17 रानडे रोड / अध्याय 3 / रवीन्द्र कालिया

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यह ज़िन्दगी कितनी हसीन थी

सम्पूरन को उम्मीद नहीं थी कि जाते-जाते मिसेज क्लिफ्टन उसे इतना बड़ा तोहफा दे जाएँगी। ब्रिटिश एयरवेज के काउंटर पर उससे विदा लेते ही मिसेज क्लिफ्टन को यक़ायक जैसे कुछ याद आ गया। उसने चमड़े का चमचमाता अपना पर्स खोला और उसके भीतर जितनी हिन्दुस्तानी करेन्सी थी, सब सम्पूरन को सौंप दी। पर्स की हर जेब से नोट निकल रहे थे- सौ सौ के, दस दस के, पाँच पाँच के। अठन्नी, चवन्नी, दुवन्नी, आना, पैसा, धेला सबकुछ उसने सम्पूरन के हवाले कर दिया। पर्स टटोलते हुए दफ्तर की चाबियाँ भी उसके हाथ लग गयीं। उसने कुछ देर तक चाबियों की तरफ देखा और वे भी उसे सौंप दीं, “देखो मैन, दफ्तर का एक कमरा मैंने रख लिया था, उसकी चाबी भी तुम ले लो। टेबल, चेयर और टेलीफोन छोडक़र जा रही हूँ। डॉटर इन लॉ इंडिया आया तो उसको दिखाना। क्लिफ्टन की ग्रेवयार्ड को कभी मत भूलना। ट्वेंटी नाइंथ मार्च को उसका डेथ एनीवरसरी पड़ता है। उम्मीद रखूँ कि तुम इस तारीख को हमेशा याद रखोगे और बुके लेकर पहुँचोगे।”

सम्पूरन ने सामान की ट्रॉली छोडक़र गर्मजोशी से मिसेज क्लिफ्टन का हाथ दबाया। उसका यही अर्थ निकलता था कि वह हमेशा इस तारीख को याद रखेगा। मिसेज क्लिफ्टन की आँखें नम हो गयीं और उन्होंने सम्पूरन के हाथ से सामान की ट्रॉली ले ली और भीड़ में सुरक्षा जाँच के लिये गुम हो गयीं। सम्पूरन विजिटर्स गैलरी की सीढिय़ाँ चढ़ गया। वह जल्द से जल्द अपनी पूँजी गिन लेना चाहता था। उसने काउंटर से एक कॉफी का प्याला लिया और बड़े से काँच के भीतर से हवाई अड्डे का नजारा देखने लगा। कॉफी पीकर उसने सब नोट करीने से रखे। मिसेज क्लिफ्टन बहुत लापरवाही से पैसा रखती थीं। सौ के नोटों के बीच में मुड़ा तुड़ा पाँच का नोट निकल आता और पाँच के नोटों के भीतर से सौ का नोट। कुल 1375 रुपये थे। लगभग इतने ही रुपये उसकी बैंक में भी थे। मिसेज क्लिफ्टन अपनी गाड़ी भी बेच गयी थीं। सुबह तक गाड़ी उसके पास थी। नौ बजे तक चर्चगेट पर गाड़ी शिवेन्द्र कुमार के यहाँ पहुँचानी थी। गाड़ी के एवज में शिवेन्द्र ने मिसेज़ क्लिफ्टन को हीरे से जड़ी अँगूठी और सोने का एक हार भेंट किया था।

सम्पूरन हवाई अड्डे से बाहर आया तो दूर-दूर तक सडक़ें जगमगा रही थीं। उसके सिर के ऊपर से एक जहाज टिमटिमाता हुआ निकल गया। उसने विमान को हाथ से वेव किया, यह जानते हुए भी कि इतनी जल्दी मिसेज क्लिफ्टन का जहाज नहीं उड़ सकता। उसने पार्किंग से गाड़ी निकाली और वर्सोवा की ओर चल दिया। बहुत दिनों से मेरी के यहाँ नहीं गया था। मेरी के यहाँ पीने का आनन्द ही दूसरा था। आज वह उसे अपना जलवा दिखाएगा। पिछला हिसाब भी साफ कर देगा। उसने ठीक मेरी की काटेज के सामने जाकर कार रोकी और हार्न बजाया। पीटर दौड़ता हुआ उसके पास आया, “भोत दिन के बाद तू इदर कू आया। मेरी तुमको भोत याद करती।”

सम्पूरन को मालूम था, मेरी का उसके ऊपर बीस-पचीस रुपये उधार था। मेरी सोच रही होगी कि वह पैसे के कारण मुँह छिपा रहा है, जो कि उसकी फितरत के खिलाफ था। उधार के ऊपर और उधार लेना उसका प्रिय शगल था। उसने इस फन में महारत हासिल कर ली थी।

“पीटर, मेरी बेवकूफ है अगर ऐसा सोचती है। मैं लफड़ों में फँसा था, जाओ, रम भिजवाओ और मेरी को भेजो।” मेरी उसका नाम सुनकर भागती हुई-सी चली आयी- “किदर कू रहा इतने रोज? मेरी को भूलइच गया क्या?” सम्पूरन ने जेब से सौ का नोट निकाला और मेरी की हथेली में रखकर हथेली बन्द कर दी, “कैसीइच हो मेरी?” तभी जूली ट्रे में रम का गिलास ले आयी। जूली बड़ी हो गयी थी। लम्बी भी, वक्ष पर प्रकृति ने शिल्पकला शुरू कर दी थी। सम्पूरन ने उसके बालों पर हाथ फेरा, “स्कूल जाती हो कि नहीं?” मेरी के चेहरे पर कोई भाव न आया। सम्पूरन ने मेरी को दावत दे डाली, “आज का खाना मेरी तरफ से। पीटर को भेजो मेरे पास। अन्धेरी से बिरयानी और मछली मँगवाओ।” सम्पूरन ने जेब से सौ का एक और नोट निकाल कर उसकी मुट्ठी में भींच दिया।

“फ़िल्म में एंट्री मिल गया क्या मैन?” मेरी बगैर सम्पूरन का जवाब सुने 'पीटर-पीटर' पुकारती भीतर चली गयी।

सम्पूरन का मेरी से ज्यादा पुराना परिचय भी नहीं था। एक बार वह स्वर्ण के साथ यहाँ आया था, घरेलू माहौल में पीना उसे बहुत अच्छा लगा था। बहुत से लोग आते थे इस कॉटेज में। सबको सिर्फ पीने से मतलब था, कभी कोई छेडख़ानी नहीं हुई। सम्पूरन का भाग्य ही ऐसा था कि अचानक महिलाओं का उसे भरपूर प्यार मिलता था। शुरू-शुरू में वह नौटांक पीकर लुढक़ गया था, मेरी देर रात तक उसका उपचार करती रही थी, “मैन, तू नौटांक के लिये नहींच पैदा हुआ। रम पिया कर।” रम महँगी थी और सम्पूरन ने फिर नौटांक नहीं चखी थी। वह पीकर लुढक़ने के लिये मुम्बई नहीं आया था, यह जिन्दगी उसके लिये नहीं थी। उसने मेरी से कहा था, कभी चौथा पैग माँगने पर भी उसे मत देना। मेरी उसकी बात से बहुत प्रभावित हुई थी। वह दो पैग पीकर ही उठ आता था। चलो, नाम हो गया पीने का। औरतें कुछ ज्यादा ही भावुक होती हैं, मेरी भी अपवाद नहीं थी। सम्पूरन को देखते ही कहती- “मैन, एक दिन तू बड़ा आदमी बनेगा।” और उसने इस सम्भावना में सम्पूरन में निवेश करना भी शुरू कर दिया था। सम्पूरन ने सोचा, मिसेज क्लिफ्टन तो मेरी से भी बड़ी बेवकूफ निकली। मिस्टर क्लिफ्टन के फ्यूनरल का उसने इन्तजाम क्या कर दिया कि वह उसकी मुरीद हो गयी। घर दफ्तर सब बेच डाला। उसी की राय से। अब जाते-जाते एक कार भी उसके पास छोड़ गयी। अभी उसके पास रात भर के लिये कार है, मगर घर का ठिकाना नहीं। कुछ दिनों में स्वर्ण अँगूठा दिखा देगा। आजकल उसी की लॉज में डेरा जमाया हुआ है। सुबह जब वह ईरानी के यहाँ से चाय लाने को कहता है तो सम्पूरन का तन-बदन जलने लगता। मगर कोई चारा नहीं था उसके पास। स्वर्ण भी दोस्ती में ही यह लिबर्टी लेता है, वरना साले को पटक देता।

घर लौटने के पहले सम्पूरन ने स्वर्ण के लिये भी रम की एक बोतल खरीद ली। कहने को स्वर्ण के लिए जबकि उसे अच्छी तरह से मालूम था कि इसका ज्यादा हिस्सा उसी के काम आने वाला है। सुबह उसे स्वर्ण के सूट की भी जरूरत पड़ेगी। वह चाहता था, सुबह जब शिवेन्द्र से मिलने जाए तो उसकी धजा कम से कम ऐसी रहे कि वह शिवेन्द्र का ध्यान आकर्षित कर सके। शिवेन्द्र ने गाड़ी का सौदा किया है तो जाहिर है आजकल उसकी स्थिति अच्छी होगी। मिसेज क्लिफ्टन ने ही बताया था कि शिवेन्द्र के बम्बई के उद्योगपतियों और सिने स्टारों से बहुत अच्छे ताल्लुकात हैं।

