17 रानडे रोड / अध्याय 4 / रवीन्द्र कालिया
हवालात की ताज़ा हवा
चन्नी चौदहवीं मंजिल पर रहता था। सम्पूरन ने जब-जब उसके फ्लैट की खिडक़ी से नीचे देखा था, उसे एक अजीब किस्म की दहशत हुई थी। अकसर वह खिडक़ी की तरफ पीठ करके ही बैठता था। इतनी ऊँचाई पर से नीचे देखने पर उसकी हमेशा खिडक़ी से कूदने की इच्छा होती और वह सिहर जाता था।
वे लोग लिफ्ट से ऊपर पहुँचे तो सम्पूरन ने कॉलबेल दबायी। अन्दर कोई हलचल न हुई। कुछ देर बाद उसने दुबारा बटन दबाया। इस बार भी कोई हलचल न हुई।
“लगता है कोई घर पर नहीं है।” स्वर्ण ने कहा।
“ऐसा नहीं हो सकता।” सम्पूरन फिर घंटी बजाता, इससे पूर्व ही दरवाजा खुल गया। सामने चन्नी खड़ा था। उसने बरमूडा और एक बनियान किस्म की टी शर्ट पहनी हुई थी। उसकी टाँगों पर घने घुँघराले बाल थे। शर्ट के भीतर से भी छाती के घने बाल झाँक रहे थे।
“हैलो कैप्टन।” सम्पूरन ने कहा, “बिल्कुल बनमानुस लग रहे हो।”
“कुछ न पूछ यार। गजब हो गया।” कैप्टन ने कहा, “हरामजादी ने पुलिस को फोन कर दिया।”
सम्पूरन और स्वर्ण दोनों हत्प्रभ रह गये। घर में उसकी बीवी थी और बेटी, वह किसके बारे में ऐसे भद्दे विशेषण का इस्तेमाल कर सकता है।
“किसने फोन कर दिया?”
“उसी हरामजादी ने।” कैप्टन बोला, “मैं महीनों शिप पर रहता हूँ और यह हरामजादी घर में चकला चलाती है।”
“कैप्टन तुम नशे में हो, पुलिस क्यों आ रही है?”
“साले, तुम भी चूतियों की तरह बात कर रहे हो।” कैप्टन सम्पूरन पर ही बिगड़ गया, “अब पुलिस के सामने तुम कोई बेवकूफी की बात मत करना।”
“मैं तो था ही नहीं, आखिर हुआ क्या है?”
“मैं आज उसे जान से मार देता, उसने बन्दूक का रुख बदल दिया। वह देखो छत पर गोली का निशान है।”
“कैप्टन तुम पागल हो गये हो। अगर उसे गोली लग जाती तो क्या होता?”
“सूली पर चढ़ जाऊँगा, मगर उसे यों मनमानी न करने दूँगा।”
“पुलिस को किसने खबर दी?”
“सना ने। दरअसल वह डर गयी थी।”
सम्पूरन उठा और बेडरूम में घुस गया। माँ-बेटी दोनों एक-दूसरे से लिपट कर रो रही थीं। सम्पूरन कुछ देर उनके पास खड़ा रहा, वे दोनों बहुत लय में सिसकियाँ भर रही थीं। उसने सिसकियों की लय को भंग करना उचित न समझा। मेज पर कुछ केले पड़े थे, उसने एक केला उठाया और छीलते हुए दूसरे कमरे में घुस गया। उसकी एक और केला खाने की इच्छा हो रही थी, मगर बाहर शायद कुछ हलचल शुरू हो गयी थी। अचानक उसे अपनी जेब में पड़ी फ्लैट की चाबी का ध्यान आया। उसे लगा, इस चाबी के कारण ही वह इस दुष्चक्र में आ फँसा है। अब खाना भी क्या नसीब होगा! स्वर्ण अलग से गाली देगा कि किस जंजाल में फँसा दिया।
तभी कॉलबेल सुनाई दी। सम्पूरन ने सोचा, कैप्टन उठकर दरवाजा खोलेगा, मगर कैप्टन चुपचाप डाइनिंग टेबल पर बैठा रहा। दुबारा घंटी बजी तो सम्पूरन ने आगे बढक़र दरवाजा खोला। सामने पुलिस इंस्पेक्टर और हाथ में डंडा लिये एक सिपाही खड़ा था। सम्पूरन दरवाजा खोलकर भीतर लौट आया।
“आओ इंस्पेक्टर।” चन्नी ने उठकर उससे हाथ मिलाया और उसे अलग कमरे में ले गया। चन्नी ने दरवाजा बन्द कर दिया और बोला, “सुनो इंस्पेक्टर यह मियाँ-बीवी का मामला है। पन्द्रह बरस की मेरी बेटी है। मैं नेवी में कप्तान हूँ और छह महीने बाद शिप से लौटा हूँ। घर लौटकर पता चला कि मेरी पत्नी पेट से है, दो महीने के पेट से। आप बरायमेहरबानी इस मामले को तूल न दें। उस हरामजादी के लिए अभी मैं यह नैकलेस लाया था, मैं ठगा गया इंस्पेक्टर। यह नैकलेस अब आप ले लें, उस साली को मैं फूटी कौड़ी न दूँगा।”
इंस्पेक्टर ने डिब्बे से नैकलेस निकालकर देखा। बहुत ही खूबसूरत नैकलेस था। उसने एक बार दोनों हाथों से फैला कर देखा और उसका वजन महसूस किया। नैकलेस उसने चुपचाप अपनी जेब में ठूँस लिया। उसने कैप्टन की पीठ थपथपायी, “कहाँ हैं आपकी पत्नी? उनका स्टेटमेंट लेना होगा।”
कैप्टन ने दूसरी बार जेब से बहुत से नोट निकाल कर इंस्पेक्टर की मुट्ठी में बन्द कर दिये, “नो नो, यह सब न करें। बच्ची ने दहशत में आपको फोन कर दिया था।”
“कुछ कार्यवाही तो करनी पड़ेगी।” इंस्पेक्टर का लहजा सहानुभूति का हो गया था, “आप बच्ची को ही बुलाएँ।”
चन्नी ने सम्पूरन की तरफ देखा। सम्पूरन न चाहते हुए भी साक्षी बनता जा रहा था। चन्नी मानकर चल रहा था कि वह उसकी हर झूठी-सच्ची बात का साथ देगा। सम्पूरन सना के कमरे में गया, वह उसी प्रकार माँ के ऊपर बेहाल पड़ी थी। दोनों की सिसकियों का साज अब तक थम चुका था।
“सना तुमने पुलिस को बुलाकर अच्छा नहीं किया।”
सना ने पलट कर सम्पूरन की तरफ देखा और उससे लिपट गयी, “अंकल, पापा गुस्से में पागल हो गये थे। वह कुछ भी कर सकते थे।” वह दुबारा सिसकने लगी। सना की साँसों की गरमाहट सम्पूरन को अपनी छाती पर महसूस हो रही थी। उसे गुदगुदी-सी होने लगी।
“अब होश से काम लो। तुमने क्या कहा था फोन पर?”
