़र जाता है। चौपाटी पर कामराज और शिवाजी पार्क में कृष्णमेनन, एक छोटे-से हॉल में मधु लिमये, ताजमहल में पाटिल लगातार भाषण दे रहे हैं और ग्रांट रोड के चौराहे पर एक आदमी लगातार रो रहा है। लोग सुबह आँधी की तरह शहर में घुसते हैं और शाम तूफान की तरह लौट जाते हैं। प्रात: पाँच बजे सिनेमा देखने वालों की भीड़ परेल में इकट्ठी हो रही है। एक ही बाज़ार में हरेक चीज़ की कीमत अलग-अलग है। एक शहर है जो दौड़ रहा है-एक दूसरे के पीछे दौड़ रहा है। रात को दो बजे गाडिय़ों में जगह नहीं मिल रही। चलती गाड़ी में कीर्तन हो रहा है और लोग ताश खेल रहे हैं। खड़े-खड़े ताश खेल रहे हैं। दायें-बायें से गाडिय़ाँ गुज़र रही हैं। विक्टोरिया टर्मिनस पर विक्टोरिया को ढाँप दिया गया है। दफ्तर के सहकर्मियों के अलावा एक ईरानी, एक पानवाला, एक किरानी मेरा नाम जानते हैं।...'

इस फुरसतहीन द्वीप की एक झलक सुदर्शन के उन खतों से भी मिल सकती है जो वह शादी से पहले अपनी प्रेमिका को लिखा करता था। और यह है सुदर्शन का बम्बई का पहला दिन जब वह बम्बई इंटरव्यू देने आया था।

22 फरवरी

'...इंटरव्यू से निपटकर मैं स्वर्ण के साथ जुहू की रेत पर लेटा रहा। अँधेरे में पानी और आसमान मिल गये थे और हम केवल समुद्र की आवाज़ सुनते रहे। हम बहुत थके हुए थे, मगर हम सोना नहीं चाहते थे। मैं तो बिल्कुल नहीं सोना चाहता था, क्योंकि दिन व्यस्तता में निकल गया था और मैं केवल व्यस्तता में जीकर सोना नहीं चाहता, खासतौर पर तब, जब जुहू के मच्छर आपको प्यारे लगने लगें। यहाँ के मच्छर बहुत सुन्दर हैं, हृष्ट-पुष्ट भी, मक्खियों की तरह। आप फ्लिट करेंगे तो पाएँगे कि मच्छर शराबी हो गये हैं और नटखट भी। आज गाड़ी पकडऩे की भरसक कोशिश करूँगा और परसों साढ़े पाँच तक लाबोहीम पहुँचने की कोशिश करूँगा।'

20 अप्रैल

'...मैं आज शिवाजी पार्क सी फेस के एक फ्लैट में शिफ्ट कर गया हूँ, पेइंग गेस्ट की हैसियत से। समुद्र उतना ही पास है जितनी तुम मेरे पास हो। मुझे अफसोस है कि शादी के बाद हम इस फ्लैट में नहीं रह पाएँगे। हम इस खिडक़ी पर खड़े होकर समुद्र को साथ-साथ नहीं देख पाएँगे। हम भूखे रह लेंगे मगर समुद्र से बहुत दूर मकान नहीं लेंगे।...'

21 अप्रैल

'...पत्र पढक़र मुझे लगा मैं दिल्ली में हूँ, तुम्हारे पास, तुम्हारे चेहरे पर सिगरेट का धुआँ फेंकता हुआ। जब-जब मैं यहाँ से दिल्ली के बारे में सोचता हूँ मुझे अपना वहाँ न होना अच्छा लगता है। कल दिल्ली की तसवीरें छाँटने के लिए लायब्रेरी गया था, मुझे दिल्ली बहुत ठिगनी और बौनी लगी। कनॉट प्लेस की ऊँचाई कितनी कम है, यह आप बम्बई रहकर ही जान सकते हैं। बम्बई में अदब की बात करने का मौक़ा बहुत कम मिलता है, मुझे लगता है यहाँ आस-पास कोई बहुत बड़ी गज़ल है, जिसे डिस्कवर करना है।... मध्य रेलवे के एक हिन्दी अधिकारी से भेंट हुई। उनके यहाँ जाना भी हुआ। उनकी पत्नी यहाँ लेक्चरर हैं और चाय बहुत अच्छी बनाती हैं।...'

25 मई

...आदमी टैक्सी में सफर न करे तो बम्बई दिल्ली से ज़्यादा महँगा नहीं। दादर से वी.टी. का फस्र्ट क्लास का पास ग्यारह रुपये में बन जाता है। हमारे घर से टैक्सी में दादर साठ पैसे की दूरी पर है और फास्ट ट्रेन 13-14 मिनटों में वी.टी. पर पटक देती है।

...कोई चाय पीने के लिए तैयार नहीं होता। पाँच बजते ही साथी लोग भाग जाते हैं। मैं अकेला भटकता रहता हूँ। चर्चगेट, मैरीन ड्राइव, नरीमन पाइंट, चौपाटी या किसी नाटक-कला प्रदर्शनी या फैशन-परेड में घुसने की कोशिश करता हूँ। यहाँ जहाँगीर आर्ट गैलरी में 'कैफे समोवार' तुम्हें पसन्द आएगा। एक छोटी-सी ओपन एयर गैलरी। पृष्ठभूमि में सितार-वादन और सुन्दरियाँ, कुछ कलाकार या कला-समीक्षक।...

हम बहुत दूर तक साथ-साथ चलेंगे, समुद्र के किनारे खड़े होकर नारियल पिएँगे। मैं तुम्हें अपनी नयी गज़लें सुनाऊँगा।

30 जून

'...समुद्र गहरे इम्प्रेशंस छोड़ रहा है। कई बार जब आधी रात को आँख खुलती है तो समुद्र डराता है। लगता है, किसी अकेले को समुद्र और अकेला छोड़ जाता है और भरे हुए को और भर जाता है। कई बार लगता है यह समुद्र का नहीं, आपके अन्दर का शोर है। शाम को नहाने के बाद कई बार समुद्र की यही आवाज़ प्यारी भी लगती है, जब सूरज की टिकिया अचानक समुद्र में कूद जाती है और समुद्र को आसमान से अलग कर पाना मुश्किल हो जाता है और समुद्र एक पेटिंग की तरह लगता है, शान्त।...