शिवेन्द्र आयकर विभाग में आयकर अधिकारी होकर बम्बई आया था। देखने में अफसर कम, अभिनेता ज्यादा लगता था। शुरू-शुरू में कई प्रोड्यूसरों ने उसे फ़िल्मों में लाने की कोशिश भी की थी, मगर शिवेन्द्र अपनी नौकरी में मस्त था। इंडसकोर्ट वाला यह फ्लैट उसके हाथ एक फ़िल्म फाइनेंसियर ने कौडिय़ों के दाम बेच दिया था। नौकरी के दौरान ही उसे रेस की लत लग गयी थी और वह फुर्सत में बम्बई, पूना और मद्रास जाकर घुड़दौड़ में हिस्सा लेता। उसकी दो नम्बर की ज्यादातर कमाई रेस कोर्स की नजर ही चली जाती थी। रेसकोर्स में पैसे उड़ाकर उसे कोई दुख भी न होता था, जिस रफ्तार से पैसा आता था, उसी रफ्तार से निकल जाता था। उसने उन दिनों बम्बई में एक शब्द सीखा था- कोई वांदा नहीं। सचमुच उसे कोई फर्क न पड़ता था। वह इतवार को अगर दस हजार हारता था तो अगले शनिवार तक बीस हजार जीत लाता था। आयकर विभाग का इतिहास लिखा जाए तो विभाग में घूस का वातावरण निर्मित करने में शिवेन्द्र का अभूतपूर्व योगदान माना जाएगा। जिन दिनों दूसरे अफसर घूस के नाम से घबराते थे, शिवेन्द्र सबके सामने धड़ल्ले से घूस लेता था। उसकी देखा-देखी दूसरे लोगों ने भी साहस जुटाना शुरू किया। शिवेन्द्र घूस लेता जरूर था, मगर लालची नहीं था। वह घूस का इस्तेमाल सिर्फ अपनी तफरीह के लिये करता था।

एक दौर ऐसा भी आया कि उसने घोड़े खरीदने का महँगा शौक पाल लिया। इतवार के इतवार वह घोड़ों की खैरियत जानने पूना जाने लगा। वह दिन भर घोड़ों के बारे में ढेरों साहित्य पढ़ता। दफ्तर का काम अपने ढर्रे से चलता रहा। उसके पास कोई आधा दर्जन घोड़े हो गये और हर घोड़े का कई पीढिय़ों का इतिहास उसकी अँगुलियों पर होता। वह जितना अपने घोड़ों के बारे में जानता था, उससे ज्यादा उसे उनकी वल्दियत और नस्ल की जानकारी थी। उसके ड्राइंगरूम में केवल घोड़ों की चीनी कलाकृतियाँ नजर आने लगीं। कई बार उसे लगता वह अश्व योनि में पैदा हुआ है। एक दिन इन घोड़ों ने उसकी तकदीर बदल दी। वह रूटीन में खेल रहा था और उसे आशा नहीं थी कि एक दिन जैकपॉट उसके हाथ लग जाएगा। एक इतवार उसने पाया वह अचानक मिलियनेर हो गया है। उसने दफ्तर से महीने भर की छुट्टी ले ली और शोभा नाम की एक इंटीरियर डेकोरेटर से पूरे फ्लैट का कायाकल्प करा डाला। उन दिनों शोभा बम्बई के साज-सज्जा संसार की महारानी थी। उसने शिवेन्द्र के घर की ऐसी कलात्मक साज-सज्जा कर दी कि फ़िल्म उद्योग की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ उसका घर देखने आने लगीं। इसी क्रम में एक दिन उसे पता चला सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री शर्मिष्ठा टैगोर उसका घर देखने आने वाली हैं। शिवेन्द्र ने घर में ऐसी दावत आयोजित की कि उस दिन उसका घर आकाश की तरह सितारों से झिलमिलाने लगा।

शिवेन्द्र ने दफ्तर से छुट्टी ली तो फिर दुबारा दफ्तर जाने की नौबत न आयी। वह फ़िल्म उद्योग से कुछ इस तरह से जुड़ता चला गया कि महीने भर के भीतर उसने अपनी फ़िल्म लांच कर दी- 'यह जिन्दगी कितनी हसीन है'। राकेश खन्ना और शर्मिष्ठा टैगोर खुशी-खुशी उसकी फ़िल्म में काम करने को राज़ी हो गये। शिवेन्द्र अपने तन, मन और धन से फ़िल्म प्रोड्यूस करने में जुट गया। उन दिनों श्रीलाल लक्ष्मीलाल के संगीत की बहुत धूम थी। वे दोनों भी फ़िल्म में संगीत देने को तैयार हो गये। चारों तरफ उसकी फ़िल्म की चर्चा होने लगी। आये दिन उसके इंटरव्यू फ़िल्मी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। देर रात तक उसके घर में पार्टियाँ चलतीं। उसकी पार्टियों में फ़िल्मी हस्तियों के साथ-साथ फ़िल्म पत्रकारों की भी भीड़ रहती। पत्रकारों ने उसकी फ़िल्म के प्रति ऐसा क्रेज पैदा कर दिया था कि लग रहा था फ़िल्म के प्रदर्शित होते ही बॉक्स ऑफ़िस के तमाम रिकार्ड टूट जाएँगे। फ़िल्म के प्रीमियर से एक रोज पहले उसने घर पर अभूतपूर्व दावत दी थी। सारी रात फ़िल्म के गाने पृष्ठभूमि में बजते रहे थे। शर्मिष्ठा टैगोर मद्रास में अपनी शूटिंग छोडक़र पार्टी में शामिल होने आयी थीं। उस पार्टी में आर.एस. गौहर भी आया था, वह लगातार फ़िल्म के नाम की पैरोडी करता रहा, यह जिन्दगी कितनी हसीन थी। वह हर बार यही कहता कि, 'यह जिन्दगी कितनी हसीन थी' और ठहाका लगाता। उसके बारे में मशहूर था, वह हर पार्टी में नयी लडक़ी के साथ आता है। आज भी उसके साथ नयी लडक़ी थी, आराधना। वह शायद किसी फ़िल्मी पार्टी में पहली बार आयी थी और पीने में लगातार संकोच कर रही थी। स्लीवलेस ब्लाउज भी शायद उसने पहली बार पहना था, वह बार-बार पल्लू से अपनी बाँहें ढँक रही थी। उसकी खूबसूरत बाँहों पर वेक्सीनेशन के दो गहरे निशान थे, जो छोटे शहर की मध्यवर्गीय लड़कियों का उन दिनों ट्रेडमार्क हुआ करते थे। उस दाग दाग उजाले से वह परेशान थी और शर्मिष्ठा की मरमरी बेदाग बाँहें देखकर वह कुंठित हो रही थी।

शिवेन्द्र ने अपने विभाग के कुछ उच्च अधिकारियों को भी आमन्त्रित कर रखा था, जिनकी उपस्थिति में फ़िल्मी हस्तियाँ अपने को बहुत असुरक्षित महसूस कर रही थीं। फ़िल्म के हीरो ने आयकर आयुक्त जगमोहन को देखा तो उसका मूड बिगड़ गया। पिछले महीने ही जगमोहन के नेतृत्व में उसके घर पर आयकर विभाग का छापा पड़ा था और जगमोहन बहुत बदतमीजी से पेश आया था। जगमोहन की सूरत देखते ही वह उखड़ गया और बीच पार्टी में से उठकर चला गया। इंडसकोर्ट की तमाम लड़कियाँ उसका ऑटोग्राफ लेने के इन्तजार में भीतर बैठी रह गयीं। उसके जाते ही महफ़िल बेनूर हो गयी। शर्मिष्ठा के सेके्रटरी ने उसके कान में कुछ कहा और वह भी घड़ी देखते हुए खड़ी हो गयी। शिवेन्द्र ने बहुत कोशिश की कि वह थोड़ी देर के लिये रुक जाए, मगर उसने किसी की न सुनी। शिवेन्द्र को एहसास हो गया कि उसने आयकर अधिकारियों को इस पार्टी में आमन्त्रित करके भारी भूल की है। पार्टी उखड़ गयी थी और आधी रात को जब पार्टी को पूरे शबाब पर होना चाहिए था, शिवेन्द्र ने देखा कि वह आयकर कार्यालय के कुछ कनिष्ठ अधिकारियों के बीच बैठा है। उसने पार्टी की कमान अपने प्रोडक्शन मैनेजर को सौंप दी और भीतर जाकर सो गया। तीन बजे प्रीमियर था, वह किसी तरह दो बजे उठा और लश्टम पश्टम प्रीमियर में शिरकत करने चला गया।

फ़िल्म दो दिन में पिट गयी। बम्बई के एक दर्जन थियेटरों में फ़िल्म रिलीज हुई थी, सभी जगह सन्नाटा बिछा था। तमाम पत्रकारों ने भी पैंतरा बदला और फ़िल्म की जमकर धुनाई की। शिवेन्द्र को लगा, उसकी स्कॉच के साथ धोखा हो गया। उसने बहुत कीमती उपहार पत्रकारों को दिए थे, मगर किसी ने नमक अदा न किया। पहली ही झोंक में उसकी तीनों गाडिय़ाँ और चार घोड़े बिक गये।

“कोई वांदा नईं।” दुरैस्वामी ने शिवेन्द्र के हौसले बुलन्द रखे, “आठ पर भरोसा रखो। उतार चढ़ाव आते रहेंगे। समुद्र को देखा करो। सीखा करो कुछ उससे।”

“दुरैस्वामी, मैं देनदारियों से आजिज आ चुका हूँ। कुछ दिनों में सडक़ पर आ जाऊँगा।”

“कोई वांदा नईं।” दुरैस्वामी ने कहा, “जून में मिलूँगा तो बताना।”

समन्दर की तरफ खुलने वाली खिड़कियाँ और वह भुतहा फ्लैट

जून की आठ तारीख थी, जब सम्पूरन क्लिफटन की कार की चाभी लेकर इंडसकोर्ट पहुँचा। नौकर ने दरवाजा खोला और उसे लॉबी में बैठा कर भीतर चला गया और कुछ देर बाद उसके सामने दो बिस्किट और एक चाय का प्याला रख गया। लाबी में तीन अखबार उसके पैरों के नीचे पड़े थे, सम्पूरन एक एक कर अखबार पलटने लगा। सुबह-सुबह जब भी समाचारपत्र उसके हाथ पड़ता था, वह वैवाहिक विज्ञापन देखा करता था न नौकरी के, उसे एक अच्छी पेईंग एकोमोडेशन की तलाश थी। समुद्र से बहुत दूर न हो, स्टेशन पास हो तो, दादर से आगे न हो, उसके 'होस्ट' का ज्यादा दखल न हो, जो हर महीने किराया उगाहने में ज्यादा दिलचस्पी न रखता हो।

नौकर पास ही झाड़ पोंछ कर रहा था। वह स्वचालित मशीन की तरह तमाम काम कर रहा था।

“पन्नालाल जी।” सम्पूरन ने उसे आवाज दी।

“कौन पन्नालाल?”

“आपका नाम क्या है?”

“बहादुर।”

“बहादुरजी, साहब कब तक उठते हैं?”