“मैंने गोली चलने की सूचना दी थी।”
“यह तुमने गलत किया। अब ध्यान रखो, बात का बतंगड़ न बनने पाये।”
“मुझे क्या कहना होगा?”
“कह देना, पापा बन्दूक साफ कर रहे थे कि गोली चल गयी। तुमने डरकर फोन कर दिया।”
सम्पूरन सना को कमरे से बाहर ले आया। सना का चेहरा देखकर इंस्पेक्टर नये सिरे से तफतीश करने लगा। उसने एक साथ बहुत से प्रश्न दाग दिये, “किस हथियार से गोली चली थी, क्यों चली थी, कोई घायल तो नहीं हुआ? तुम्हारी मम्मी कहाँ हैं?”
“बच्ची है, यह क्या बताएगी! पारिवारिक मामला मानकर रफा-दफा कर दीजिये।” सम्पूरन ने कहा। सम्पूरन ने इंस्पेक्टर को रुपये रखते हुए न देखा होता तो चुप रहता।
इंसपेक्टर ने गहरी नजरों से सम्पूरन की तरफ देखा, “आपका नाम?”
“मुझे सम्पूरन कहते हैं।”
इंस्पेक्टर ने जेब से डायरी निकाली और लिखने लगा, “पता?” सम्पूरन ने खिसिया कर इंस्पेक्टर की तरफ देखा।
“पता बताइए!”
“इनका पता लेकर क्या करेंगे?” चन्नी बोला।
“मौक़ा ए वारदात पर यही मौजूद हैं।” यह सुनकर स्वर्ण वहाँ से हट गया और फ्रिज से पानी की बोतल निकालकर मुँह को लगा ली।
“मगर कोई वारदात तो हुई ही नहीं।” चन्नी बोला, “सना तुम बताओ, क्या हुआ था?”
“कुछ नहीं, बन्दूक चली तो मैं डर गयी।”
“कैसे चल गयी?”
“पापा बन्दूक साफ कर रहे थे।” सना ने कहा।
“मम्मी को बुलाओ।”
“वह सो रही हैं।”
इंस्पेक्टर सिर्फ खानापूरी के लिए बात कर रहा था। उसका काम हो गया था, मगर वह सम्पूरन की किसी बात से चिढ़ गया था। जाने से पहले वह उसका विजिटिंग कार्ड ले जाना नहीं भूला।
“तुमने तो डिनर के लिए बुलाया था।” इंस्पेक्टर चला गया तो सम्पूरन बोला।
“जाओ सना, तुम भीतर जाओ।” चन्नी ने कहा और डाइनिंग टेबल पर पड़ी बोतल से तीन पैग बनाये। पुलिस को देखकर स्वर्ण की तो जान सूख गयी थी। वह बचपन से ही पुलिस से बहुत खौफ खाता था।
“इंस्पेक्टर मेरा विजिटिंग कार्ड क्यों ले गया है?” सम्पूरन ने पूछा।
“तुम पर एक फर्जी मुकदमा दायर करेगा।” स्वर्ण ने कहा।
“मैंने उसका क्या बिगाड़ा है?”
“तुमने उसे बीच में टोका था।” स्वर्ण बोला, “हाकिम को बीच में नहीं टोका जाता।”
“खाली पेट दारू पी रहा हूँ।” सम्पूरन बोला, “कुछ खाने को नहीं है?”
“फ्रिज में देख लो।” चन्नी का मूड अभी तक उखड़ा हुआ था। उसने एक ही घूँट में अपना पैग खत्म किया और दूसरा ढाल लिया। सम्पूरन फ्रिज में सामान टटोलने लगा। फ्रिज का बल्व फ्यूज था। कभी उसके हाथ में मुर्झायी हुई मूली आ जाती तो कभी सूखा हुआ ब्रेड।
“तुम्हारा फ्रिज तो रो रहा है कप्तान। खाने को कुछ नहीं मिल रहा।”
“इस कुतिया ने मेरे घर का यही हाल कर रखा है। पाँच हजार महीना भिजवाता था।”
कैप्टन का पारा चढऩे लगा। सम्पूरन ने फ्रिज बन्द करना ही मुनासिब समझा। उससे बदबू उठ रही थी, शायद भीतर कोई चीज सड़ चुकी थी। इस समय कैप्टन बहुत खराब मूड में था। उससे संवाद हो ही नहीं सकता था। स्वर्ण ने आँख के इशारे से सम्पूरन से कहा कि यहाँ से फूट लेने में ही भलाई है। जाने से पहले दोनों दोस्त स्कॉच का अधिक से अधिक सेवन कर लेना चाहते थे। पैरों पर मच्छर भी काट रहे थे। कैप्टन थोड़ी-थोड़ी देर में जाँघ पर पट-पट की आवाज करता। वह दरअसल, मच्छर उड़ा रहा था।
“मुसाफ़िरखाने से बदतर है यह घर।” कप्तान बोला, “इस से कहीं ज्यादा सुकून तो शिप पर है।”
इस वक्त कप्तान की गृहस्थी पर कोई टिप्पणी करना खतरे से खाली नहीं था। कोई भी बात तूल पकड़ सकती थी और कैप्टन का मूड देखकर लगता था, वह दुबारा बन्दूक निकाल लेगा। पुलिस के आने से उसका स्वाभिमान बहुत आहत हो गया था। वह हर बार जब टाँगों पर हथेलियों से पट की आवाज करता तो उसी लय में गाली बकता।
तभी कमरे का दरवाजा खुला और हाथ में सूटकेस थामे रेखा नमूदार हुई। उसने सिर पर भी पल्लू ओढ़ रखा था। बगैर किसी की तरफ देखे उसने दरवाजा खोला और घर से बाहर निकल गयी।
“घर से बाहर कदम रखा तो टाँगें तोड़ दूँगा।” कैप्टन ने बगैर हिले-डुले बहुत गुस्से से कहा। जब तक कैप्टन की बात पूरी होती रेखा के कदम घर के बाहर उठ चुके थे। उसके पीछे दरवाजा बन्द हो गया तो कैप्टन को जैसे होश आया। वह दौड़ता हुआ दरवाजे तक गया और चिल्लाया, “खबरदार जो अब इस घर में दोबारा कदम रखा।” यहाँ भी कैप्टन ने देर से अपनी बात कही थी। तब तक लिफ्ट नीचे सरकना शुरू कर चुकी थी।
“तुम बैठो कैप्टन, मैं नीचे जाकर देखता हूँ।” सम्पूरन ने कहा और एक झटके से बाहर निकल आया। दरअसल, उसे बहुत तेज भूख लगी थी और उसे विश्वास हो चुका था कि कैप्टन के यहाँ आज कुछ खाने को न मिलेगा। दो रोज पहले ही कैप्टन ने अपने नौकर को पीटकर घर से निकाल दिया था। वह चोरी छिपे कैप्टन की एक बोतल पी गया था। कैप्टन को उसकी यह हरकत बहुत नागवार गुजरी थी और उसे शक हो गया था कि उसकी गैरहाजिरी में न जाने कहाँ-कहाँ मुँह मारता होगा।
सम्पूरन को नीचे टैक्सी स्टैंड पर रेखा दिख गयी। अब उसके सिर पर पल्लू नहीं था। सम्पूरन लपककर उसके पास पहुँच गया।
“कहाँ जा रही हो रेखा? अक्ल से काम लो।”
“मैं उस जानवर के साथ एक दिन भी नहीं रह सकती।” रेखा बोली, “वह जानवर से भी बदतर है। शिप में रहते हुए मेनिआक हो गया है। घर में जवान बेटी है, उसे इसकी भी शर्म नहीं।”
यह प्रसंग इतना निजी था कि सम्पूरन विस्तार में नहीं जा सकता था।
“सना के बारे में तो सोचो और लौट चलो।” उसने कहा।
“सवाल ही पैदा नहीं होता।” रेखा ने एक टैक्सी रोकी और दरवाजा खोलकर उसमें घुस गयी। सम्पूरन जबरदस्ती उस टैक्सी में सवार हो गया। टैक्सी फोर्ट की तरफ बढऩे लगी।
“मुझे अकेला छोड़ दो सम्पूरन। इस वक्त मेरा दिमाग बहुत खराब हो रहा है।”
“इस वक्त कहाँ जाओगी?”