...मेरे होस्ट की एक महाराष्टि्रयन प्रेमिका (होस्टेस) है, जो सिर्फ शाम को आती है और कॉफी बहुत अच्छी बनाती है। उसने जीवन में कभी चाय नहीं पी। नौ बजते-बजते मेरा होस्ट उसे उसके घर छोड़ आता है और फिर वह देर तक सो नहीं पाता। देर रात वह अपने को बहलाता-बहलाता सो जाता है...'

7 अगस्त

'...शनिवार। दिनभर घूमता रहा। मैरीन ड्राइव। पत्थर। गाडिय़ाँ। बसें। ट्रेसपासिंग। अब कुछ थकान और बरट्रोली। वर्ली में एक नयी जगह ढूँढ़ी है कॉफी पीने के लिए। तुम्हें पसन्द आएगी। लाबोहीम से खुली, मगर सस्ती। बैरे सर्व नहीं करते, लड़कियाँ सर्व करती हैं। झाग ज़रूरत से ज़्यादा सफेद, लड़कियों के दाँतों की ही तरह। फिर थोड़ी ही देर में टिवस्ट शुरू हो गया। अचानक। बम्बई की बरसात की तरह। मूसलाधार।...

कल इतवार है, और मैं हूँ। जैसे दोनों आमने-सामने खड़े हैं। देखें कौन जीतता है। इतवार ही जीतेगा, मैं हार जाऊँगा। हमेशा की तरह...'

10 सितम्बर

'...अकसर सीधा घर ही चला जाता हूँ, मेरा होस्ट (जिसे तुम घोस्ट कहती हो) आजकल बाहर गया हुआ है। तुम्हारा जिक्र आते ही वह 'चाइनीज लंच' याद किया करता है। अक्तूबर में हमें तीन छुटिटयाँ होंगी, अगर बारिश थमी तो शायद माथेरान जाऊँ।...'

12 सितम्बर

'...आज इतवार है और यह खत बरट्रोली से लिख रहा हूँ। कुछ लिखना हो छुट्टी के रोज़ तो यह कोना पसन्द आता है। मुझे अफसोस रहेगा कि दोपहर बाद यह रेस्तराँ प्रेमी युगलों का हो जाता है और वे बत्तियाँ बुझा देते हैं, फिर यहाँ बैठने का सवाल नहीं उठता। लिखता हुआ आदमी तो चुगद लगता है।

यहाँ रात को ब्लैक आउट बहुत भला लगता है। सारी बम्बई और सारा समन्दर चाँदनी में किसी फ़िल्म का सेट लगता है, जैसे एक बार पवई में हम चाँदनी में नहाये थे। पिछले इतवार मैं दिन भर घर पर रहा था और अपनी 'घोस्टेस' के साथ ताश खेलता रहा था और शाम को उसी के साथ बान्द्रा चला गया था। फिर जुहू और अन्त में सान्ताक्रूज, जहाँ हमने कॉफी पी थी और जूकबाक्स पर एक रिकार्ड बार-बार सुना था : 'वेयर डिड अवर लव गो?' बान्द्रा में एक जगह 'बैंड स्टैंड' मुझे बहुत पसन्द आयी। हम आखीर तक गये, समुद्र को छूकर लौट आये, जहाँ वह एक टूटे-से किले की दीवारों से पागलों की तरह टकरा रहा था...'

इस तरह के पत्र लिखते रहने के कुछ ही दिनों बाद सुदर्शन के लिए बम्बई बम्बई न रही, घर हो गयी। शाम को गाडिय़ों में धक्के खाते हुए वह घर लौट आता है। सामने के फ्लैट में पारसी बुढिय़ा सिगरेट पीते हुए खाना पकाती है और बस रुकने और बस चलने की घंटियों की आवाज़ के बीच पीटर रात देर तक इलेक्ट्रिक गिटार बजाता है : 'आई वांट टु होल्ड योर हैंड...!' यह शहर मेरा नहीं है या मैं इस शहर का नहीं हूँ या यह शहर किसी का नहीं है।

वर्षों के जद्दोजहद के बाद सुदर्शन ने बम्बई के गज़ल संसार में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। इस संघर्ष में उसने अपनी प्रेमिका को खो दिया यानी माँ-बाप की पसन्द से शादी करने की अनुमति दे दी। आज उसके पास सबकुछ है, अन्धेरी में फ्लैट, ड्राइवर, गाड़ी, बीवी, प्रेमिका, बेटा, शोहरत। उसके रिकार्ड बेस्ट सेलर हैं और तीसरे पन्ने पर अकसर उसका चेहरा दिखाई देता है।

सफलता ने उसे यूरोप तक पहुँचा दिया और एक दिन वह वहीं का होकर रह गया। अब वह ब्रिटेन का नागरिक था और कभी कभी भारत लौटता था।

बम्बई से चल कर मुम्बई तक

सुप्रिया को देखकर सुदर्शन को धक्का-सा लगा। वह शायद उसे उसी रूप में देखना चाहता था, जैसा चालीस बरस पहले देखा था। उसकी वही छवि उसके दिलो-दिमाग में बसी हुई थी। दुबली-पतली छरहरी सुप्रिया। चश्मा वह अकसर आँखों पर से उठाकर माथे के ऊपर हैट की तरह पहन लेती थी। सुदर्शन उसे तब से जानता था जब उसके पर्स में सिवाय रूमाल के कुछ नहीं रहता था। कई बार सुप्रिया को रानडे रोड से दादर तक पैदल लौटना पड़ता था। अगर उसके पर्स में साठ पैसे होते, तो वह टैक्सी में ही लौटती, वरना सुदर्शन छोड़ आता।

मुम्बई के लिए रवाना होने से जरा पहले सुप्रिया का फोन आया कि वह स्टेशन से टैक्सी लेकर वर्ली पहुँच जाए, उसके दोनों ड्राइवर छुट्टी पर हैं। दादर से वर्ली जाते हुए वह सोच रहा था कि चालीस बरस बाद भी दादर के टैक्सी ड्राइवरों की लम्बे रूट से ले जाने की आदत नहीं बदली। उसने यह बात टैक्सी ड्राइवर से भी कह दी। सरदार जी ने पीछे मुडक़र उसकी तरफ देखा और बोले, “तुसीं पहलाँ क्यों नईं दसिया।” उसने शार्टकट के लिये टैक्सी एक गली में घुसा दी। सुदर्शन इस गली को भी पहचानता था। यहीं नमकीन की एक दुकान हुआ करती थी, जहाँ अब कैमिस्ट की दुकान थी।