“साहब उठा है। दुरैस्वामी आया है।”

दुरैस्वामी कैसा नाम है, सम्पूरन ने सोचा, कोई फ़िल्म फाइनेंसर होगा। उसे मालूम था कि 'यह जिन्दगी कितनी हसीन है' के पिटने के झटके से शिवेन्द्र अभी तक उबरा नहीं है। बम्बई में उसके उत्थान-पतन की बहुत-सी कहानियाँ प्रचलित थीं। सम्पूरन ऐसे बीहड़ आदमी से मिलना भी चाहता था बहुत दिनों से और आज अनायास ही उसके पास ऐसा अवसर आ गया था।

“पन्नालाल जी, एक चाय और पिलाइएगा?”

बहादुर ने घूर कर उसकी तरफ देखा। एक हाथ में झाडऩ पकड़े और दूसरे से उसके सामने पड़ा प्याला उठाकर ले गया। तभी साहब लोगों की तरह लम्बा हाउस कोट पहने एक लम्बा चौड़ा रुआबदार आदमी कमरे में दाखिल हुआ। उसके एक हाथ में सिगरेट थी और दूसरे हाथ में सिगरेट का डिब्बा था। शिवेन्द्र की शख्सीयत ही कुछ ऐसी थी कि सम्पूरन खड़ा हो गया।

“मिसेज क्लिफ्टन गयीं?” उसने पूछा।

“अब तक तो वह इंगलैंड पहुँच चुकी होंगी।”

सम्पूरन ने उसे कार की चाबी सौंप दी। उसने चाबी ली और आवाज दी, “दुरैस्वामी, एक गाड़ी तो लौट आयी।”

दुरैस्वामी हाथ में एक पोटली लिये हुए कमरे से निकला, “क्या बोला था साब, गाड़ी आ गया न? अभी तो जून है, अगस्त तक देखना।”

बहादुर चाय की ट्रे रखकर जाने लगा, शिवेन्द्र ने कुर्सी पर हाथ थपथपाते हुए दुरैस्वामी को बैठने का इशारा किया और बहादुर से बोला, “यह चाय तुम्हारा बाप बनाएगा?”

“नईं शाबजी, हम बनाएगा।” बहादुर ने पहले टीकोजी हटाकर टीपॉट में चीनी का एक क्यूब डाला। पॉट से चाय की बहुत शिष्ट-विशिष्ट भाप उठी। सम्पूरन को अच्छी चाय की तमीज थी और वह तमीज भी मिसेज क्लिफ्टन के संसर्ग से आयी थी। अकसर वह चर्चगेट स्थित टी सेंटर से दार्जिलिंग की चाय मँगवाया करती थीं। सम्पूरन ने वहाँ चाय के दीवानों की भीड़ देखी थी, कोई दार्जिलिंग की चाय नोश फरमाता था, कोई ऊटी की या कश्मीर की। काउंटर पर चाय बनाना सिखाया भी जाता था। एक बार तो उसने तय किया था कि किसी चाय कम्पनी में टी टेस्टर की नौकरी के लिये कोशिश करेगा। क्लिफ्टन दम्पती के एक रिश्तेदार के कुन्नूर में चाय बागान थे और वे लोग अकसर छुटिटयाँ बिताने वहीं जाया करते थे।

“लीजिये। आपकी तारीफ?” शिवेन्द्र सम्पूरन से मुखातिब हुआ।

सम्पूरन ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया, “खाकसार को सम्पूरन कहते हैं। बन्दे को मिसेज क्लिफ्टन का भरपूर स्नेह प्राप्त था।”

“आपका डेट ऑव बर्थ?”

“26 जनवरी।” सम्पूरन ने कहा, उसने सन् बताने की जरूरत न समझी।

“का बोला था?” दुरैस्वामी बोला, “हम चेहरा देखते ही बता दिया था, आठ नम्बरी है। आजकल गर्दिश में है। मगर बहुत उप्पर जाएँगा, देखते रह जाओगे।”

सम्पूरन को यह सुनना बहुत अच्छा लगा। फिलहाल तो उसके पास रहने का ठिकाना भी न था, सूट भी उधारी का था। उससे रहा नहीं गया, बोला, “फिलहाल एक दोस्त का मेहमान हूँ। वह लॉज में बेड लेकर रहता है। यह सूट भी उसी का है।”

शिवेन्द्र हो हो कर हँसा। उसे पाक-साफ और पारदर्शी लोग हमेशा चमत्कृत करते थे। जबसे उसकी पिक्चर पिटी थी, तमाम दुमुँहे और मतलबपरस्त लोगों ने पीठ फेर ली थी। दुरैस्वामी उसे बहुत दिनों से चेतावनी दे रहा था- श्रीमानजी, झटका लगेगा।

“दुरैस्वामी, शिवाजी पार्क वाले उस फ्लैट ने कोई और झटका दिया?”

“अब किसी की हिम्मत नहीं, वहाँ रहने की। जबसे मधुमालती पागल हुई है, चोर भी उस फ्लैट की सीढिय़ाँ नहीं चढ़ते।”

“आज तक मेरी समझ नहीं आया कि जाडिय़ा जैसे वहमी आदमी ने वह फ्लैट क्यों खरीदा?”

“जाडिय़ा को रखैल के वास्ते मकान की तलाश थी। बड़ा अच्छा-सा नाम था उसकी गर्लफ्रेंड का, तबस्सुम। कोई नहीं जानता, उसने पंखे से लटककर आत्महत्या क्यों कर ली। जाडिय़ा पर भी फालिज गिर गया। मैंने उसे बहुत पहले चेताया था कि इस फ्लैट को कोई आठ नम्बरी ही झेल सकता है। साहब, आप खरीद लो वह फ्लैट।”

सम्पूरन के कान खड़े हो गये। वह जिन हालात में स्वर्ण के यहाँ रहता था, उसे लगा, उससे कोई भी जगह बेहतर होगी। और फिर उसका नम्बर भी तो आठ ही है।

“न बाबा न, मैं तो पहले ही बहुत कमजोर आदमी हूँ। भूत-प्रेत से तो मैं बचपन से खौफ खाता हूँ।”

“मुझे दिला दीजिये वह फ्लैट।” सम्पूरन के मुँह से बेसाख्ता निकल गया।

“फ्लैट तो मिल सकता है, मगर मियाँ सोच लो। उस भुतहे फ्लैट के साथ अब तक बहुत कहानियाँ वाबस्ता हो चुकी हैं। चार-छह तो मर्डर हो चुके होंगे, कोई पागल हो गया तो किसी ने खुदकुशी कर ली। सुनते हैं इस फ्लैट में एक अँग्रेज खातून की रूह का वास है। उसकी रूह जाडिय़ा के सपने में आयी तो उसे फालिज गिर गया।”

“मेरी रूह उस अँग्रेज खातून की रूह से कम परेशान नहीं।” सम्पूरन ने शिवेन्द्र से कहा, “स्वामीजी से कहिये कोई उपाय कर दें।”

“क्यों स्वामीजी?”

दुरैस्वामी ने सम्पूरन की तरफ देखा और बोला, “आठ नम्बरी चलेगा। दादर के कब्रिस्तान में एक छोटा-सा अनुष्ठान करना पड़ेगा।”

सम्पूरन को लगा कि फ्लैट उसको मिल सकता है। वह शिवेन्द्र के शाने दबाने लगा।

“यह क्या कर रहे हो भाई?” शिवेन्द्र ने कहा और सिगरेट का एक लम्बा कश लिया, “जगह तो बेमिसाल है। ठीक समुद्र के किनारे। समुद्र के पानी की बौछारें खाते-खाते खिड़कियों के शीशे टूट चुके हैं। दुरैस्वामी के साथ जाकर पहले फ्लैट देख आओ।”

“आप एक घंटे के लिये कार की चाबी दे दें तो अभी देख आता हूँ।” सम्पूरन ने उसके शाने दबाना जारी रखा।

“यह लो चाबी। दुरैस्वामी, जाओ इनका भी इम्तिहान ले लो।”

सम्पूरन ने चाबी ली और दुरैस्वामी अपना गले में लटकता तावीज सँभालते हुए तुरन्त उठ गया, “चलिये, अभी चलिये।”

सम्पूरन ने दुरैस्वामी को गाड़ी में बैठाया और वर्ली से होता हुआ प्रभादेवी की तरफ चल दिया। समुद्र के किनारे-किनारे गाड़ी ड्राइव करते हुए सम्पूरन को लगा कि उसकी किस्मत पर लगा ताला बस खुलने ही वाला है।

प्रभादेवी से निकलने के बाद दुरैस्वामी ने गाड़ी समुद्र की तरफ मुड़वा दी। सामने समुद्र था, समुद्र से जरा पहले गाड़ी रुकी। दाहिनी तरफ दो कदम बढऩे पर था वह भूतबँगला। समुद्र के किनारे एक उजड़ी हुई इमारत। सीढिय़ों पर जाले लगे थे और धूल की पर्त जमी थी। लकड़ी की सीढिय़ाँ थीं और दीवारों पर जैसे युगों-युगों से पुताई नहीं हुई थी। ऊँची कुर्सी पर बना था वह भुतहा फ्लैट। दरवाजे पर धूल और मकडिय़ों का साम्राज्य था। बीच दरवाजे में एक पुराना बाबा आदम के जमाने का ताला लटक रहा था। ताले के होल में सफेद रंग की पपड़ी जमी थी जैसे किसी मकड़ी का निवास स्थान हो।

“यह है फ्लैट।” दुरैस्वामी बोला।

“चाबी किसके पास है?”

“जाडिय़ा के पास थी। सुनते हैं, उसे फालिज गिरा तो चाबी समुद्र में फेंकवा दी।”

“कैसे खुलेगा?”

“हथौड़ी से।” दुरैस्वामी बोला, “वैसे जाडिय़ा को मैं जितना जानता हूँ वह चाबी फेंक नहीं सकता।”

“हथौड़ी कहाँ मिलेगी?”