वह चुप रही।
“कुछ तो बोलो, कहाँ जाओगी? यही कहो कि जहन्नुम में जा रही हो, कुछ बोलो तो।”
“यही समझ लो, जहन्नुम से निकल भागी हूँ। मुझे फिलहाल अकेला छोड़ दो प्लीज। टैक्सी, रुको।”
सडक़ के किनारे टैक्सी रुक गयी। सम्पूरन चुपचाप उतर आया और पैदल ही चन्नी के घर की तरफ चल दिया। वह चलते-चलते देख रहा था कि कहीं उसल पाव ही खाने को मिल जाए, मगर यह एक ऐसा क्षेत्र था कि चारों ओर तेज रफ्तार ट्रैफिक के अलावा कुछ भी नहीं था। उसके हाथ बार-बार जेब में पड़ी चाबी को छू रहे थे। अचानक उसे लगा कि जब तक उसकी जेब में चाबी रहेगी, उसे अन्न का एक दाना नसीब न होगा, मगर उसने इस विचार को तुरन्त झटक दिया। स्कॉच की हल्की-सी तरंग में वह महसूस कर रहा था जैसे उसके कदम किसी स्वचालित खिलौने की तरह अपने-आप उठ रहे हैं और वह जैसे सडक़ पर तैरते हुए चल रहा है। आज से पहले उसे कभी इतनी शिद्दत से भूख भी महसूस न हुई थी। इस वक्त उसकी जेब में पैसे भी थे, मगर इसे संयोग ही कहा जाएगा उसके पास इत्मीनान से बैठकर कहीं भोजन करने की फुर्सत न थी। इस वक्त वह चन्नी के यहाँ जाना भी न चाहता था मगर वह स्वर्ण को लेकर एक जिम्मेदारी महसूस कर रहा था। वह इस समय चन्नी को और नहीं झेल सकता था।
सम्पूरन चन्नी के यहाँ पहुँचा तो कैप्टन बिटिया को पुचकार रहा था। वह बिटिया के बालों में हाथ फेर रहा था और अजीब सम्बोधनों से अपना वात्सल्य प्रकट कर रहा था, जैसे “मेरी पुच्ची, मेरे कुप्पी, मैं तुम्हें शिप पर ले जाऊँगा। जिस स्कूल में कहोगी, पढ़ाऊँगा। मेरी बिट्टी, कहाँ पढ़ेगी? शिमला में, नैनीताल में, ऊटी में, पंचगनी में, जहाँ कहोगी पढ़ाऊँगा। मेरी पुक्की को पायलट बनना है। जम्बो जेट चलाएगी मेरी मिट्ठी।”
सम्पूरन को देखकर उसने पूछा, “कहाँ गयी है वह बदजात औरत?”
“टैक्सी में फोर्ट की तरफ गयी है।”
“चर्चगेट से सान्ताक्रुज जाएगी अपने बाप के पास।” वह बुदबुदाया।
स्वर्ण डायनिंग टेबल पर डटा था। सामने एक प्लेट में काजू और दूसरी में ब्रेड-मक्खन पड़े थे। ब्रेड पर झुर्रियाँ पड़ चुकी थीं। सम्पूरन ने मुट्ठी में बहुत से काजू भर लिये और खाने लगा। काजू में सीलन थी, यही नहीं उसमें नेप्थलीन की भी बू आ रही थी। एक काजू से ही उसके मुँह का स्वाद बिगड़ गया। उसने अपने लिए एक पैग ढाला। स्वर्ण मस्ती में था। लगातार काजू खा रहा था और पानी की तरह विस्की पी रहा था। वह अपना गिलास थामे हुए कैप्टन के पास गया और बोला, “कैप्टन, अब चलेंगे हम लोग।”
कैप्टन ने उसके हाथ से गिलास ले लिया और एक ही घूँट में खाली कर लौटा दिया, “अभी रुको। वह कोई न कोई तमाशा जरूर करेगी।”
“क्या करेगी?”
“कुछ भी कर सकती है। पुलिस में जा सकती है, बाप को भडक़ा सकती है, खुदकुशी का नाटक कर सकती है, गायब हो सकती है।”
“कुछ देर में गुस्सा शान्त होगा तो चली आएगी।” सम्पूरन ने कहा।
“नहीं अंकल, वह अब नहीं आएँगी।” सना बोली। वह अब तक सँभल चुकी थी।
“क्यों?”