दरवाजा सुप्रिया की बिटिया ने खोला। जींस और टॉप पहने हुए थी। लगा कि जिस्म कुछ ज्यादा ही नुमायाँ हो रहा है। वह दरवाजा खोलकर सुदर्शन के आगे-आगे चल दी। ड्राइंगरूम में सोफे की तरफ इशारा करते हुए उसने अँग्रेजी में कहा कि उसके सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है, वह उसे क्षमा करें। उसने नन्हे-से कुत्ते को, जो उसके पैरों के पास गोद में आने को मचल रहा था, बाँहों में उठा लिया और अपने कमरे में घुस गयी।

अचानक सुदर्शन को बहुत तन्हाई महसूस हुई। रसोई में किसी व्यंजन को छौंक दिया जा रहा था, जिसकी गन्ध बाहर तक आ रही थी। सुदर्शन ने उठकर बालकनी की तरफ देखा। समुद्र शान्त था। कुछ लोग समुद्र के किनारे बनी बेंचों पर अभी तक बैठे थे। कुछ बच्चे सींगदाना बेच रहे थे। उसे याद आया, जब सुदर्शन ने मुम्बई छोड़ी थी, तब भी बूढ़े पारसी इसी तरह टकटकी लगाये समुद्र को देखा करते थे। टी.वी. खुला था और उस पर एम.टी.वी. का कार्यक्रम चल रहा था। नंगधड़ंग लड़कियाँ नाच रही थीं। सुदर्शन को ईष्र्या हुई, कितनी खुश हैं ये लड़कियाँ! उसे तो जीवन में कभी इतनी खुशी नसीब न हुई थी। यह भी लगा कि जैसे सुप्रिया की बिटिया ने टी.वी. में से निकलकर दरवाजा खोला था और अब दुबारा उसी में समा गयी हो।

एक मोटी-सी नौकरानी, जिसने लाँगदार धोती पहन रखी थी, सुदर्शन के सामने काँच के टॉप वाली मेज पर पानी का एक गिलास रख गयी। सुदर्शन को लगा कि यह घर मकान में तब्दील हो चुका है। पिछली दफा बीसियों बरस पहले जब वह पहली बार वर्ली के इस नये घर में आया था तो उसे देखते ही सम्पूरन उसकी तरफ लपका था। उसे वह अपने बार में ले गया था। वह जानता था सुदर्शन की सबसे अधिक दिलचस्पी इसी में हो सकती है। सबसे अधिक कहना तो मुनासिब न होगा, सबसे पहली कहा जा सकता है। “यह पिओ, मस्त हो जाओगे, तुम्हारे लिये ही रखी हुई थी।” उसने सुदर्शन की सहमति मिलने से पहले ही सुदर्शन का और अपना पैग बना लिया और बोला- चियर्स! सुदर्शन अभी गिलास खत्म भी न कर पाया था कि वह उसे लगभग घसीटते हुए अपनी वार्डरोब की तरफ ले गया। “जो सूट पसन्द हो, पहन लो।” वह बोला और हैंगर उतारकर सूट दिखाने लगा।

“मेरी बाँहें और टाँगें बहुत लम्बी हैं।” सुदर्शन ने कहा, “अभिताभ बच्चन के साइज का कोई सूट हो तो दिखाओ।”

“बस वही नहीं है।” उसने बाहर समुद्र की ओर देखते हुए कहा था, “मगर उसके लिये तुम्हें कुछ दिन और इन्तजार करना पड़ेगा।”

वह सुदर्शन की कमीज के बटन खोलने लगा, “यह टीशर्ट तुम्हारे ऊपर बहुत खिलेगी। अभी पहनकर दिखाओ। मेरे सीरियल में नसीरुद्दीन शाह ने पहनी थी।”

सुदर्शन टीशर्ट पहचान गया। उसने वह सीरियल देखा था।

“पतलून भी उतार दो, तुम्हें बरमूडा दिखाता हूँ। मैं इटली से लाया था।”

“पतलून मत उतरवाओ। मुझे अभी दूसरे लोगों से भी मिलने जाना है। बरमूडा पहनकर नहीं जा सकता।”

“आज तुम कहीं नहीं जा सकते।” उसने सुप्रिया को आवाज दी, “देखो सुप्रिया, यह जाने के लिए कह रहा है।”

ऊँची एड़ी की जूती पहने सुप्रिया खटखट करती चली आयी, “उसके कहने से क्या होता है! सम्पूरन मला प्यायला काही पण नको, मैं आई से मिलने जाऊँगी। सुभाष चा फोन आला होता, आई को बहुत तेज बुखार हो रहा है।”

“हम तीनों चलते हैं।” सम्पूरन ने कहा।

“नहीं, सुदर्शन थका होगा।”

सम्पूरन ने उसके हाथ में गिलास थमाया और बोला, “पीकर खत्म करो। पहला पैग तो एक घूँट में पीना चाहिए।”

उसने सचमुच एक घूँट में गिलास खाली कर दिया था।

आज सम्पूरन नहीं था। सामने दीवार पर उसकी तस्वीर टँगी थी। उसी तरह मुस्कराते हुए, जैसे अभी तस्वीर से बाहर निकल आएगा, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