“चाबी ही मिल सकती है।” दुरैस्वामी ने कहा, “शनिवार को सूर्योदय के समय भीतर जाना मुनासिब होगा।”

फ्लैट में झाँकने का भी कोई जुगाड़ नहीं था। नीचे आकर उन लोगों ने ऊपर देखा, समुद्र की तरफ चार बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ खुलती थीं। चारों खिड़कियाँ बन्द थीं। चार ही खिड़कियाँ पश्चिम की तरफ भी थीं। नीचे किसी कम्पनी का गोदाम था, उसका दरवाजा बाहर मुख्य सडक़ की तरफ खुलता था।

तय हुआ कि दुरैस्वामी शनिवार को सुबह सूर्योदय के समय सम्पूरन को यहीं मिलेगा। इस बीच वह जाडिय़ा से भी मिल लेगा। दुरैस्वामी को कालबा देवी जाना था, सम्पूरन ने उसे कालबा देवी पर उतारा। दुरैस्वामी कार से उतरकर भीड़ में घुसा ही था, कि गाड़ी बन्द हो गयी। सम्पूरन ने बोनेट खोलकर तार-वार हिलाए, मगर गाड़ी जैसे निष्प्राण हो गयी थी। गाड़ी बीच सडक़ में खड़ी हो गयी थी, आगे पीछे ट्रेफिक जाम होने लगा। सम्पूरन ने गियर न्यूट्रल में डाला और मदद के लिये चारों तरफ निगाह दौड़ाई। किसी के पास फुर्सत न थी। पीछे किसी मारवाड़ी की गाड़ी थी। उसका ड्राइवर उतरा और सम्पूरन की कार के स्टीयरिंग पर बैठ गया, सम्पूरन ने पूरी ताकत लगाकर ठेलकर गाड़ी किनारे कर दी। ड्राइवर ने अपने लिए जगह बना ली थी और सम्पूरन को पेट्रोल चेक करने के लिये कहा और फुर्र से निकल गया। सम्पूरन ने देखा, गाड़ी में सचमुच पेट्रोल नहीं था। यह एक नयी समस्या पैदा हो गयी थी। उसने गाड़ी लॉक की और टैक्सी रोककर पेट्रोल की तलाश में निकल गया।

सम्पूरन पेट्रोल लेकर लौटा तो दोपहर ढल चुकी थी। उसने सुबह से फकत दो प्याला चाय पी थी। अब भूख भी लग रही थी। उसने सोचा गाड़ी शिवेन्द्र के यहाँ पहुँचाकर ही कहीं नाश्ता करेगा। सम्पूरन वहमी और अन्धविश्वासी नहीं था, मगर उसे लग रहा था कि भूतबँगले ने चमत्कार दिखाना शुरू कर दिया है। उस भुतहा फ्लैट को देखने मात्र से ही खाना नहीं मिला था, वहाँ रहने पर क्या होगा! सम्पूरन शिवेन्द्र के यहाँ पहुँचा तो वह बॉल्कनी में बैठा अश्वसाहित्य में डूबा हुआ था। चारों तरफ घोड़ों से सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाएँ बिखरी हुई थीं। वह किसी रिसर्च स्कॉलर की तरह कभी एक किताब उठाता कभी दूसरी। जब तक वह व्यस्त रहा, सम्पूरन उसके पास ही खड़ा रहा। कुछ देर बाद उसने सम्पूरन को देखा और पूछा, “देख आये फ्लैट, बरखुरदार?”

“जी, बाहर से देख आया हूँ।”

“क्या अब भी उसमें रहने का दम भर सकते हो?”

“क्यों नहीं!” सम्पूरन ने कहा, “कॉलिज के दिनों में मैं कई बार शर्त जीतने के लिए आधी रात को श्मशान में टहल आता था। मुझे तो कभी खौफ नहीं लगा।”

“दुरै क्या कह रहा है?”

“उसने शनिवार की सुबह बुलाया है।”

“बेहतर है। मैंने अभी जाडिय़ा से बात की थी।” शिवेन्द्र ने कहा, “उसने बताया कि उसे किसी नजूमी ने बताया है कि फ्लैट में कोई रहेगा तो भूत-प्रेत कम से कम जाडिय़ा का पीछा छोड़ देंगे।”

“क्या मेरे पीछे पड़ जाएँगे?”

“पड़ भी सकते हैं।”

“ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है?” सम्पूरन ने जैसे अपने आपसे पूछा।

“कम से कम यह तो हो ही सकता है कि तुम भी मधुमालती की तरह पागल हो जाओ।”

“मैं तो पहले से ही पागल हूँ। पागल न होता तो अपने बाप का लम्बा-चौड़ा कारोबार छोडक़र बम्बई क्यों चला आता!”

“बहरहाल, बरखुरदार विचार कर लो। मैंने जाडिय़ा से बात की है, पैडर रोड पर कैम्प कार्नर के पीछे रहता है। अभी जाकर मिल लो।” शिवेन्द्र ने अपने पर्स से जाडिय़ा का विजिटिंग कार्ड निकालकर उसे सौंप दिया। सम्पूरन के मन में आया, उनसे गाड़ी फिर माँग ले, मगर आज गाड़ी ने उसे बहुत परेशान किया था, दूसरे गाड़ी लौटाने दोबारा चर्चगेट आना पड़ेगा। उसने शिवेन्द्र का फोन नम्बर भी उसी कार्ड के पीछे लिखा और नमस्कार कर सीढिय़ाँ उतर गया।

क्यों आग से खेलना चाहते हो नौजवान

जाडिय़ा के बँगले के सामने पहुँचकर उसने टैक्सी को रुकने के लिए कहा और चौकीदार से अपना विजिटिंग कार्ड अन्दर भिजवाया। उसी पर उसने लिख दिया केयर ऑव शिवेन्द्र कुमार।

चौकीदार उसे भीतर लिवा ले गया एवं एक अत्यन्त खूबसूरत महिला ने उसे ड्राइंगरूम में बैठाया। सम्पूरन तय नहीं कर पाया कि यह जाडिय़ा की बीवी है या बेटी। अगर यह जडिय़ा की बीवी है तो जाडिय़ा भी अभी जवान होगा। अगर बिटिया होगी तो जाडिय़ा यकीनन खूबसूरत आदमी होगा। ड्राइंगरूम में बेशकीमती कश्मीरी कालीन बिछा था और फर्नीचर की शक्ल-सूरत से ही उसके दाम का अन्दाजा लगाया जा सकता था। किसी सिद्धहस्त इंटीरियर डेकोरेटर की छाप पूरे परिवेश में देखी जा सकती थी। भीतर से चाय चली आयी, जबकि सम्पूरन को बेहद भूख लगी थी। इस समय वह किसी खाने की चीज की माँग भी नहीं कर सकता था। पहला घूँट भरते ही सम्पूरन ने प्याला रख दिया। एकदम ठंडी चाय थी, लग रहा था इलायची और चीनी का जोशांदा है। वह जल्द से जल्द यहाँ से रुखसत हो जाना चाहता था। शिवेन्द्र ने एक झाम और फँसा दिया था कि जाडिय़ा से जो बात हो, उसकी खबर जाकर फौरन देनी थी। उसके बात करने के अन्दाज से ही लग रहा था कि खबर देने के लिए उसे दुबारा चर्चगेट जाना उसकी ड्यूटी में शामिल है। टैक्सी वाले की अलग चिन्ता थी कि वह मुफ्त में इन्तजार नहीं कर रहा होगा। बहरहाल, आज उसकी जेब में पैसे थे।

कोई चालीस मिनट के इन्तजार के बाद उसे एक आदमी बरामदे के रास्ते बेडरूम में ले गया। उसने परदा हटाया। सम्पूरन ने देखा, दो-तीन मोटे तकिये लगाकर एक अधेड़ आदमी बिस्तर पर लेटा हुआ था। लग रहा था, अभी अभी उसकी शेव बनायी गयी है और कपड़े बदले गये हैं। एक तरफ से चेहरा विकृत-सा हुआ लग रहा था।

“मुझे शिवेन्द्र कुमार ने भेजा है।” सम्पूरन ने कहा।

उसने दाहिने हाथ से बैठने का इशारा किया। सम्पूरन कुर्सी पर बैठ गया। बातचीत शुरू होती, उससे पहले ही एक सूटेड-बूटेड नौजवान चैकबुक और दूसरे कागजात लेकर कमरे में दाखिल हुआ।

“आओ।” जाडिय़ा ने कहा। 'आओ' कहने में ही उसका चेहरा थोड़ा विकृत हो गया था, मगर उसकी बात स्पष्ट समझ में आ गयी। उस नौजवान ने जाडिय़ा की पीठ पर एक और तकिया लगाया, मेज पर से चश्मा उठाकर उसे पहनाया, कलम खोलकर हाथ में थमाई और क्लिपबोर्ड में जड़ी हुई चैक बुक का एक-एक पन्ना पलटने लगा। जाडिय़ा बगैर चैक की तरफ देखे मशीनी तरीके से दस्तखत करता रहा। लग रहा था जैसे पूरी चैक बुक पर आज ही दस्तखत करने होंगे। दस्तखत हो गये तो उस युवक ने पैन लेकर कैप चढ़ाई, चश्मा उतारा, अतिरिक्त तकिया हटाया और उन्हें पहले की मुद्रा में लिटा दिया।

“दमयन्ती बेन के दस्तखत पहले लिया करो।”

“जी सर।” नौजवान ने कहा, “दमयन्ती बेन ने ही आपके पास भेजा था।”

जाडिय़ा ने हाथ से इशारा किया, फूटो यहाँ से। वह अदब से बाहर चला गया। जाडिय़ा ने बिस्तर पर रखी घंटी दबायी। कुछ देर में एक सेवक हाजिर हुआ।

“चाय।” जाडिय़ा ने कहा।

“मैं चाय नहीं पीता।”

“क्या पीते हो?”