“पापा को मालूम है।” वह बोली।
मालूम सम्पूरन को भी था, मगर इस विषय पर कुछ भी कहने में उसे संकोच हो रहा था।
“मैं भी चाहता हूँ, उससे पिंड छूटे। मगर वह इतनी आसानी से अलग न होगी। सोचता हूँ पुलिस को रिपोर्ट कर दूँ।”
“किसी वकील से सलाह-मशविरा कर लो।” सम्पूरन बोला, “वह आसानी से कह सकती है, तुमने गोली चला कर जान से मारने की कोशिश की थी।”
सम्पूरन को याद आया, इंस्पेक्टर उसका विजिटिंग कार्ड ले गया था।
“पुलिस मेरा क्या कर लेगी? ज्यादा तीन-पाँच करेगी तो मैं साली का काम तमाम करा दूँगा। मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता।”
“मुझे तो अब भूख लग रही है।” अचानक स्वर्ण ने अपना गिलास खत्म किया और बोला, “कैप्टन तुम लोग आराम करो, हम लोग अब चलते हैं।”
“नथिंग डूईंग। खाना अभी मँगवाता हूँ। सना मिसेज कौल का क्या नम्बर है? इन लोगों को आज कश्मीरी खाना खिलाया जाए।”
“मेरे लिए मेथी गोली मँगवाना।” सना ने कॉर्डलेस से नम्बर मिलाकर चन्नी को दे दिया।
“मैं चन्नी बोल रहा हूँ मिसेज कौल।” चन्नी ने ऑर्डर प्लेस करना शुरू किया, “सना के लिए मेथी गोली और मेरे दो भुक्कड़ दोस्त आये हुए हैं, कोई अच्छी चिडिय़ा हो तो भिजवाओ।”
“पापा चिकेन को चिडिय़ा ही कहते हैं।” सना बोली।
माहौल कुछ कुछ सामान्य हो रहा था। लग रहा था, सना को भी माँ के यों बर्हिगमन कर जाने का कोई खास रंज नहीं था। सम्पूरन उसकी उपस्थिति में अब रेखा की बात भी नहीं करना चाहता था। डिनर का ऑर्डर प्लेस हो गया तो उसने अपने लिए एक पैग ढाला और इस बार उसमें सोडा और बर्फ मिलाया।
“यह बताओ कैप्टन, वह इंस्पेक्टर का बच्चा मेरा विजिटिंग कार्ड क्यों ले गया है?”
“उसका अचार डालेगा।” कैप्टन बोला, “घूस लेने के बाद उसे कुछ तो कार्यवाही करनी थी।”
वे लोग मिसेज कौल के टिफ़िन का इन्तजार कर रहे थे कि कॉलबेल सुनाई दी।
“लो टिफिन आ गया। सना बेटे, तुम टेबल लगाओ।” कैप्टन ने नशे में झूमते हुए दरवाजा खोला।
सामने पुलिस के आधा दर्जन सिपाही और दरोगा खड़े थे। उन्हें देखकर चन्नी बौखला गया, “अब क्या हुआ?”
कैप्टन के साथ-साथ पूरा पुलिस बल भीतर चला आया, जैसे कोई बहुत गम्भीर वारदात हो गयी हो।
“आपका नाम ही चन्नी है?” इंस्पेक्टर ने पूछा।
“हाँ, मगर अभी तो इंस्पेक्टर सामन्त तफ्तीश करके गये हैं।”
“आपकी पत्नी ने दफा 323, 504, 506 के तहत एफ.आई.आर. की है।”
“वह पागल है इंस्पेक्टर।”
“आपको थाने चलना होगा।” इंस्पेक्टर ने कहा, “आपको और मिस्टर सम्पूरन को जमानत लेनी होगी।”
“मैंने क्या किया?” सम्पूरन के मुँह से बेसाख्ता निकला।
“आपने चन्नी को गोली चलाने के लिए उकसाया है।”
“मैं तो वारदात के बाद आया था।” सम्पूरन ने कहा।
“यह थाने चलकर बताइएगा।”
कैप्टन को तैश में देख सम्पूरन उसे भीतर के कमरे में ले गया। इंस्पेक्टर के साथ आये एक हवलदार ने टेबल पर बोतल देखकर टेबल पर पड़े तीनों गिलासों में बिना धोए पैग बनाये और सब लोग तीन गिलासों में ही अपना काम चलाने लगे। एक घूँट भरकर सिपाही लोग दूसरे साथी को गिलास सौंप देते। देखते-देखते बोतल खाली हो गयी।
चन्नी नशे में था और भीतर जाकर इंस्पेक्टर से किसी बात में उलझ गया था, सना उसे शान्त करने की कोशिश कर रही थी।
“साले सब घूसखोर हैं। घूस से इनका पेट नहीं भरता। अभी एक का मुँह बन्द किया दूसरा चला आया। मुम्बई में सैकड़ों हत्यारे छुट्टा घूम रहे हैं, ये उनको नहीं पकड़ेंगे। एक छिनाल औरत का एफ.आई.आर. फौरन दर्ज कर लेंगे।”
इंस्पेक्टर तमतमाता हुआ आया और बोला, “सबको पकडक़र थाने ले चलो। जो कहना है वहीं कहेंगे।”
“मगर हम लोग तो झगड़े के बाद आये थे।”
“मैं कुछ नहीं जानता।”
“मेरी बेटी को ले जाकर देखो थाने, पूरा थाना सस्पैंड करवा दूँगा। सामन्त को मालूम था कि यह सिर्फ एक घरेलू झगड़ा था, इस पर एफ.आई.आर. बनता ही नहीं था।”
“आपको जो कुछ भी कहना है थाने जाकर कहें।” इंस्पेक्टर ने कहा, “आप चुपचाप चले दें वरना मुझे जबरदस्ती करनी पड़ेगी।”
कैप्टन को भी लगा कि बात कहीं बिगड़ गयी है और अब इसे बढ़ाने से लाभ न होगा। उसने अपने दो एक मित्रों को घटना के बारे में बताया और थाने पहुँचने को कहा। उसके मित्रों में एक मुम्बई के एसीपी का साढू था। फोन पर एसीपी का नाम सुनकर इंस्पेक्टर का रुख भी नरम पड़ा। उसने कहा, “हम लोग तो काननू के गुलाम हैं। आप भी थाने जाकर एफ.आई.आर. लॉज करवा दें। बिटिया को कोई थाने नहीं ले जा रहा है।”
चन्नी के पड़ोस में मुम्बई के लोकप्रिय साप्ताहिक 'अग्निवर्षा' के सम्पादक मुनीश्वर सिंह गहलौत रहते थे। भयादोहन के बल पर उन्होंने मुम्बई में दस वर्षों के भीतर फ्लैट, गाड़ी और फोर्ट में दफ्तर की व्यवस्था कर ली थी। वह केवल मुख्यमन्त्री को पटाकर रखते थे, बाकी पूरी व्यवस्था के बखिया उधेड़ा करते थे। मन्त्रालय के बड़े-बड़े अधिकारियों की गाडिय़ाँ उनके यहाँ खड़ी रहती थीं। पड़ोस में पुलिस की दबिश देखकर वह भीतर चले आये। चन्नी कभी-कभी उनके यहाँ विदेशी दारू की बोतल भेज दिया करता था। अकसर तो वह चन्नी को देखकर खुद ही माँगने चले आते थे। श्रीमती गहलौत की रेखा से न पटती थी। उसके तौर तरीकों से वह नाखुश रहती थीं। गहलौत साहब की बिटिया मंजू बिल्डिंग में सना की एकमात्र मित्र थी।
गहलौत साहब ने आते ही अपना विजिटिंग कार्ड इंस्पेक्टर को पेश किया और बोले, “क्यों एक शरीफ आदमी को परेशान कर रहे हो?”