सुदर्शन के सामने पानी का गिलास पड़ा था, वह ऐसे ही पड़ा रहा। नौकरानी ने चाय का एक प्याला गिलास की बगल में रख दिया। सुप्रिया अभी तक प्रकट न हुई थी। सुप्रिया के कई बार फोन करने के बाद वह चौबीस घंटे ट्रेन में बैठकर आया था और अब वही अनुपस्थित थी। उसकी बिटिया भी बड़ी बेरुखी और औपचारिकता से सर दर्द का बहाना करके वहाँ से हट गयी थी। लगता है, उसके बारे में उसे ज्यादा जानकारी नहीं थी। वह उठकर बाल्कनी में चला गया। समुद्र की तरफ से हवा का भरपूर रेला उसकी तरफ आया और जैसे उसे भिगोते हुए निकल गया। हवा की ये अदृश्य लहरें थोड़ी-थोड़ी देर बाद उसे भिगो जातीं। ड्राइंगरूम में छौंक की जो सुगन्ध आ रही थी, वह बाल्कनी तक नहीं पहुँच पा रही थीं। जितना वह सम्पूरन को जानता था, वह छौंक की इस गन्ध को बर्दाश्त ही नहीं कर सकता था। उसने जरूर किचन में एग्जास्ट लगाया होगा और अब उसके जाने के बाद लगता है उसे कोई इस्तेमाल नहीं करता होगा। उत्सुकतावश वह यह देखने के लिए कि रसोई में एग्जास्ट लगा है कि नहीं, रसोई की तरफ बढ़ गया। सुप्रिया की नौकरानी फ्रिज खोलकर खड़ी थी और उसके साथ सट कर खड़ा नौकर उसकी चोली का सेफ खोलकर नकदी गिन रहा था। उसे देखकर वे दोनों सकपका गये और वह बगैर एग्जास्ट देखे वहाँ से हट लिया और दुबारा बाल्कनी में आकर खड़ा हो गया।

“यह नारायण ऐसीच मुझे परेशान करता। माताजी कू बताएँगी तो इसकी नौकरी छूट जाएँगी।”

“बाई तुमको किस नाम से बुलाते?”

“लक्ष्मी।” उसने कहा।

“लक्ष्मी हम चाय अलग-अलग पीता। दूध अलग, चीनी अलग, चाय का पानी अलग।”

“ऐसा पैले कायकू नईं बोला।” मुझे विश्वास में लेकर वह तुरत रसोई में घुस गयी।

बालकनी में दोनों छोरों पर प्लास्टिक की एक रस्सी बँधी थी और उन पर कपड़े सूख रहे थे, ज्यादातर अन्त:वस्त्र। कुछ कपड़े एक बच्चे के थे। सुदर्शन ने देखा उसके सर के ऊपर चड्डियाँ, ब्रेसियर, शमीज वगैरह सूखने के लिए फैलाये हुए थे। उनकी तरफ देखना तो दूर उनके नीचे बैठना भी उसे नागवार गुजर रहा था। वह वहाँ से हट गया। समुद्र भीगी बिल्ली की तरह शान्त पड़ा था।

सुदर्शन ड्राइंगरूम में लौट आया। मेज पर अंग्रेजी का अखबार पड़ा था, एकदम अनछुआ। अभी तक किसी ने खोला भी नहीं था। सुदर्शन ने अखबार खोला, वह ऐसे खुला जैसे स्टार्च लगा कपड़ा खुलता है। वह शहर की सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी हासिल करने के लिए स्थानीय विज्ञापन पढऩे लगा। यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि एक साथ कई नाटकों के विज्ञापन थे। हिन्दी और ज्यादातर मराठी नाटकों के। नाटकों के नाम काफी बाजारू लग रहे थे। महसूस हुआ कि बाजार ने नाटकों पर भी हमला बोल दिया है। कम्प्यूटर व्यवसाय से जुड़े बहुत से विज्ञापन थे। लेमिंग्टन रोड के आसपास ही कहीं कम्प्यूटर हार्डवेयर साफ्टवेयर की मार्किट थी। उसे सम्पूरन का पहला दफ्तर याद आ गया।

नौकरानी ट्रे में चाय बनाकर ले आयी। उसने ढक्कन खोलकर भाप से चाय के फ्लेवर का जायज़ा लिया। उसकी मनपसन्द पत्ती की चाय थी। वह जब तक चाय का पहला घूँट भरता, सुप्रिया प्रकट हुई। उसे देखकर सुदर्शन को धक्का-सा लगा। आँखों के अलावा वह पूरी बदल चुकी थी, आँखों के नीचे भी मांस की छोटी-छोटी थैलियाँ-सी लटक रही थीं। बार-बार फेशियल कराने से चेहरा जैसे छिल गया था। गाल फूल गये थे। दाँत समतल हो गये थे जबकि पहले जरा-सा उठे रहते थे। शायद ये नये दाँत थे और बहुत ही करीने से जबड़े में बैठा दिए गये थे। शायद इसी प्रक्रिया में मसूढ़े कुछ और नुमायाँ हो गये थे। यानी पहले दाँत नुमायाँ रहते थे और अब मसूढ़े। बाल मेहँदी रंग के थे मगर जड़ों के पास सफेद रंग की छोटी-सी झालर इस बात की चुगली खा रही थी कि एक सप्ताह से बालों की डाई नहीं हुई है। उसने अनुभव किया, जिस शख्स के दाँत बदल जाते हैं, उसका पूरा व्यक्तित्व बदल जाता है। उसकी हँसी बदल जाती है, तमाम मुख मुद्राएँ बदल जाती हैं। एक बेगानापन उन दोनों के बीच पसर गया। केवल दाँतों के बदल जाने से एक दूरी आ गयी थी। राम जाने, और क्या-क्या तब्दीलियाँ आयी होंगी इस बीच! वह तो पहले झटके में ही चित्त हो गया।

सुप्रिया ने भी सोचा होगा कि वह नये माहौल में अजनबी महसूस कर रहा है। बोली “अय्या हे काय? सोचा था, इतने बरसों बाद मिलोगे तो बहुत गर्मजोशी से मिलूँगी। हम लोग तो ऐसे मिल रहे हैं जैसे रोज ही मिलते हैं।”

“चलो फिर से मिलते हैं।” सुदर्शन ने कहा और उसे बाँहों में भर लिया। उसकी बाँहों का भी दबाव महसूस हुआ।

“तुम्हारे बाल तो वैसे ही काले हैं।” वह बोली।

“मैंने इतनी रम पी कि बाल उसी में रँग गये।”

“सम्पूरन के बाल भी तुम्हारी तरह काले थे। अगदी खरं आहे।”

“वह मेरा हमप्याला था।” सुदर्शन ने कहा।

“तुम्हारे आने की खबर मिली तो सोचा, पार्लर हो आऊँ, पण जाहु दे। आज दोपहर को जाऊँगी।”

“उससे अच्छा है, कहीं और चलें।”

“तो क्लब चलते हैं। चला न।”