सम्पूरन ने हाथ जोड़ दिये।

“क्यों मरना चाहते हो?” जाडिय़ा बहुत संघर्ष के बाद इतना ही कह पाया।

“सबको मरना है, सर।”

जाडिय़ा ने सर हिलाया, जैसे कह रहा हो, ठीक बात है, सबको मरना है। कुछ देर सन्नाटा रहा। जाडिय़ा ने फिर घंटी दबायी। वही सेवक फिर हाजिर हो गया।

“दमयन्ती।” उसने कहा।

कोई पन्द्रह मिनट के बाद दमयन्ती कमरे में दाखिल हुईं। यह वही महिला थीं, जिन्होंने उसे ड्राइंगरूम में बैठाया था। वह कहीं जाने के लिए तैयार होकर आयी थीं। वह पहले से भी जवान और सुन्दर लग रही थीं।

“दादर वाला फ्लैट। शिवेन्द्र। बताओ इन्हें।”

महिला जल्दी में थी, फिर भी उन्होंने खड़े-खड़े संक्षेप में इतना बताया कि उसी फ्लैट ने इनकी यह हालत की है। वह भुतहा फ्लैट है। उसमें कितनी दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं। मर्डर, स्यूसाइड, बलात्कार, विक्षिप्तता, मुकदमेबाजी के अलावा इसमें रहने वालों का दिवाला तक पिट चुका है।

“दुरैस्वामी? खुदा बचाये उससे। बहुत खतरनाक आदमी है। वह तो जैसे विधाता का एजेंट है। साक्षात यमदूत। उसी ने हम लोगों को कौड़ी के भाव से यह फ्लैट दिलवाया था। नतीजा देख रहे हैं, मेरे पति तबसे खाट से लगे हैं। जाने उसने इन पर क्या जादू कर दिया है, वह कहेगा तो यह सारी की सारी प्रॉपर्टी आपके नाम कर देंगे। उसने आपको भेजा है, आप जोखिम उठा सकते हैं तो उसमें रहिये।”

जाडिय़ा बीच बीच में बोलने की कोशिश कर रहा था, मगर उस महिला ने उसे बोलने का अवसर ही न दिया। उसने बताया, “ललित को भी उसी ने भेजा था, उसका क्या हश्र हुआ, आपने भी अखबार में पढ़ा होगा। उसी ने शिवेन्द्र को नौकरी छोडऩे की राय दी थी, उसकी फ़िल्म का क्या हश्र हुआ, किसी से छिपा नहीं। मेरी मानिये, उस फ्लैट के चक्कर में मत पडिय़े, आप पर भूत सवार हो चुका हो तो जाइए रहकर देख लीजिए। मैं मैनेजर को फोन कर दूँगी, अभी जाकर लीव एंड लाइसेंस का एग्रीमेंट कर लीजिये। नो पगड़ी, किराया भी फकत इक्यावन रुपये, वह भी धर्मार्थ खाते में ट्रस्ट के नाम। चाबी मैनेजर के पास है, वर्ली में दमयन्ती कन्सट्रक्शन का दफ्तर आपने देखा होगा, एनीबेसेंट रोड पर।”

सम्पूरन समझ रहा था, दमयन्ती बेन जल्दी में हैं और किसी तरह अपनी बात खत्म कर विदा लेना चाहती हैं। जाडिय़ा ने उससे बहुत मुश्किल में संक्षेप में कुछ कहा और दमयन्ती बेन ने वही बात दोहरा दी, “मैं दफ्तर ही जा रही हूँ। इन्हें अपने साथ ही ले जाऊँगी।”

सम्पूरन कहना चाहता था कि उसकी टैक्सी बाहर खड़ी है, मगर क्षणभर को उसके दिमाग में यह बात भी कौंध गयी कि दमयन्ती के साथ जाने का एक लाभ यह होगा कि उसे टैक्सी वाले के नखरे नहीं झेलने होंगे। हो सकता है, यहाँ तक पहुँचने का भाड़ा भी न देना पड़े। बहुत ठगा करते हैं ये टैक्सी वाले, आज उसका करिश्मा भी देख लें। वह दमयन्ती बेन के साथ उनकी गाड़ी में बैठ तो गया मगर उसे रास्ते भर टैक्सी वाले का ध्यान आता रहा। उसने तय किया कि वर्ली से लौटते हुए अगर वह खड़ा मिला तो उसका भाड़ा चुका देगा।

गाड़ी में दमयन्ती बेन ने उसे ड्राइवर के बगल में बैठने का इशारा किया और उससे बात तक करना गवारा न समझा। वह उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँच गया, जो ग्यारहवीं मंजिल पर था। यहाँ पहुँचकर उसने पाया, वही नौजवान बहुत अधिकारपूर्वक अपने कैबिन में फोन पर जुटा था, जो अभी कुछ देर पहले लगभग दोहरा होते हुए जाडिय़ा से चैक पर दस्तखत करवा रहा था। दमयन्ती बेन को देखकर वह खड़ा हो गया। उसने फोन तुरन्त काट दिया और दमयन्ती बेन के सामने सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। दमयन्ती बेन अपने कैबिन में घुस गयीं और वह नौजवान उनके पीछे चल दिया। किसी ने सम्पूरन से बैठने के लिए भी न कहा। कुछ देर बाद वह युवक कैबिन से बाहर आया और बोला, “अरे आप खड़े क्यों हैं? तशरीफ रखें।”

सम्पूरन कुर्सी पर बैठ गया।

“आप शिवेन्द्र साहब को कब से जानते हैं?”

बहुत टेढ़ा सवाल था। सम्पूरन यह बताकर अपना बना-बनाया खेल खत्म नहीं करना चाहता था कि वह अभी सुबह से उन्हें जानता है। उसने निहायत सादगी से कहा, “उनका हमारा तो जन्म-जन्म का साथ है।” सम्पूरन की बात से वह नवयुवक बहुत प्रभावित हुआ। उसने तुरन्त शिवेन्द्र को फोन मिलाया और बताया कि उनका काम आज हो जाएगा।

“कौन-सा काम?” उधर से शायद शिवेन्द्र ने पूछ लिया।

“अरे आप भूल गये, वही दादर वाले फ्लैट का काम।” फिर दोनों ने जोरदार ठहाका लगाया और भूत-प्रेतों का गुणगान करने लगे। सम्पूरन को लगा जैसे वे लोग इस नतीजे पर पहुँच रहे हैं कि किसी की मौत आयी हो तो वे क्या कर सकते हैं! नवयुवक ने शिवेन्द्र को आयकर आयुक्त कार्णिक साहब से हुई बातचीत का ब्योरा दिया और कॉल दमयन्ती बेन के कमरे में ट्रान्सफर कर दी।

“फ्लैट के बारे में तो आप अब तक सबकुछ जान ही चुके होंगे, जहाँ तक एग्रीमेंट का ताल्लुक है, वह घंटे भर में तैयार हो जाएगा, आप तब तक चाय नोश फरमाएँ। एग्रीमेंट पर शिवेन्द्र जी के भी दस्तखत होंगे। आप उनसे दस्तखत करवा कर आज ही दे दें, कल दमयन्ती बेन बच्चों से मिलने लन्दन जा रही हैं। जाडिय़ा साहब का इलाज भी वहीं के डॉक्टर कर रहे हैं, वह भी साथ जा रहे हैं। आप मुआफ कीजिये, मुझे पीछे के तमाम काम समझने हैं, आप पाटिल से बाकी सब समझ लें। अभी वही आपका एग्रीमेंट बनवाकर ला रहा है।”

सम्पूरन के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। जाने सुबह किसका मुँह देखा था कि अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया था। सुबह वह घर से निकला था तो उसकी कल्पना में दूर-दूर तक भी फ्लैट का ख्य़ाल नहीं था और अब यह फ्लैट ऐसा चिपका था कि लग रहा था इसे आज ही मिलना है। लोग पगड़ी की रकम लिये फ्लैट की तलाश में बेहाल रहते हैं और एक उसकी तकदीर है कि फ्लैट साये की तरह उसका पीछा कर रहा है। उसने अपने को डराने की भरसक कोशिश की मगर उसका हौसला इतना बुलन्द था कि उसने शंकाओं पर गौर करना भी मुनासिब न समझा।

मैनेजर की मेज पर इम्पोर्टेड सिगरेट का पैकेट और उसके ऊपर एक खूबसूरत लाइटर पड़ा था। वह उलट-पलटकर लाइटर का जायजा लेता रहा और फिर एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली। लाइटर ने संगीत की ध्वनि के साथ सिगरेट सुलगा दी। सम्पूरन ने तुरन्त लाइटर बन्द कर दिया, जैसे वह उसकी चोरी की दुहाई दे रहा हो। दमयन्ती बेन की कैबिन के आगे मेज पर एक चपरासी ऊँघ रहा था। सम्पूरन को जिज्ञासा हो रही थी कि दमयन्ती बेन भीतर क्या कर रही हैं। क्षणभर के लिए उसके दिमाग में बहुत फोहश किस्म के विचार उठे। इस तरफ उसने ज्यादा कल्पना नहीं दौड़ाई। उसकी बला से दफ्तर का काम करे या भाड़ में जाए। वह जल्द से जल्द यहाँ से भागना चाहता था। और कुछ नहीं तो कम से कम पाव भाजी ही खाने को मिल जाए। उसने बरामदे में डिब्बे वालों को डिब्बा उठाकर ले जाते देखा तो अनुमान लगाया, लंच का समय भी निकल चुका है। तभी एक चपरासी सम्पूरन के पास आया और बोला, “पाटिल बाबू बुलाइत हैं।”

सम्पूरन उठा और उसके पीछे-पीछे चल दिया। पाटिल भोजन के बाद पहला सिगरेट फूँक रहा था। चेहरा सुता हुआ, एक एक हड्डी जैसे अपना आकार बता रही थी। पाटिल ने ऊपर से नीचे तक सम्पूरन को कई बार देखा और उसके चेहरे पर ऐसे भाव प्रकट हुए जैसे बलि के बकरे को देख रहा हो। पूछा, “क्यों भाई, क्यों उठाना चाहते हो यह जोखिम?”