“परेशान नहीं कर रहे हैं, इन्हीं की बीवी ने इनके खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करवायी है।”
“मेरी एस.एच.ओ. से बात कराओ।”
“साहब तो गश्त पर निकले हैं।”
“ठीक है, आ जाएँ तो बात कराना। अभी फूटो यहाँ से। यह शरीफों की बस्ती है।”
“इन्हें थाने जाकर बयान देना होगा।”
“मैं इंस्पेक्टर सामन्त को बयान दे चुका हूँ।”
“मगर तब तक एफ.आई.आर. नहीं हुआ था।”
“चलो मैं चलता हूँ चन्नी के साथ बयान देने।” गहलौत ने इंस्पेक्टर से कहा और सना की तरफ देखकर बोला, “चलो, तुम मंजू के पास, हम लोग अभी लौटते हैं।”
सम्पूरन की जान में जान आयी। इंस्पेक्टर का रुख देखकर वह सोच रहा था, आज रात हवालात में गुजरेगी।
“सॉरी सम्पूरन। मैंने तुम लोगों को खाने पर बुलाया था।”
“कोई बात नहीं। खाना फिर किसी दिन हो जाएगा।”
चन्नी गहलौत साहब की गाड़ी में रवाना हो गया। पीछे-पीछे पुलिस की जीप चल दी। जल्दबाजी में इंस्पेक्टर सम्पूरन और स्वर्ण को ले जाना भूल गया था। सम्पूरन और स्वर्ण ने तुरन्त एक टैक्सी को रोका और चर्चगेट की तरफ रवाना हो गये।
“तुम भूत-प्रेत में विश्वास करते हो?” गाड़ी में बैठते ही सम्पूरन ने स्वर्ण से पूछा।
“आज से करने लगा हूँ। पत्रकार न आता तो हम लोग हवालात में होते।”
“यकीन नहीं करोगे, सुबह से अन्न का एक दाना पेट में नहीं गया।”
“कैसे पी गये इतने पैग खाली पेट?”
“पेट में भयंकर गैस हो रही है। जी भी मिचला रहा है।” सम्पूरन ने कहा, “आज सुबह से मेरे साथ अजीब घटनाएँ हो रही हैं। बैठे-बैठाये दफ्तर मिल गया, फ्लैट की चाबी मिल गयी, गुजारे लायक पैसे मिल गये, मगर अन्न का एक दाना मयस्सर न हुआ। है न अजीब बात! जेबें भरी हैं, मगर पेट खाली है। लग रहा है मेरे साथ कुछ होने वाला है।”
“हवालात होने वाली थी।” स्वर्ण बोला, “बस यही समझ लो हवालात के मुँह से भाग निकले हैं।”
“मुझे तो अभी और इम्तिहानों में बैठना है।” सम्पूरन ने स्वर्ण को इस बार अपनी आज की वास्तविक दिनचर्या बतायी, जो किसी बम्बइया फ़िल्म से कम रोमांचक न थी। उसने यह भी बताया कि जब से जेब में फ्लैट की चाबी आयी है, उसे लग रहा है फ्लैट से जुड़ी तमाम कहानियाँ सच हैं।
स्वर्ण तमाम किस्से सुनकर सशंकित हो गया। उसने कहा, “चाबी दिखाओ, जरा हम भी देखें।”
सम्पूरन ने जेब से चाबी निकालकर हथेली पर रखते हुए कहा, “देखने में ही कितनी मनहूस लगती है! मैं सबसे पहले फ्लैट का ताला बदलूँगा।”
“यह सब तो बाद की बातें हैं। मेरी मानो, अभी जाकर वहीं चाबी रख दो, जहाँ से उठायी थी, ताकि रात को तो आराम से सो सकें।” स्वर्ण बोला।
हमने तो जब कलियाँ माँगी
सम्पूरन बहुत बेशर्मी से हँसा। स्वर्ण को उसकी हँसी बहुत डरावनी लगी। उसने सुझाव दिया कि अभी दादर स्टेशन पर उतर जाते हैं, फ्लैट की सीढिय़ों पर चाबी रख आते हैं। सुबह दुरैस्वामी के साथ चाबी उठाना।
“तुम भी वही निकले, बुजदिल।” सम्पूरन बोला, “बम्बई में फ्लैट मिलना कोई छोटी बात नहीं है।”
“मेरी मानो, इस पचड़े में मत पड़ो।”
“अब तो आर-पार की लड़ाई लड़ूँगा।” सम्पूरन कुछ इस अन्दाज में बोला जैसे कह रहा हो कि 'दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं।'
“आदमी की मौत आती है तो वह इसी तर्ज पर सोचता है। इतने खूनखराबे से भी तुम कोई सबक नहीं लेना चाहते।”
“कमजोर आदमी को सभी डराते हैं, वह खुद को भी डराने लगता है। मैं सुबह से इतने झमेलों में फँसा हूँ, कोई और होता तो अब तक चाबी फेंक चुका होता।” सम्पूरन जेब से चाबी निकालकर चूमने लगा, “अभी जिद छोड़ो, कहीं जाकर खाना खिलाओ। स्वर्ण, तुम हमेशा चीजों का स्याह पहलू देखते हो। यह क्यों नहीं सोचते आज नौटांक पीने वालों को विदेशी दारू नसीब हुई है।”
“और जेल जाते-जाते बचे। देखो दादर आ रहा है, उतर कर चाबी चुपचाप वहीं रख आओ।”
सम्पूरन का जी बहुत देर से मिचला रहा था। वह बातचीत में अपने को व्यस्त रखकर अपना ध्यान इधर-उधर लगा रहा था। अचानक पेट में इतनी तेज ऐंठन हुई कि वह पेट थामकर दोहरा हो गया, उसे लग रहा था यहीं ट्रेन में कै कर देगा। गाड़ी दादर पर रुकी तो वह स्वर्ण के साथ उतर गया। प्लेटफार्म खाली होते ही वह ट्रैक पर कै करने लगा। चन्नी के यहाँ पी सारी स्कॉच रेल की पटरियों पर बहने लगी। स्कॉच के साथ-साथ सुबह से अब तक जितनी बार चाय पी थी, वह भी बगावत करते हुए बाहर निकल आयी। उसकी आँखों और नाक से पानी जैसा तरल द्रव निकलने लगा। स्वर्ण ने उसे सहारा दिया और एक नल के पास ले गया। सम्पूरन ने दो-तीन बार कुल्ला किया तो तबीयत कुछ बेहतर हुई, मगर उसके मुँह का स्वाद एकदम कसैला हो गया था।
“कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।” उसने जेब से रूमाल निकालकर आँखें पोंछते हुए कहा।
“टैक्सी में साठ पैसे लगेंगे, चलो जाकर चाबी छोड़ आते हैं।” स्वर्ण ने सुझाव दिया। सम्पूरन के चेहरे पर फीकी-सी हँसी फैल गयी, “हाथ में आया फ्लैट मैं इतनी आसानी से न छोड़ूँगा। कै इसलिये हो रही है कि मैं खाली पेट पी गया था। कोई भी पीता, उसका यही हश्र होता।”
“अब तुम्हें कौन कैसे समझाये! तुम्हारी मति मारी गयी है।” स्वर्ण ने खीझ कर कहा।
“अभी पन्द्रह मिनट बाद डबल फास्ट ट्रेन आएगी। जिस ट्रेन से उतरे हैं, उससे पहले पहुँच जाएँगे।” जवाब में सम्पूरन ने ठहाका बुलन्द किया।
अँधेरी पहुँचकर दोनों का भोजन करने का इरादा था। सम्पूरन का जी फिर मिचला रहा था, उसने कहा, “हल्का-सा भोजन पैक करा लो, लॉज में इत्मीनान से खाएँगे।” स्वर्ण को भी यह सुझाव पसन्द आया। बिरयानी पैक करा कर दोनों खरामा-खरामा लॉज की तरफ चल दिये।
काउंटर के पास दो सिपाही बैठे थे। काउंटर पर बिट्ठल बैठा था, स्वर्ण को देखते ही बोला, “क्या लफड़ा किया तुमने?”