“क्लब में मेरी दिलचस्पी नहीं।”

“मेरी सारी सामाजिकता क्लब तक सीमित हो गयी है।” उसने अँग्रेजी में कहा।

“ए ताँ चंगी गल नईं।” उसने जानबूझ कर पंजाबी में कहा। सम्पूरन के साथ रहने से वह पंजाबी सीख गयी थी, मगर सम्पूरन मराठी न सीख पाया था। मराठी के कुछ शब्द उसे बहुत पसन्द थे, जैसे लौकर। सुप्रिया को तैयार होने में देर लगती तो वह तब तक लौकर-लौकर कहता रहता, जब तक वह चल न देती। एक शब्द उसे और बहुत अच्छा लगता- घासलेट यानी मिट्टी का तेल। बटाटा काँदा या आलू प्याज तो महाराष्र्उस में रहने वाला हर शख्स सीख जाता है, सम्पूरन भी सीख गया था।

“दफ्तर कब जाती हो?”

“दुपारी म्हणजे दोपहर को थोड़ी देर के लिए जाती हूँ। तब तक स्मिता दफ्तर देखती है।” स्मिता उसकी बड़ी बिटिया का नाम था।

स्मिता का जिक्र आते ही वह दो बड़े-बड़े अल्बम उठा लाई- “हा स्मिताच्या लग्नाचा एलबम आहे।”

अल्बम देखना सुदर्शन को कभी अच्छा नहीं लगता। जब आप अल्बम देखते हैं तब तक लोगों के चेहरे बहुत बदल जाते हैं। अब अल्बम के पन्ने पलटना उसकी विवशता हो गयी थी। वह अल्बम में दिलचस्पी दिखाने का अभिनय करता रहा और पीछे से सुप्रिया की रनिंग कमेंट्री चलती रही। उसे अपने परिचित चेहरे बहुत कम दिखाई दिए। ऐसे कई चेहरे जरूर दिखे जिन्हें बड़े और छोटे पर्दे पर देख चुका था। फ़िल्म जगत की कई नामी-गिरामी हस्तियाँ थीं। विज्ञापन जगत से जुड़े कई दिग्गज थे। अभी बहुत से चित्र देखने बाकी थे और उसे ऊब होने लगी। अल्बम में कैद एक से एक सुन्दर चेहरे भी उसे न बाँध सके। वह बहुत बेमन से अल्बम के पन्ने पलटता रहा। बीच-बीच में सुप्रिया ने अनेक बार बिटिया को आवाज दी, मगर वह बाहर न आयी। आखिर सुप्रिया खुद उठकर उसके कमरे में गयी और लौटकर बोली, “बच्चों ने हम लोगों का संघर्ष नहीं देखा। इन्हें सबकुछ प्लेट में सजा-सजाया मिला है। ये हमारे संघर्ष के बारे में कुछ जानना भी नहीं चाहते। याचं फार दुख बाटने।”

“छोटी बिटिया का नाम मैं भूल रहा हूँ।”

“शालिनी।” उसने कहा और कुर्सी से पीठ टिकाकर आँखें बन्द कर लीं। बिटिया से बात करके वह कुछ शिथिल पड़ गयी थी।

“मैं चाहती थी, जितने पन्ने तुमने लिखे हैं, वे हम सब लोग साथ-साथ सुनें। इसीलिए मैंने शालिनी को बुला रखा था। स्मिता भी दफ्तर से सीधी घर आएगी। नरेश और सूरज को भी बुलाया था, मगर वे लोग कहाँ आ पाएँगे।”

“मैं यह सब सुनाने नहीं आया हूँ। आपका फोन न मिला होता तो शायद आपको खबर भी न लगती कि मैं सम्पूरन को केन्द्र में रखकर एक उपन्यास लिख रहा हूँ।”

सुप्रिया को तुरत अपनी चिन्ता हो गयी, “त्यात माझा पण उल्लेख असेल।”

“तुम्हारे बगैर यह सम्भव ही नहीं।”

“तुम मेरे बारे में बहुत कम जानते हो।”

“उतना ही जानता हूँ, जितना देखा था।”

उसने अँगुली का एक पोर दिखाते हुए कहा, “बस एवढंच। कैसे लिखोगे?”

“मैं सम्पूरन की जीवनी तो लिख नहीं रहा। जहाँ-जहाँ गैप नजर आएँगे कल्पना से भर लूँगा।”

“तुम्हाला माहीत आहे, मेरे मामा और नाना स्वाधीनता सेनानी थे?”

उसने सर हिलाकर बताया- नहीं।

“मेरे नाना का पुणे में प्रेस था, जो सरकार ने सील कर दिया था।”

“अरे! तो तुम स्वाधीनता सेनानी की नातिन हो?”

“और क्या?” वह गर्व से फूल गयी, “तुम्हें तो यह भी मालूम न होगा कि मैं सम्पूरन से मिलने से पहले नाटकों में काम करती थी।”

“मेरे लिए यह जानकारी भी नयी है।”

“यह तो मैंने अच्छा किया जो फोन करके बुला लिया वरना तुम्हारा उपन्यास गलत हो जाता। उसमें तथ्यों की भयंकर भूलें हो जातीं।”

“उपन्यास में सब चलता है। उपन्यास इतिहास नहीं होता। उसमें व्यक्ति एक छाया बनकर रह जाता है और कई बार छाया व्यक्ति बन जाती है।”

सुदर्शन की बात उसके पल्ले नहीं पड़ रही थी, वह बोली, “मेरे बारे में तुम वही सब लिख डालते जो तुमने देखा था। लोग मेरे बारे में गलत धारणा बना लेते।”

“लोगों को पता ही न चलेगा कि मैंने आप पर लिखा है। उपन्यास में आपका नाम भी दूसरा होगा।”

“इससे क्या, समझने वाले समझ ही जाते हैं।”

आखिर सुदर्शन ने हथियार डाल दिए और तय किया कि इसे उपन्यास छपने की सूचना भी न देगा। अब वह कुछ भी सुनने को तैयार था। उसने जेब से एक डायरी निकाली और अपने काम की चीजें नोट करने लगा।

“तो कब से पाठ शुरू करोगे? आज शाम से ही किया जाए, मेरे पास चियान्ती रखी है। चला बालकनीत बसून ऐकतेय।”