पाटिल के चेहरे पर चिन्ताएँ देखकर सम्पूरन को लगा कि जैसे वह सचमुच अपनी मौत के कागजों पर हस्ताक्षर करने जा रहा है। पाटिल सामने पड़ी फाइल के पन्ने पलटने लगा। वह एक-एक पन्ना देख रहा था और उसके चेहरे पर मुर्दनी की छाया दौड़ रही थी, “मेरा फर्ज है सबको आगाह करना। मैं और कर ही क्या सकता हूँ! मधुमालती को भी मैंने बहुत समझाया था, मगर मेरी कोई नहीं सुनता।” उसने आँख उठाकर सम्पूरन की तरफ देखा, “आप भी न समझोगे, मैं जानता हूँ। बाद में मुझे दोष न देना।”

उसने एग्रीमेंट के कागज सम्पूरन के सामने फैला दिए, “आप भी दस्तखत कर दीजिये। साक्षी के हस्ताक्षर करवा कर चार बजे तक पहुँचा दें, मैं चाबी दे दूँगा।” सम्पूरन ने बहस में पडऩा उचित न समझा, बहस में पडऩे का मतलब था, हत्याओं, आत्महत्याओं और विक्षिप्तताओं की कहानियों की पुनरावृत्ति। उसने फाइल उठायी और पाटिल से हाथ मिलाकर दफ्तर से बाहर आ गया। वह शिवेन्द्र के हस्ताक्षर लेकर चार बजे तक फाइल लौटा देना चाहता था। दमयन्ती विदेश निकल गयी तो मामला कई महीनों के लिये खटाई में पड़ जाएगा। रास्ते में उसने कहीं रुककर नाश्ता करने के बारे में सोचा, मगर उसके पास समय नहीं था। वह वर्ली से टैक्सी लेकर सीधा चर्चगेट की तरफ चल दिया। उसे चिन्ता हो रही थी कि कहीं शिवेन्द्र अब तक घर से न निकल गये हों। इंडसकोर्ट के सामने टैक्सी से उतरकर सीधा दौडक़र सीढिय़ाँ चढ़ते हुए शिवेन्द्र के फ्लैट तक पहुँचा। उसने जल्दबाजी में दो-तीन बार घंटी बजा दी।

दरवाजा शिवेन्द्र ने ही खोला। घंटी के इस फूहड़ इस्तेमाल से वह खिन्न नजर आ रहा था, मगर सम्पूरन को देखकर उसे राहत ही मिली। शायद वह किसी बकायेदार के आने की आशंका से उखड़ गया था। फ़िल्म फेल हो जाती है तो तगादेदार बहुत परेशान करते हैं, वे अपनी पूँजी को लेकर सशंकित हो जाते हैं। जब चिट्ठी-पत्री, टेलीफोन पर वसूली नहीं होती तो दरवाजा खटखटाने लगते हैं। शिवेन्द्र को ऐसे लोगों से घृणा है। उसे विश्वास है जो छुटपुट देनदारियाँ रह गयी हैं, वह उन्हें भी जल्द ही चुका देगा। दो फ्लैट अभी उसने बचा कर रखे हैं। सम्पूरन शिवेन्द्र के साथ-साथ बाल्कनी तक चला अया। बाल्कनी में एक बूढ़ी-सी औरत मोढ़े पर बैठी कोई ज़नाना किस्म की पत्रिका के पन्ने पलट रही थी। उसने सरसरी तौर पर सम्पूरन की तरफ देखा और दुबारा पन्ने पलटने लगी। सम्पूरन को लगा, हो सकता हो शिवेन्द्र की माताजी हों। उसने आदरपूर्वक नमस्कार किया।

“डौली सुनती हो, यही है सम्पूरन जो भुतहा फ्लैट में शिफ्ट होने को आतुर है।” शिवेन्द्र ने सम्पूरन से उसका परिचय करवाया, “माई वाइफ- डौली।”

सम्पूरन ने एक बार फिर हाथ जोड़ दिए और एक नजर फिर उस महिला की तरफ देखा। वह पढ़ी-लिखी सुन्दर महिला थी, अबकी बार उसे उतनी बूढ़ी भी न लगी। चेहरे की त्वचा में अभी खिंचाव था, बाल जरूर सफेद हो गये थे। अगर बाल रँग लेती तो उम्र में दस साल छोटी लग सकती थीं। शिवेन्द्र के तमाम बाल काले थे। सम्पूरन को लगा कि शायद वह युवा दिखने के लिए रँगता है, मगर ऐसा नहीं था, उसकी कनपटियों पर के बाल सफेद हो रहे थे। कन्धे अभी झुके नहीं थे और वह तनकर बैठता था।

“एग्रीमेंट लाये हो? लाओ दो, दस्तखत कर दूँ। जाडिय़ा के पैर कब्र में हैं मगर फ्लैट पर कानूनी हक नहीं छोडऩा चाहता। उसके धर्मार्थ ट्रस्ट का मैं भी ट्रस्टी हूँ।” शिवेन्द्र ने कागजों पर दो-एक जगह अपने दस्तखत घसीट दिए।

“जाडिय़ा आज रात की फ्लाइट से विलायत चला जाएगा। वह जहाज में बैठने से पहले फ्लैट किसी को सौंप देना चाहता है।” शिवेन्द्र ने बताया, “जरूरी नहीं तुम भी वहाँ रहो ही। उससे चाबी ले लो। सोच समझ लो, दुरैस्वामी से राय कर लो, वरना जाडिय़ा लौट आये तो चाबी लौटा दो। वैसे दुरैस्वामी कह रहा था जाडिय़ा जल्द न लौटेगा।”

सम्पूरन ने कागज ले लिये और खड़ा हो गया, “आपका बहुत शुक्रगुजार हूँ। आपने बगैर जान-पहचान के भी मेरे लिए इतनी जहमत उठायी।”

“नेवर माईण्ड।” शिवेन्द्र ने कहा, “कीप मीटिंग।”

“थैंक्यू सर।” कहकर सम्पूरन बाहर निकल आया और सीधा टैक्सी में बैठ गया। उसने तय किया, फ्लैट की चाबी लेने के बाद ही अब अन्न ग्रहण करेगा। चार बज रहे थे, उसे वर्ली पहुँचने की जल्दी थी। दमयन्ती कन्सट्रक्शन के कार्यालय पहुँचकर उसने पाया कि हाल में मीटिंग चल रही थी। सब कुसियाँ खाली थीं। शायद विदेश जाने से पूर्व दमयन्ती बेन सब कर्मचारियों के साथ मीटिंग ले रही थीं। भीतर स्वल्पाहार की व्यवस्था थी और नमकीन तथा मिष्टान्न की तश्तरियाँ लेकर चपरासी लोग बड़ी तत्परता से हाल में जा रहे थे। सम्पूरन को सुबह दमयन्ती बेन के कमरे के आगे बैठा चपरासी नजर आया तो उसने अनुनय के स्वर में कहा, “पाटिल बाबू ने चार बजे बुलाया था। यह चिट उन तक पहुँचा दो।” सम्पूरन ने एक चिट पर 'सम्पूरन, द्वारा शिवेन्द्र कुमार' लिखकर चिट उसे थमा दी और बाहर चपरासी के स्टूल पर ही बैठ गया। कोई दस मिनट बाद वह चपरासी लौटा और उसने सूचना दी कि आप पाटिल बाबू के कैबिन में इन्तजार करें। सम्पूरन ने 'ओ शिट' कहा और पाटिल बाबू के कैबिन में घुस गया। पाटिल बाबू का कैबिन ठंडा था। भीतर पहुँचकर उसे ख्य़ाल आया कि क्यों न स्वल्पाहार कर लिया जाए! उसने कैबिन से बाहर झाँककर देखा, भीतर कॉफी जा रही थी। उसने एक सीटी बजाकर एक चपरासी को बुलाया और कॉफी का एक प्याला उठा लिया, “कुछ खाने के लिए भी दे जाओ।” उसने अधिकारपूर्वक कहा और कैबिन में आकर बैठ गया। उसे उम्मीद थी, चपरासी अभी स्वल्पाहार की प्लेट लेकर हाजिर होगा, मगर वह आधे घंटे तक नहीं आया। कैबिन में सिगरेट का भी कोई पैकेट नजर नहीं आ रहा था। वह नीचे जाकर नाश्ता करने या सिगरेट पीने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहता था। उसे खतरा था कि कहीं इस बीच पाटिल आकर निकल न जाए। उसे कुछ और न सूझा तो सामने फोन देखकर स्वर्ण को फोन मिलाया।

“मैं सम्पूरन बोल रहा हूँ स्वर्ण। सुबह से मेरे साथ विचित्र हादसे हो रहे हैं। मिसेज क्लिफ्टन अपने दफ्तर का कमरा गिफ्ट कर गयी हैं और उम्मीद है घंटे भर में सी-फेस पर एक फ्लैट भी मिल जाएगा।”

“क्या बक रहे हो?”

“ठीक कह रहा हूँ। तुम दफ्तर में इन्तजार करो, मैं फुर्सत पाते ही मिलूँगा। आज ही फ्लैट का पजेशन मिलने की बात है।”

“लगता है तुम्हारा दिमाग चल निकला है।”

“शट अप। मेरा इन्तजार करना, वरना पछताओगे।”

ईंट के नीचे मिली चाबी की लाश

सम्पूरन का एक दोस्त मर्चेंट नेवी में भी था-चन्नी। वह भी आजकल छुट्टी पर आया हुआ था। वह नौ महीने शिप पर रहता था( उसकी पत्नी रेखा को सम्पूरन ने पिछले दिनों एक युवक के साथ जुहू पर स्वीमिंग कास्ट्यूम में देखा था। रेखा ने भी उसे देख लिया था और अगले रोज लंच पर बुलाया था। सम्पूरन लंच पर गया तो उसने खाना खाते-खाते अचानक सम्पूरन का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम कर उससे कसम ली थी कि वह चन्नी से इसका जिक्र न करेगा। चन्नी भी सम्पूरन को अपनी प्रेमिकाओं के बीसियों किस्से बता चुका था। दुनिया में हर जगह उसकी लड़कियाँ फैली हुई थीं। सम्पूरन उसकी बात सुनकर हर बार उससे कहता था, “साले, तुम्हें एक दिन एड्स हो जाएगा।”

चन्नी को विश्वास था कि दुनिया में एड्स नाम की कोई बीमारी ही नहीं है, यह सब बहुराष्रीड्सय कम्पनियों का झूठा प्रचार है। पिछले दिनों लॉज में उसका फोन आया था, मगर सम्पूरन उससे सम्पर्क ही न कर पाया। उसने जेब से अपनी टेलीफोन डायरी निकाली और चन्नी का फोन मिलाया।

रेखा ने फोन उठाया, “रेखा चन्नी।”

“हाय रेखा। सम्पूरन बोल रहा हूँ। तुम्हारा शिपिंग मैगनेट कहाँ है?”

“हाय सम्पूरन।” चन्नी की आवाज थी।

“क्या रिपोर्ट है?”

“काहे की?”

“वही, एच.आइ.वी का क्या हाल है?”