“मैंने?” स्वर्ण ने कहा, “मैंने कोई लफड़ा नहीं किया।”
“तुम्हारे गेस्ट ने किया है।”
“मैंने क्या किया है?”
“तुम्हारे खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है, छेडख़ानी और जान से मारने की धमकी देने का। थाने चलना होगा।”
“थाने?”
“हाँ अभीच। दो घंटे से तुम्हारे ही इन्तजार में बैठे हैं?”
“किसने मुकदमा दर्ज कराया है?”
“थाने चलकर मालूम करना।”
“अजीब चक्कर है। हम लोग तो सीधे कोलाबा से आ रहे हैं।”
“वहींच का मामला है। चलिये।”
“सुबह चलूँगा।”
“अभी चलना होगा।”
सम्पूरन वहीं एक स्टूल पर बैठ गया। उसे चक्कर आ रहा था। बोला, “मेरी तबीयत ठीक नहीं है।”
“जो कहना है थाने चलकर कहिये।”
स्वर्ण ने बिट्ठल से कहा कि इन लोगों को चाय नाश्ता कराओ, हम फ्रेश होकर आते हैं।
“मैंने पहले ही कहा था कि कमरे में गेस्ट रखने का नहीं, पन तुम नहीं माना।”
सम्पूरन कमरे में पहुँचते ही खाट पर लेट गया।
“मैं तो कहता हूँ, अब भी वह मनहूस चाबी फेंक दो।”
“चाबी का इससे क्या ताल्लुक?” सम्पूरन सोचते हुए बोला, “पिछले दिनों मैंने रेखा को जुहू के एक होटल में एक युवक के साथ स्वीमिंग कास्ट्यूम में देखा था। रेखा ने अगले रोज मुझे लंच पर बुलाया था और हाथों में हाथ थाम कर वादा लिया था कि मैं चन्नी से इसका जिक्र न करूँ। लगता है उसे शक हो गया है कि मैंने चन्नी को सबकुछ बता दिया है।”
“तुम यह क्यों नहीं सोचते, जबसे तुमने चाबी ली है तुम मुसीबतों में फँसते जा रहे हो।”
“रेखा को तो मैंने तब देखा था, जब फ्लैट का दूर-दूर तक कोई अता-पता न था।” सम्पूरन ने कहा, “साली मुझे लाइन मार रही थी और अब मुझे ही फँसा दिया।”
कमरे पर किसी ने दस्तक दी।
“लगता है सिपाही जल्दी में हैं।”
सम्पूरन ने जेब से पचास रुपये निकाल कर स्वर्ण को दिये कि फिलहाल मामला रफा-दफा करो, सुबह तक की मोहलत ले लो। स्वर्ण ने थोड़ा-सा दरवाजा खोला और सिपाहियों से बोला, “कोई खून नहीं किया है जो सर पर सवार हो रहे हो। कुछ रुपये ले लो और सुबह तक आराम करने दो।”
एक सिपाही ने आगे बढक़र पैसे लिये और डंडा बगल में दबाकर थूक लगा कर एक-एक नोट गिनने लगा।
“यह तो सिर्फ पचास हैं।”
“बहुत हैं।” स्वर्ण बोला, “जाओ, सुबह आना।”
“दो आदमी हैं साहब। दो घंटा बर्बाद हुआ है। ऑफ़िसर अलग डाँटेगा, पचास और दो।”
सम्पूरन खाट पर लेटा बातचीत सुन रहा था, उसने उठकर पचास रुपये और दे दिये।
सिपाही लौट गये तो वह जूते उतारने लगा, “अभी जाकर चन्नी को फोन करता हूँ।”
“तो जूते क्यों उतार रहे हो?”
“सुबह से पैर गिरफ्तार हैं।” सम्पूरन बोला, “पैर-वैर धो लूँ, फिर शुरू करता हूँ दूसरी शिफ्ट।”
सम्पूरन ने बाहर नल पर जाकर अच्छी तरह से रगड़-रगडक़र पैर धोये। कै करने की बहुतेरी कोशिश की, मगर कै नहीं हुई। वह कुल्ला करके सीधा ईरानी के यहाँ जाकर फोन घुमाने लगा। चन्नी का फोन व्यस्त था। इसका मतलब है, वह घर लौट आया है। उसने हाजमे की कुछ गोलियाँ खरीदीं और एक गोली मुँह में रख ली। दुबारा फोन पर जुट गया। बहुत कशमकश के बाद चन्नी का फोन मिला।
“चन्नी हियर।” चन्नी मस्ती में था।
“सम्पूरन बोल रहा हूँ, पुलिस पीछा करते-करते यहाँ पहुँच गयी है।”
“हरामजादी ने तुम्हारे ऊपर भी गम्भीर आरोप लगाये हैं। तुम उसे बहला फुसला कर होटल ले गये थे और छेडख़ानी की कोशिश की थी, उसने मना किया तो तुमने जान से मार डालने और तलाक करवा देने की धमकी दी थी।”
“अब क्या होगा?”
“कुछ नहीं सुबह जमानत हो जाएगी। यहीं चले आओ, सुबह साथ-साथ कचेहरी चलेंगे।”
“मैं बेहद थक चुका हूँ।”
“थाने में रात बिताने से अच्छा है, मेरे पास चले आओ।”
“यार मैं तो मुफ्त में फँस गया।”
“घबराओ नहीं, चले आओ।”
“पुलिस देखकर लॉज का मालिक भी भडक़ रहा है। लगता है बोरिया बिस्तर गोल करवा देगा।”
“तुम टैक्सी में चले आओ। भाड़ा मैं चुका दूँगा। जल्दी आना, खाना आ गया है, साथ-साथ खाएँगे।”
“आता हूँ।” सम्पूरन ने पास से गुजरती टैक्सी रोकी और उसमें सवार हो गया, “कोलाबा।” उसने कहा। लॉज में लौटकर स्वर्ण से बात करने की उसकी इच्छा न हो रही थी। वह इतना थका था कि हवा लगते ही सो गया। काला घोड़ा पर टैक्सी वाले ने उससे पूछा, “किदर कू जाएँगा?”