“आप खुद पढ़ लें तो बेहतर होगा।” सुदर्शन ने बहाना किया, “मैं किसी को पढक़र नहीं सुनाता, मेरी साँस फूलने लगती है।”

“हाथ का लिखा है? खरंच।”

“हाँ।”

“तब तो मुश्किल होगी।” वह कुछ सोचते हुए बोली, “मैं दफ्तर भेज देती हूँ, कम्प्यूटर से टाइप हो जाएगा। वैसे मेरे दफ्तर में भी एक स्क्रिप्ट लेखक है- कात्र्तिक, उसकी आवाज भी बहुत अच्छी है। उसे बुलवा लेंगे।”

सुप्रिया ने चपरासी को बुलाकर पांडुलिपि सौंप दी कि दफ्तर में दे आये और कात्र्तिक को फोन मिलाने लगी। कात्र्तिक से उसने सुदर्शन का परिचय कुछ इस तरह से दिया जैसे प्रेमचन्द का कोई अवतार मुम्बई आया हो और उसे आज शाम से गोदान का पाठ शुरू करना हो।

“आप यह सोचकर सुनिएगा कि उसमें सब घटनाएँ और पात्र सही होंगे तो आपको बहुत निराशा होगी। मैंने कल्पना से भी बहुत-सी चीजें बुनी हैं।”

“जहाँ जहाँ भूल होगी मैं सुधार दूँगी।” वह बोली। उसे साहित्य की रचना प्रक्रिया की बुनियादी जानकारी भी न थी।

“आप यह मानकर सुनें कि यह एक खालिस किस्सा है।”

“किस्से को भी ऑथेंटिक बनाया जा सकता है। क्यों?” उसने पूछा।

अब उसे कौन समझाए सत्य का भ्रम भी पैदा किया जा सकता है।

“क्यों नहीं?” सुदर्शन ने कहा, “इसके साथ आप तभी न्याय कर सकेंगी अगर यह मान कर सुनेंगी कि किसी गैर की कहानी सुन रही हैं।”

वह खिन्न हो गयी, “तुम इस बात के लिए जिद क्यों कर रहे हो?”

“ताकि आपको ठेस न लगे। इसमें आपको न सम्पूरन मिलेगा न आप खुद कहीं नजर आएँगी। कहीं कहीं आपकी छवियाँ जरूर दिखेंगी।”

“सचाई लिखने में क्या हर्ज है?”

सुदर्शन बेहद बदजन हो गया, उसने कहा, “आप कूड़मगज हैं।”

“कूड़मगज याचा काय अर्थ असतो।”

यह सम्पूरन का ही शब्द था। वह आजिज आकर इसी शब्द का इस्तेमाल करता था। इसका यही एक मतलब उसकी समझ में आता था कि कूड़मगज ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जिसके मगज यानी दिमाग में कूड़ा भरा हो। वह सुप्रिया को आहत नहीं करना चाहता था, उसने कहा, “कूड़मगज उस महिला को कहते हैं जो बहुत जिद्दी हो।”

कूड़मगज का अर्थ सुनकर वह प्रसन्न हो गयी। हो सकता है उसे जिद्दी का भी अर्थ मालूम न हो।

“पहली स्टोरी सिटिंग आज शाम को करेंगे।” उसने कहा।

“आप लोग करें। मैं आज शाम को अपने दोस्त साहिल से मिलने जाऊँगा।”

“ठीक है।” सुप्रिया ने कहा, “दो-तीन सिटिंग में मैं तुम्हारा अब तक का लिखा पढ़ लूँगी।”

“बातचीत आखिर में करेंगे।” उसने कहा। वह नहीं चाहता था कि रोज उसे स्पष्टीकरण देना पड़े। एक दिन में सब निपटा देगा। जरूरी हुआ तो उसके सुझाव स्वीकार कर लेगा। जो स्वीकार न होंगे, उनके बारे में भी बहस में नहीं पड़ेगा।

तभी कॉलबेल बजी। मालूम हुआ, मालिश वाली आई है। मालिश वाली की आमद से सुप्रिया का चेहरा खिल गया। लगा, जैसे उसका कोई चिर प्रतीक्षित प्रेमी आया हो। मालिश वाली के लिबास से लगता था कि वह कोई कोंकण महिला है। वह तीर की तरह सुप्रिया के कमरे में घुस गयी। सुप्रिया उसे एक कमरे में ले गयी। घर के प्रवेश द्वार के सामने ही एक दरवाजा था। वह सोच भी नहीं सकता था कि इसके भीतर इतना बड़ा कमरा होगा। कमरे के बीचोंबीच एक डबल बेड था। बेड की बगल में एक छोटा रेफ्रिजरेटर था। दाहिनी तरफ लकड़ी की वार्डरोब थी और लकड़ी की अल्मारियों का दीवार पर फैला खूबसूरत पैनल। सुप्रिया ने वार्डरोब की चाबी उसे सौंप दी। मालिश वाली की वजह से वह स्फूर्ति से भर उठी थी। वह बाहर निकल गयी। उसके पीछे धीरे-धीरे दरवाजा अपने आप बन्द होने लगा। सुदर्शन बाथरूम में घुस गया। उसके लिए नया तौलिया, नया साबुन, नया शैम्पू। हर चीज नयी। उसे बेतरह सम्पूरन की याद आयी। वह नयी चीजों का दीवाना था।

दफ्तर की कैंटीन में एक बार दक्षिण भारत से कॉटन की रंगीन कमीजें आयी थीं, ब्लीडिंग रंगों में। जितनी बार धुलने के लिए बाल्टी में डाली जातीं, बाल्टी का पानी रंगीन हो जाता, जैसे होली के कपड़े धोते समय होता है। इस कपड़े की विशेषता थी कि धुलकर कपड़े का शेड बदल जाता था। सम्पूरन सुदर्शन से मिलने दफ्तर आया हुआ था। कपूर वही शर्ट पहने हुए था। सम्पूरन को कपड़ा भा गया और जब पता चला कि नीचे कैंटीन में ऐसी कमीजें उपलब्ध हैं तो सुदर्शन को लगभग घसीटते हुए कैंटीन तक ले गया। दस-पन्द्रह कमीजें बची थीं, उसने सब पैक करा लीं। इससे भी उसकी तसल्ली न हुई तो अचार, मक्खन और जूस वगैरह पैक कराने लगा।

“इसका भुगतान कौन करेगा?” सुदर्शन ने पूछा।

“तुम करोगे और कौन करेगा?” उसने कहा।

“मेरा तो महीने भर का वेतन कट जाएगा।” सुदर्शन ने बताया।

“कोई वान्दा नहीं।” उसने कहा, “कुछ न कुछ किया जाएगा।”

उसने जमकर खरीदारी की। डेढ़ दर्जन कमीजें, मक्खन, चीज, बेडशीट्स, फ्रूट जूस के लगभग तमाम फलों के डिब्बे, टोमैटो कैचअप, साबुन, चाय पत्ती वगैरह-वगैरह।

“यहाँ विस्की-शिस्की नहीं मिलती?”