“हट।” चन्नी ने कहा, “शाम को चले आओ। तुम्हारे लिये वाईट रम लाया हूँ।”

“चिकेन विकेन खिलाओ तो आऊँ।”

“तुम भी क्या याद करोगे! काली मिर्च का मुर्गा खिलाऊँगा। रूमाली रोटी लेते आना।”

“ठीक है, इन्तजार करना। सुबह से मुँह में अन्न का एक दाना नहीं गया।” सम्पूरन ने पूछा, “चना कैसी है?”

“मजे में है।” चन्नी बोला।

चन्नी की बेटी का नाम था सना। पड़ोस के बच्चे उसे चना कहते थे। तब से उसका नाम ही चना पड़ गया था।

सम्पूरन ने रिसीवर रखा और तुरन्त अपने नये ऑफ़िस का फोन मिलाने लगा, यह देखने के लिए कि घंटी जा रही है या नहीं। घंटी जा रही थी। वह कागज-कलम उठाकर अपने विजिटिंग कार्ड का प्रारूप तैयार करने लगा। बम्बई में कितने लोग होंगे जिनके पास टेलीफोन नम्बर और सी-फेस पर फ्लैट है। सम्पूरन को मालूम था कि मिसेज क्लिफ्टन जो केबिन छोड़ गयी हैं, उसमें तीन-चार कुर्सी और एक मेज से ज्यादा सामान नहीं आ सकता। वह इसी केबिन में बैठती थीं। एक तरह से यह 'क्लिफ्टन पार्क एंड ली' का रिसेप्शन का कोना था। बरसों से मिसेज क्लिफ्टन ने अपने पति की रिसेप्शनिस्ट का काम किया था।

बम्बई में विदेशी पत्रिकाओं के आयात का उनका लम्बा चौड़ा कारोबार था। वे लोग विश्व की तमाम पत्रिकाओं के एकमात्र वितरक थे। सम्पूरन ने मुश्किल से एक बरस तक उनके यहाँ बतौर असिस्टैंट मैनेजर काम किया था। बम्बई में फर्म के बीसियों प्रतिनिधि थे, सम्पूरन ही उन्हें मानिटर करता था। बहुत से लोग कमीशन के बल पर अपना काम चला रहे थे। हर प्रतिनिधि दिन भर में पन्द्रह-बीस ग्राहक बना लेता था। चैक कैश होते ही उन्हें कमीशन दे दिया जाता था। सम्पूरन के पास यही एक काम था। पिछले एक बरस से क्लिफ्टन दम्पती केवल मार्केट से अपना पैसा उगाह रहे थे। धीरे-धीरे कारोबार को समेट रहे थे। मिस्टर क्लिफ्टन की मौत के बाद मिसेज क्लिफ्टन की इस काम में, इस शहर में, यहाँ तक कि इस दफ्तर में कोई रुचि न रह गयी थी। वह अपने बच्चों के पास इंगलैंड लौट जाना चाहती थीं। अब 'क्लिफ्टन पार्क एंड ली' का अस्तित्व ही समाप्त हो गया था। सम्पूरन ने तय किया, वह अपने छोटे से केबिन से इस फर्म को दोबारा खड़ा कर दिखाएगा। इस बीच इन तमाम पत्रिकाओं की सोल एजेंसी दूसरे लोगों ने ले ली थी। सम्पूरन का उनसे भी परिचय था।

पाटिल की प्रतीक्षा करते-करते उसने तय किया कि शुरू में वह किसी वितरक का सब-एजेंट बन जाएगा। लेकिन ये बाद की बातें थीं। फिलहाल वह पाटिल की प्रतीक्षा में था। उसे लग रहा था, आज का दिन उसके जीवन का महत्त्वपूर्ण दिन साबित होगा। यह तय होते ही कि रात के बढिय़ा डिनर का इन्तजाम हो गया है, वह अपनी फाक़ाकशी भी भूल गया। इस समय उसे सिगरेट की तलब हो रही थी, वह बाहर निकलकर जायजा लेने लगा। मीटिंग शायद समाप्त हो गयी थी, हाल में इक्के-दुक्के लोग नजर आ रहे थे। एक वर्दीधारी चपरासी पास से निकला तो उसने उसे रोका, “कहीं सिगरेट मिलेगा?”

“मिलेगा।” उसने कहा।

सम्पूरन ने जेब से दस का नोट निकालकर दिया, चपरासी ने अपने चोंगे से गोल्ड फ्लेक का एक पैकेट निकाल पर सम्पूरन को दे दिया। सम्पूरन ने जल्दी से पैकेट खोला और एक सिगरेट निकालकर होंठों में दाब ली। चपरासी ने बड़ी चाबुकदस्ती से घासलेट से जलने वाले एक निहायत बदशक्ल लाइटर से उसकी सिगरेट सुलगा दी। सिगरेट के धुएँ के साथ-साथ उसके नथुनों में मिट्टी के तेल का एक भभका भी चला गया। सम्पूरन वहाँ से तुरन्त हट गया। वह कुर्सी पर जा बैठा और लम्बे-लम्बे कश भरने लगा।

उसके सामने अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी थी, उसे बहुत तेज पेशाब लगा था। वह इधर-उधर टॉयलेट के लिए भटकने लगा और कुछ समझ में न आया तो कार्तिक के केबिन में घुस गया। वहाँ भी कोई टॉयलेट न था। उसने एम.डी. के कमरे में झाँककर देखा। कमरा खाली था। कमरे में कालीन, एक बड़ी मेज और कोई आधा दर्जन फोन के अलावा कुछ नहीं था, मगर दाहिनी तरफ एक दरवाजा नजर आ रहा था। वह तेज गति से भीतर टॉयलेट में घुस गया। टॉयलेट सुवासित था। वह जी भर कर हल्का हो लिया। वाशबेसिन पर नया तौलिया लटका था और साबुन की एक चपटी-सी टिकिया पड़ी थी। उसने जल्दी-जल्दी साबुन से मुँह धोया और तौलिये से रगडक़र साफ किया। टॉयलेट के बायीं ओर दीवार में एक खूबसूरत छोटी-सी आलमारी जड़ी थी, जाते-जाते उसने उसके भीतर भी झाँककर देख लिया। वहाँ स्त्रियों के प्रसाधन की सामग्री थी। ऊपर के खाने में सेनेटरी टावल्स के दो-तीन पैक रखे थे, उनके साथ ही कंडोम का एक डिब्बा रखा था। उसने चार छह रंग-बिरंगे कंडोम अपनी जेब में ठूँस लिये कि रात को चन्नी को देगा। टॉयलेट से वह जल्दी में बाहर निकला और सीधे पाटिल के केबिन में घुस गया। पाटिल को अपनी मेज पर सामान समेटते देख उसको बहुत तसल्ली मिली। वह सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। पाटिल ने एग्रीमेंट के कागजात उसके सामने फैला दिये, “पाँच सौ रुपये एडवांस जमा कर दें।”

सम्पूरन ने जेब से पाँच सौ रुपये निकालकर पाटिल को सौंप दिये। पाटिल ने सेफ में रुपये रखे और बोला, “अभी आपको मेरे साथ चलना होगा, चाबी रिसीव करने।”

“कहाँ?”

“शिवाजी पार्क।” पाटिल ने कहा, “एग्रीमेंट पर चाबी रिसीव करनी होगी।”

“मैं कल सुबह आपसे मिल लूँगा। अब आपको भी घर जाना होगा।”

“नहीं यह काम आज ही होना है। साहब का जहाज उडऩे से पहले चाबी आपको सौंप देनी है।”

“जैसी इच्छा।” सम्पूरन ने कहा।

“आप बैठें। मैं तब तक अपना काम समेट लूँ।”

दफ्तर से निकलते-निकलते पाटिल ने छह बजा दिये। दफ्तर से निकलने से पहले पाटिल ने टैक्सी स्टैंड पर फोन कर टैक्सी बुलवा ली थी। वे लोग लिफ्ट से बाहर निकले तो टैक्सी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। पाटिल ने अपना चपरासी बुलाया और उसे पोर्टफोलियो और बहुत-सी फाइलें थमा दीं। चपरासी ने आगे बढक़र टैक्सी का दरवाजा खोला और फाइलें थामकर अगली सीट पर बैठ गया। पाटिल और सम्पूरन पीछे बैठ गये। टैक्सी प्रभादेवी से होते हुए शिवाजी पार्क की तरफ बढ़ गयी। इस समय दफ्तर छूटने का समय था, सडक़ पर गाडिय़ों की तादाद अचानक बढ़ गयी थी और हर गाड़ी दूसरी के पीछे रेंग रही थी।

“एक मिनट गाड़ी रोकिएगा।” सम्पूरन ने सामने स्वर्ण का दफ्तर देखा तो ख्य़ाल आया।

ड्राइवर ने सडक़ के बायीं ओर गाड़ी रोक दी। सम्पूरन बिजली की गति से गाड़ी से कूदकर स्वर्ण के दफ्तर की तरफ लपका। स्वर्ण नीचे दफ्तर के बाहर खड़ा सम्पूरन की प्रतीक्षा ही कर रहा था। सडक़ पार करने से पहले ही उसकी नजर स्वर्ण पर पड़ गयी। उसने दूर से हाथ हिलाया। स्वर्ण की निगाहें सर्च लाइट की तरह चारों तरफ घूम रही थीं। सम्पूरन को देखते ही वह सडक़ पार करने के लिए संघर्ष करने लगा। इस वक्त सडक़ पार करना भी कोई आसान काम न था। सम्पूरन ने उसे सडक़ पार करते देखा तो आकर गाड़ी में बैठ गया ताकि पाटिल बाबू उसे गायब देखकर कहीं उखड़ न जाएँ। स्वर्ण टैक्सी की अगली सीट पर चपरासी के साथ सटकर बैठ गया तो सम्पूरन ने उसे चुप रहने का इशारा किया। टैक्सी रानडे रोड सी-फेस की तरफ मुड़ी तो स्वर्ण देखता रह गया। पाटिल ने समुद्र के किनारे गाड़ी रोक दी और टैक्सी से बाहर निकल आया।

“तुम यहीं बैठो।” सम्पूरन ने स्वर्ण से कहा और पाटिल के साथ-साथ चल दिया।

“आप आग से क्यों खेलना चाहते हैं?” अचानक पाटिल बुदबुदाया और वह छाते का सहारा लेकर एक इमारत के सामने खड़ा हो गया, “तुम्हारे जैसे नौजवान को चाबी सौंपते हुए अपुन का दिल काँप रहा है।”

सम्पूरन ने देखा, आसपास का वातावरण सामान्य था। पान की दुकान पर भीड़ थी। लोगबाग समुद्र के किनारे टहल रहे थे। कोने में ईरानी की दुकान पर गहमागहमी थी, बगल में भेलपूड़ी के ठेले पर रंग-बिरंगी रौनक थी। पास से एक बच्चा कोका कोला की खाली बोतलें थामे निकला तो सम्पूरन ने उसे दस का एक नोट थमाया और बोला, लपक के चार बोतल ला।

“क्या फैसला है आपका?”