सम्पूरन से आँखें खोलीं तो पाया वह टैक्सी में बैठा है। क्षण भर के लिए उसे सोचना पड़ा, वह कहाँ जा रहा है।
“स्ट्रैंड चलो।” उसने कहा और सिगरेट सुलगा ली।
चन्नी ने घंटी सुनते ही दरवाजा खोल दिया और उसकी जेब में कुछ रुपये ठूँस दिये।
“जूते कहाँ उतार आये हो?”
“फोन करने उतरा था, वहीं से चला आया हूँ। पहले फोन पर स्वर्ण को बता दूँ।” सम्पूरन फोन मिलाने में जुट गया। रिसीवर बिट्ठल ने उठाया।
“सम्पूरन बोल रहा हूँ।” सम्पूरन ने कहा, “स्वर्ण को बुला दें।”
“स्वर्ण अभी तुमीच को ढूँढने गया है। कहाँ से बोल रहे हो?”
“कोलाबा से।”
“पुलिस स्टेशन से?”
“क्यों फिर आया था कोई थाने से?”
“क्या लफड़ा हो गया है? अभी बुलाता हूँ।”
“लॉज का मालिक भी मुझे क्रिमिनल समझ रहा है।” सम्पूरन ने चन्नी से कहा।
“साला माँ का यार।” चन्नी ने कहा, “टैक्सी में रख लाते अपना सामान।”
सम्पूरन चन्नी को रिसीवर थमाकर वाश बेसिन की तरफ लपका। अबकी आसानी से कै हो गयी और होती चली गयी, उसने नल खोल दिया। माहौल में खट्टी-सी बू फैल गयी। उसने चेहरा पोंछा और नल खुला छोड़ आया।
“तुम्हें सी-सिकनेस हो गयी है।” चन्नी ने कहा और भीतर जाकर एक टिकिया उठा लाया, “इसे चूसते रहो। अभी ठीक हो जाओगे।”
सम्पूरन ने टिकिया मुँह में रख ली और रिसीवर उठा लिया, स्वर्ण 'हैलो-हैलो' की गुहार लगा रहा था।
“हैलो!” सम्पूरन ने कहा, “मैं कोलाबा में हूँ।”
“कोलाबा कैसे पहुँच गये?”
“टैक्सी में।”
“कहाँ हो?”
“चन्नी के यहाँ हूँ।”
“मेरी मानो उस फ्लैट का चक्कर छोड़ो और चाबी कहीं फेंक दो।”
“शटअप!” सम्पूरन बोला, “दिन में दफ्तर फोन करूँगा।”
“ओ.के.। खुदा हाफ़िज।” स्वर्ण ने फोन रख दिया।
जैसे किसी हॉरर फ़िल्म में खुलता है दरवाज़ा
समुद्र अन्धकार में डूबा हुआ था, जब सम्पूरन चन्नी की गाड़ी में रानडे रोड पहुँचा। वह कार में बैठा सिगरेट फूँक रहा था और कभी सडक़ की तरफ देखता कभी शफक की तरफ। मुम्बई अभी ऊँघ रही थी। मुम्बई सोती नहीं, बीच-बीच में ऊँघ जरूर लेती है। टैक्सियों की कतार से जरा हट कर सम्पूरन ने गाड़ी पार्क की थी। सुबह समुद्र के किनारे टहलने वाले लोग जैसे अपनी बिलों से निकलकर सडक़ पर आ गये थे। सम्पूरन का अनुभव था कि मधुमेह के रोगी और मधुमेह से आतंकित लोग सुबह उठते ही टहलने निकल जाते थे। वह शक्ल देखकर ही बता सकता था कि व्यक्ति का शुगर लेवल क्या है। अपनी फिगर के प्रति सचेत स्त्रियाँ सुबह जॉगिंग करतीं, जैसे मधुमेह के रोगियों को मुँह चिढ़ाती हुई अपनी ऊर्जा का परिचय देतीं और अधेड़ पुरुषों से कहीं आगे निकल जातीं। वे इन लोगों के समूह के भीतर से एक कुशल ड्राइवर की तरह अपनी गाड़ी निकाल ले जातीं।
सम्पूरन शफक की तरफ देखकर सोच रहा था कि दुरैस्वामी वक्त पर न आया तो उसका गृहप्रवेश एक सप्ताह के लिए और टल जाएगा। उसे लग रहा था, वह किसी रहस्यलोक के मुहाने पर खड़ा है और वह किसी भी जोखिम से दो-चार होने के लिए कमर कस चुका है। वह जब से बम्बई आया था, मारा-मारा फिर रहा था। शहर नया था, दोस्त अहबाब नये थे। उसे पनाह मिलती मगर चन्द रोज के लिए ही। बम्बई उसे एक प्लेटफार्म की तरह लग रही थी, बम्बई में रहते हुए उसे मुतवातिर यह एहसास हो रहा था कि अभी उसकी कोई गाड़ी आएगी और वह उसमें बैठकर रवाना हो जाएगा। कहाँ, यह उसे भी नहीं मालूम था। यह एक ऐसा प्लेटफार्म था कि कई बार उसे लगता था, अब यहाँ कोई गाड़ी नहीं रुकेगी, रुकेगी भी तो उसमें उसके लिए स्थान न होगा। इस मुसाफ़िरी जीवन से वह कुछ ही दिनों में आिजज आ गया था।
आखिर उसे दुरैस्वामी दिखाई दे ही गया। वह तेज-तेज कदमों से इधर ही आ रहा था। उसे देखकर सम्पूरन तुरन्त गाड़ी से उतरकर दुरैस्वामी की अगुवाई के लिए आगे बढ़ा। दुरैस्वामी के हाथ में एक नारियल और लाल रंग की एक पोटली थी। दुरैस्वामी के चेहरे पर इतना तेज और आत्मविश्वास था कि सम्पूरन की इच्छा हुई, उसके चरण स्पर्श कर ले, मगर चरण छूना उसके स्वभाव में ही नहीं था।
दुरैस्वामी ने बगैर कुछ कहे सम्पूरन को पीछे आने का संकेत किया। वह तेज कदमों से समुद्र की तरफ बढ़ रहा था। समुद्र उस समय लो टाइड में था और तट पर बहुत-सा कचरा जमा हो गया था। अपेक्षाकृत एक साफ स्थान पर दुरैस्वामी ने आसन जमाया और सम्पूरन से पूर्व दिशा की ओर हाथ जोडक़र भगवान भास्कर का स्मरण करने का निर्देश दिया। सम्पूरन की इस कर्मकांड में कोई दिलचस्पी न थी, मगर इस समय उसने अपने को जैसे दुरैस्वामी के हवाले कर दिया था। दुरैस्वामी धीरे-धीरे सूर्य वन्दना करने लगा। सम्पूरन को यही लगा कि दुरैस्वामी सूर्य भगवान की स्तुति कर रहा है। दुरैस्वामी उसे जो निर्देश देता वह कठपुतली की तरह उसका पालन करता रहा। क्षितिज पर लालिमा दिखाई दी तो दुरैस्वामी ने खड़े होकर सूर्य भगवान को अघ्र्य दिया और लगातार संस्कृत में कुछ बुदबुदाता रहा। सम्पूरन हाथ जोड़े उसका अनुसरण करता रहा। वह उस समय भगवान से किसी प्रकार की याचना नहीं कर रहा था। कल तक लोगों ने फ्लैट को लेकर उसे इतना डरा दिया था कि वह केवल भय मुक्ति की कामना कर सकता था। दुरैस्वामी ने उसके ललाट पर अक्षत-रोली का टीका लगाया और उसे प्रसाद स्वरूप नारियल का एक टुकड़ा और मिष्टान्न दिया।