कैंटीन का मालिक हँसने लगा।

“सब पैक कर दो बादशाओ।” उसने कैंटीन के मालिक के कन्धे पर धौल जमाते हुए कहा, “मेरा दोस्त जब इस कम्पनी का बड़ा अफसर हो जाएगा तो तुम्हारी कैंटीन में सामान नजर न आएगा।”

“सम्पूरन अब अगले महीने मुझे तनख्वाह न मिलेगी।” सुदर्शन पैकेट उसके हवाले करते हुए कहा।

“कोई वान्दा नहीं, अभी तो आठ तारीख है। मुझ पर भरोसा रखो।” सम्पूरन ने कहा और सामान की थैलियाँ उठाये लिफ्ट के सामने जा खड़ा हुआ।

कोई एक घंटे बाद हाउस कोट में लिपटी सुप्रिया नमूदार हुई। मालिश के बाद वह बहुत तरोताजा नजर आ रही थी। उसने सरदारों की तरह बालों की गुट्टी बना रखी थी।

“सोचा नहाने से पहले तुम्हारे साथ एक प्याला चाय पी लें।”

“तुम्हारी शादी के एल्बम कहाँ हैं?”

“माहीत नाही कुठ असतील? मुझे तो याद भी नहीं रहा कि मेरी शादी के भी एल्बम थे।”

“मैंने देखे हुए हैं। उनमें मेरी भी बहुत-सी तस्वीरें थीं।”

“खोजवाऊँगी। तब तो मैं भी देखना चाहूँगी।” सुप्रिया बोली, “आज तुमसे मिलकर बहुत-सी पुरानी यादें ताजा हो गयीं। जैसे यही जब तुम पहली बार रानडे रोड आये थे।”

“छुट्टी के दिन दोपहर को सम्पूरन जिन पिया करता था। मेरे पास जिन रखी है। पिओगे?”

“उसकी याद में पी लेंगे।”

“मेरा खयाल है, पहले फ्रेश हो लें। फिर जिन पीते हुए बीते हुए दिनों को याद करेंगे।”

वह बोली और मुस्करायी। वह जब-जब मुस्कराती, सुदर्शन को पुरानी सुप्रिया की हँसी याद आ जाती। उसके थोड़ा आगे को निकले हुए दाँतों की छवि दिमाग में बैठ जाती। सुप्रिया के तमाम भाई-बहनों के दाँत पुरानी सुप्रिया जैसे थे। सम्पूरन एक दिन सुप्रिया की छोटी बहन जूनी को डेंटिस्ट के पास ले गया और उसके दाँतों का कायाकल्प करा दिया। सुप्रिया समझाती रह गयी कि ऐसा मत करो, लडक़ी की अभी शादी नहीं हुई है, मगर वह नहीं माना। उसने कहा, इन दाँतों के साथ वह एयर होस्टेस नहीं बन सकती। बाद में जूनी ने भी एयर होस्टेस बनकर दिखा दिया।

तब तक सुप्रिया ने उसके लिये कमरा तैयार करवा दिया था।

“बेटा, तुम अब फ्रेश हो लो। तुम्हारा कमरा तैयार है। दोपहर में लंच पर मिलेंगे।”

“बेटा?” सुदर्शन ने हैरान होते हुए पूछा।

“प्यार में बेटा ही मेरे मुँह से निकलता है। मैं सम्पूरन को भी कभी-कभी बेटा कह बैठती थी।” वह बोली। उसने अपने दोनों हाथों में उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और उन्हें आँचल में छिपा लिया। उसके तौर-तरीके और जीने का अन्दाज एकदम बदल चुका था। कुछ बातें समझ में आती थीं, कुछ सिर के ऊपर से निकल जातीं।

जो कमरा दिया गया था, वह कभी सम्पूरन दम्पती का बेडरूम था। खुला हवादार कमरा। भरपूर रोशनी। सम्पूरन रोशनी का दीवाना था। घर में घुसते ही सब स्विच ऑन कर देता था। यहाँ तक कि पंखा भी चलने लगता। शायद यही वजह थी कि समुद्र की तरफ खुलने वाली दीवार काँच की थी। मोटे परदे खींच दो तो भीतर बहुत बिन्दास किस्म का झुटपुटा हो जाता था। बहुत ही निजी किस्म की जरूरत पर परदे हिलते होंगे, वरना दोनों तरफ सिकुड़े रहते। डबल बेड के साथ ही एक रेफ्रिजरेटर रखा था। खोलकर देखा, उसमें मिनरल वाटर, बियर, फल वगैरह थे। फ्रिज के ऊपर एक मैट पर एक बियर, जग और काँच के दो गिलास औंधे पड़े थे। बिस्तर के ठीक सामने एक पोर्टेबल टी.वी. था और तकिये पर उसका रिमोट। फ्रिज खोलकर उसने पानी पिया और एक मिठाई के डिब्बे को खोलकर जानना चाहा कि कौन-सी होगी। काजू बर्फी थी, मगर लेस छोड़ चुकी थी। सम्पूरन देखता तो अभी उठाकर डस्टबिन में फेंक देता। हो सकता है सुप्रिया ने बहुत दिनों से फ्रिज ही न खोला हो। लगता है सम्पूरन की मौत के बाद उसने यह बेडरूम भी त्याग दिया है।