“अब तो ओखली में सर दे चुका हूँ।” सम्पूरन बोला, “आपकी चिन्ता की मैं कद्र करता हूँ, वरना बम्बई में कौन किसकी चिन्ता करता है!”

“सडक़ पार करते ही दादर का श्मशान है।” पाटिल ने इशारे से बताया।

“वह सामने मन्दिर भी तो है।” सम्पूरन बोला। क्षणभर के लिए उसे लगा कि क्या भूत फ्लैट के भीतर ही रहता है, बाहर नहीं आता? बाहर आता है, तो ऐन भूतबँगले के अगल-बगल जीवन इतना सामान्य क्यों है!

“चलिये चाबी दिलवा दूँ।”

“एक कोक पी लीजिये।” सम्पूरन ने लडक़े को आते देखा तो दो अँगुलियों से इशारा करते हुए पहले अपना कन्धा छुआ और फिर टैक्सी की तरफ इशारा किया। लडक़ा दो बोतलें थमाकर टैक्सी की तरफ बढ़ गया। सम्पूरन ने स्ट्रा निकालकर फेंक दिया और बोतल मुँह को लगा ली। उसे लगा, वह भूखा ही नहीं प्यासा भी है। उसने एक लम्बा घूँट भरकर डकार लिया और दूसरे-तीसरे घूँट में बोतल खाली कर दी। पाटिल बाबू स्ट्रा की सहायता से धीरे-धीरे बोतल सिप कर रहे थे।

सम्पूरन चाबी हासिल करने को उतावला हो रहा था। पाटिल ने बोतल खत्म की तो उसने चुटकी बजा कर लडक़े को बुलाकर खाली बोतलें उसे सौंप दीं।

पाटिल छड़ी की तरह छाते को टेकता हुआ सामने की इमारत के नीचे के फ्लैट की तरफ इशारा करते हुए बोला, “यही है वह फ्लैट। समुद्र की तरफ से इसी फ्लैट का रास्ता है। बाकी इमारत की एंट्री मुख्य सडक़ की तरफ से है।”

फ्लैट की कुर्सी ऐसी थी कि मुख्य द्वार तक पहुँचने के लिए चार-छह सीढिय़ाँ चढऩी पड़ती थीं। पाटिल दो-तीन सीढ़ी चढक़र रुक गया और फिर उसने सम्पूरन से कहा, “वह ईंटा उखड़ा दिखाई पड़ रहा है, उसे हटाओ।”

सीढिय़ों में अँधेरा था। सम्पूरन ने लाइटर जलाकर दीवार की तरफ देखने की कोशिश की। उखड़ा हुआ ईंटा दिखाई दिया, सम्पूरन की अँगुलियाँ लाइटर की लौ से जलने लगीं। पाटिल ने तुरन्त जेब से एक नन्ही-सी टार्च निकाली, वह टार्च कम की-रिंग थी। पाटिल ने दीवार पर रौशनी का एक वृत्त बनाया। दीवार पर जाले ही जाले थे। एक ईंटा दीवार से उखड़ा हुआ था, उसके ऊपर छिपकली चिपकी थी। पाटिल ने छाते की नोक छिपकली से छुआयी तो उसकी पूँछ अलग होकर नीचे गिर पड़ी, सम्पूरन के पाँव के पास। पाटिल ने दो-तीन बार ईंटें के आसपास ठक-ठक की तो छिपकली बड़ी बेदिली और अनिच्छा से वहाँ से धीरे-धीरे सरक कर थोड़ी दूर जाकर ठहर गयी।

“ईंटा निकाल लो।” पाटिल ने कहा।

दीवार इतनी गन्दी थी कि सम्पूरन की इच्छा नहीं हो रही थी, उसे छूने की। लग रहा था, वर्षों से कोई सीढिय़ों पर नहीं चढ़ा। सम्पूरन ने जी कड़ा कर उस ईंट को अलग करना चाहा, मगर वह उखडक़र जैसे दोबारा दीवार पर जम चुकी थी। पाटिल ने छाते की नोक से ही उसे नीचे से हिलाया तो वह निकलने लगी। सम्पूरन ने ईंट निकाल ली और देखा, ईंट के नीचे एक चाबी लाश की तरह पड़ी थी, काली और भद्दी-सी चाबी। सम्पूरन ने चाबी उठाकर ईंट दोबारा वहीं खोंस दी।

पाटिल ने राहत की साँस ली। नीचे आकर उसने एग्रीमेंट पर सम्पूरन से लिखवा लिया कि फ्लैट नं. 17, रानडे रोड की चाबी प्राप्त की। काम खत्म होते ही पाटिल की वहाँ एक भी क्षण रुकने की इच्छा न थी।

“आप कहाँ रहते हैं?” सम्पूरन ने पूछा।

“माहिम।” पाटिल ने कहा।

“यही टैक्सी आपको माहिम छोड़ आएगी, मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगा।” सम्पूरन ने सोचा, इसी बहाने पाटिल की कुछ आमदनी हो जाएगी। टैक्सी का भाड़ा वह दफ्तर में जरूर दिखाएगा। पाटिल ने आभार प्रकट करते हुए हाथ जोड़ दिये और टैक्सी में बैठ गया।

“भापे।” सम्पूरन ने स्वर्ण को बाँहों में भर लिया, “यह देखो फ्लैट की चाबी।”

“चलो, भीतर जाकर देखें।” स्वर्ण को उत्सुकता हो रही थी।

“अभी बाहर से देखकर सब्र कर लो।” सम्पूरन ने कहा।

स्वर्ण ने सिर उठाकर देखा, चार बड़ी-बड़ी विशाल खिड़कियाँ समुद्र की तरफ खुलती थीं। जमीन से कोई दस फीट ऊपर। आसपास अँधेरा था, कुछ दिखाई न दिया। पास ही एक बड़ा भव्य मन्दिर था। मन्दिर में थोड़ी चहल-पहल थी और उसकी बत्तियाँ समुद्र में तैर रही थीं।

“साले तुम्हारी तो लाटरी खुल गयी है। जरा विस्तार से बताओ कि यह फ्लैट तुमने कैसे हथियाया!”

सम्पूरन सारा किस्सा बता गया, मगर फ्लैट भुतहा होने की बात गोल कर गया।

“चलो ऊपर जाकर देख आयें।” स्वर्ण ने सुझाया।

“कल विधिवत गृहप्रवेश करूँगा।” सम्पूरन ने बताया।

“तो आज सेलिब्रेट हो जाए।”

“आज चन्नी मुर्ग मुसल्लम की पार्टी दे रहा है, अभी टैक्सी आती होगी। कोलाबा चलते हैं।”

“तुम तो आज टैक्सी के नीचे बात ही नहीं कर रहे।”

“अब तुम मुझे हमेशा टैक्सी में ही पाओगे।” सम्पूरन ने कहा, “अगले हफ्ते ऑफ़िस भी खोल रहा हूँ। लैमिंग्टन रोड पर।”

“वाह बेटे!”

उन दोनों ने सिगरेट सुलगाया और समुद्र की तरफ देखने लगे। समुद्र उस समय हाई टाइड में था। एक वेग के साथ झागदार पानी तट पर आता और कुछ देर तक माथा पटककर लौट जाता। दोनों की समुद्र में कोई दिलचस्पी न थी। सम्पूरन बहुत विस्तार से आज के दिन की तफसील स्वर्ण को सुनाना चाहता था, मगर सुबह से वह कुछ इस तरह व्यस्त रहा था कि अब तक लस्त-पस्त हो चुका था। एक बार उसके जी में आया सामने ईरानी के यहाँ जाकर एकाध आमलेट खा ले, मगर वह अपना शाम का भोजन बर्बाद नहीं करना चाहता था। वह कुछ तय कर पाता, इससे पहले ही टैक्सी लौट आयी। उसने दरवाजा खोला और उसमें घुस गया। दाहिनी तरफ से दरवाजा खोलकर स्वर्ण भी उसकी बगल में जा बैठा।

“कोलाबा।” सम्पूरन ने कहा।

टैक्सी वापस बम्बई की तरफ दौडऩे लगी। ज्यादातर ट्रैफ़िक उल्टी दिशा में बह रहा था यानी तमाम गाडिय़ाँ जैसे दिन भर मजदूरी करके वापस लौट रही थीं।

“तुम किस्मत में विश्वास करते हो?” सम्पूरन ने स्वर्ण से पूछा।

“पुरुषार्थ में ज्यादा विश्वास करता हूँ।” स्वर्ण बोला।

“तुम चूतिया हो।” सम्पूरन ने कहा, “तुम पुरुषार्थ करते रह जाओगे। बहुत-से लोग पुरुषार्थ करते हुए मर जाते हैं और तुम्हारी तरह किसी लॉज के घुटन भरे माहौल में जिन्दगी होम कर देते हैं।”

“तुम आज बहकी-बहकी बातें कर रहे हो।”

“दरअसल मैं बहक गया हूँ। स्कॉच पिओगे तो तुम भी बहक जाओगे।” सम्पूरन ने कहा, “चन्नी बढिय़ा से बढिय़ा स्कॉच लाया होगा।”

“लेकिन वह बहुत बोर करता है।”

“खातिरदारी तो करता है।” सम्पूरन ने कहा, “तुम्हें शायद मालूम नहीं, हर भला आदमी बोर करता है।”

“तुम्हारा चन्नी तो अझेल है।”

“वह कितना भी अझेल हो, उसकी बीवी तो खूबसूरत है।”

“मैंने उसे गौर से नहीं देखा।”

“आज देख लेना।” सम्पूरन ने कहा, “वह बहुत अच्छी कुक है। उसके हाथ का बना चिकेन खाओगे तो...”

“अँगुलियाँ चाटते रह जाओगे।” स्वर्ण ने उसका वाक्य पूरा किया।