वह कुछ देर तक बाल्कनी में खड़ा होकर समुद्र की तरफ देखता रहा। उसका पुराना दोस्त। उसने बहुत समय इसके संग-संग बिताया था। समुद्र के किनारे चलते-चलते कई बार दादर से माहिम तक चला जाता था या उससे भी आगे। उन दिनों समुद्र के तट एकदम साफ रहते थे। बालू भी धुली-धुली लगती थी। गीली बालू पर नंगे पैर दौडऩा उसे बहुत प्रिय था।

स्नान के इरादे से वह टॉयलेट में घुस गया। गीजर ऑन था। बाथरूम में टब था, बाल्टी नहीं थी। उसे शावर के नीचे नहाने में भी वह आनन्द न आता था जो शरीर पर लोटे से पानी डालने पर आता था। वाश बेसिन के सामने हर चीज नयी थी। टूथ पेस्ट, टूथ ब्रश, साबुन, शैम्पू, तौलिया। इलेक्ट्रिक शेवर भी जगह पर पड़ा था। लगता है, सुप्रिया का खयाल था कि वह खाली हाथ मुम्बई आएगा। सुप्रिया को दशहरी आम बहुत प्रिय थे, वह उम्दा दशहरी की एक पेटी लाया था, जो अब भी उसके सामान के साथ पड़ी थी।

नहाते हुए अचानक याद आ गयी रानडे रोड की एक यादों में फँसी हुई शाम। सम्पूरन ने शायद कर्ज लेकर एक पार्टी दी थी। कर्ज की बात इसलिए कि जब सुबह उसने सम्पूरन से कहा कि रेल का पास खत्म हो चुका है तो उसे याद आ गया कि पास के लिए बचा कर रखे पैसों से वह चिकन खरीद लाया था, बोला, “काहे कू घबराता है, मैं आज तुम्हें टैक्सी में दफ्तर छोड़ दूँगा।”

“मुझे ठीक दस तक पहुँचना होता है।”

“आज तुम नौ पचपन पर पहुँच जाओगे।”

उस समय आठ बज चुके थे। न सम्पूरन बाथरूम गया था, न वह। दादर से डबल फास्ट ट्रेन नौ तिरपन पर बोरीबन्दर पटक देती थी, मगर टैक्सी तो कम से कम पौन घंटा लेगी। उसने तौलिया उठाया और तुरत बाथरूम में घुस गया। नहाकर जल्दी ही निकल आया ताकि सम्पूरन को देरी का बहाना न मिले। उसे तो सिर्फ शर्ट पतलून पहनकर पैरों में जूते ठूसने थे, मगर सम्पूरन औरतों की तरह तैयार होता था। बहुत देर तक वह वार्डरोब खोलकर खड़ा रहता- तब कहीं कपड़ों का चुनाव होता। कपड़ों से भी अधिक समय उसे जूतों के चुनाव में लगता। उसके पास जय ललिता से कुछ ही कम जूते थे।

ठीक नौ बजे थे, जब सम्पूरन तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर बैठा। काकाजी आमलेट, टोस्ट, औरेंज जूस का नाश्ता लगा चुके थे। काकाजी दौड़-दौडक़र नाश्ता लगा रहे थे, उन्हें सुदर्शन के समय पर पहुँचने की ज्यादा चिन्ता थी। वह मूक प्रेमी किस्म के इनसान थे। उन लोगों का खाना रिफाईंड तेल में बनता था काकाजी का देशी घी राजस्थान से आता था। काकाजी सुदर्शन के हमराज़ भी थे। कई बार ऐसा भी होता कि काकाजी दालान से उठकर आते तो सम्पूरन और सुप्रिया को नंग-धड़ंग देखकर वापिस लौट जाते। सुदर्शन के लिए भी यह कोई नयी बात न थी। वह सुबह उठता तो दोनों को निर्वस्त्र देखकर चादर ओढ़ा देता। वह दफ्तर से इतना थक कर लौटता और दो पैग लगाकर ऐसी गहरी नींद में सोता कि उसे पता ही न चलता कि बगल के बिस्तर पर क्या हो रहा है। कई बार ऐसा भी हुआ था कि सम्पूरन ने उसे सुझाव दिया कि वह चुपचाप दीवार की तरफ मुँह करके सो जाए। छुट्टी का दिन होता तो अचानक उसे सुझाव देता कि वह इस सुहानी शाम को कमरे में क्यों बर्बाद कर रहा है, इस समय समुद्र हाई टाइड में है वह तट पर भेलपुरी चख आये या नारियल पानी पी कर मस्त हो जाए।

काकाजी कभी-कभी बुज़ुर्ग अभिभावक की तरह सुदर्शन से शिक़ायत करते कि ये लोग बड़ों का भी लिहाज़ नहीं रखते।

सम्पूरन और सुदर्शन चुपचाप नाश्ता कर रहे थे कि ऊँची एड़ी की सैंडिल पहने खट-खट करती सुप्रिया चली आयी। वह भी सम्पूरन की तरह महक रही थी। जैसे किसी बागीचे में अभी अभी कोई खुशबूदार फूल खिला हो।

“नाश्ता?” सम्पूरन ने पूछा।

“क्यों नहीं। तुम्हारे डर के मारे नाश्ता छोडक़र चली आ रही हूँ।”

वह भी नाश्ते में शामिल हो गयी।

नाश्ते के बाद वे तीनों नीचे उतरे। रोड पर ही टैक्सी खड़ी थी। सुप्रिया एक मालकिन की तरह टैक्सी में घुस गयी और सम्पूरन बगल की पान की दुकान की ओर बढ़ गया। उसने पाँच-पाँच-पाँच का एक पैकेट लिया। पानवाले को पैसा देने की बजाय उसका कैशबाक्स उठाकर खँगालने लगा। उसने कैशबाक्स में सिर्फ रेजगारी रहने दी और सब नोट गिनकर अपने खाली पर्स में डाल लिये, “सिर्फ सत्तावन हैं।” पानवाला भी हक्का-बक्का था। सम्पूरन ने टैक्सी का दरवाजा खोला भीतर घुसकर दरवाजा बन्द कर लिया। टैक्सी धीरे-धीरे वर्ली की तरफ सरकने लगी। वर्ली पहुँचकर उसने टैक्सी का भुगतान किया और पाँच पाँच के तीन नोट सुदर्शन को थमा दिया, “तुम आराम से दफ्तर जा सकते हो। अपना रेल पास भी बनवा लेना।”