“जाओ, अब मौज करो। भगवान तुम्हारी रक्षा करेंगे।”
सम्पूरन ने जेब से कुछ रुपये निकाल कर दुरैस्वामी को दक्षिणा देने की कोशिश की परन्तु दुरैस्वामी ने अत्यन्त दृढ़तापूर्वक उसकी मुट्ठी बन्द कर दी, “मैं कुछ न लूँगा।”
सम्पूरन की समझ में नहीं आ रहा था कि दुरैस्वामी के प्रति कैसे कृतज्ञता ज्ञापित करे।
“आओ पहले गृहप्रवेश कर लें। इस समय अच्छा मुहूर्त है।”
सम्पूरन उसके पीछे-पीछे चल दिया। फ्लैट की सीढिय़ाँ लकड़ी की थीं और उन पर गर्द की परतें जमी थीं। दीवारों पर जाले लटक रहे थे। लग रहा था जैसे एक लम्बे अर्से से इन सीढिय़ों पर किसी मनुष्य के कदम नहीं पड़े। ठक-ठक की आवाज सुनकर सीढिय़ों पर लटक रहे चमगादड़ 'कैं कैं' की आवाज़ करने लगे। दो-एक सीढिय़ाँ चढऩे पर सम्पूरन को लगा, जैसे ये चमगादड़ उस पर हमला बोल देंगे। कुछ एक सीढिय़ाँ चढक़र सामने दरवाजा दिखाई दिया, जिस पर पुराने वक्त का एक बूढ़ा ताला लटक रहा था। सम्पूरन ने जेब से चाबी निकाली और ताले का छेद ढूँढने लगा। सीढिय़ों पर अँधेरा था, उसने जेब से लाइटर निकालकर ताले का जायजा लिया। ताले के छेद के ऊपर मकडिय़ों ने घर बना लिया था। उसने देर तक ताले में चाबी घुसाने का उपक्रम किया, मगर चाबी भीतर न जा रही थी। उसने चाबी से महसूस किया कि छेद में जैसे जंग लग चुका है।
“इस चाबी से तो यह ताला न खुलेगा।” सम्पूरन निराश होकर बोला। लाइटर की लौ से उसकी अँगुलियाँ जल रही थीं।
“हथौड़ा ही लाना माँगता।” दुरैस्वामी बोला, “मैं कल ही बोला था।”
“हथौड़ा इस समय कहाँ मिलेगा?”
“नीचे से कोई पत्थर या ईंटा उठा लाओ। चलो नीचे जाकर देखते हैं।”
सम्पूरन ने नीचे आकर गाड़ी का टूलबॉक्स खोला और औजारों का जायजा लेने लगा। दुरैस्वामी ने हथौड़े के आकार का एक औजार उठा लिया। शायद जैक की रॉड थी।
“इससे टूट जाएगा।” दुरैस्वामी ने रॉड सम्पूरन को पकड़ा दी। सम्पूरन उस रॉड को एक योद्धा की तलवार की तरह भाँजते हुए सीढिय़ाँ चढ़ गया। लाइटर से उसने सीढिय़ों पर पड़ा अखबार का एक मैला-मटमैला पन्ना जला दिया और पूरी शक्ति से ताले पर प्रहार करने लगा। दो-चार प्रहारों से ही ताला तो नहीं, साँकल टूट कर नीचे गिर गयी।
सम्पूरन ने रॉड नीचे फेंका और जेब से रूमाल निकालकर हाथ साफ करने लगा। फिर उसे यक़ायक ध्यान आया कि रॉड तो चन्नी की गाड़ी का है। उसने तुरन्त उठा लिया। दुरैस्वामी ने दरवाजा खोला, जो बड़ी ढीठ और हॉरर फ़िल्म जैसी आवाजें करता हुआ खुल गया। बूढ़ा दरवाजा घिसटते हुए खुला, तो भीतर धूल, गर्द और जालों के बीच से भी रौशनी छनकर आने लगी। समुद्र की तरफ खुलने वाली खिड़कियों के काँच चटखे हुए थे और प्रकाश का कमरे में निर्बाध प्रवेश हो रहा था। दरवाजा एक लम्बी-सी गैलरी में खुला था, जिसके एक कोने में एक दीवान पड़ा था। दीवान के ऊपर गद्दा था, मसनद था, सफेद चादर बिछी थी जिस पर धूल की परत की स्पष्ट तह दिखाई दे रही थी, इतनी मोटी कि अँगुली से उस पर अपना नाम लिखा जा सकता था। गैलरी में दो तरफ दरवाजे थे। दाहिनी ओर का दरवाजा धकेलने पर भी नहीं खुल रहा था, जबकि सामने का दरवाजा साँकल खोलते ही आसानी से खुल गया। दुरैस्वामी के पीछे-पीछे सम्पूरन भी भीतर दाखिल हुआ।
यह एक बड़ा हॉल कमरा था। दाहिनी तरफ दीवार से सटकर लकड़ी की दो बड़ी-बड़ी वार्डरोब और एक विक्टोरियन युग का बड़ा-सा ड्रेसिंग टेबल पड़ा था। ड्रेसिंग टेबल उसे सिर्फ इसलिए कहा जा सकता था कि उसमें एक बड़ा-सा दर्पण लगा था, वरना उसे स्टडी टेबल, डायनिंग टेबल या ऐसा ही कोई दूसरा नाम भी दिया जा सकता था। उसके दोनों ओर दो बड़े ड्रॉअर थे। बायीं ओर दो पलंग थे, ऐसे कि उन दोनों को मिला दिया जाए तो डबल बेड कहा जा सकता था। दोनों पलंगों पर बिस्तर बिछे थे। नीचे फोम के गद्दे और ऊपर फोम के तकिये। दोनों पर एक से बेड कवर बिछे थे। ऐसा लग रहा था कि चादर बिछाकर कोई अचानक गायब हो गया है और समय ने उस पर इत्मीनान से विश्राम किया है।
दुरैस्वामी ने समुद्र की ओर खुलने वाली एक बड़ी-सी खिडक़ी खोल ली थी और वह एकटक समुद्र की तरफ देख रहा था। उसकी जैसे उस कमरे में कोई दिलचस्पी न थी। खिडक़ी का पेलमेट एक तरफ से उखडक़र नीचे की तरफ झूल आया था, जिससे परदा दुरैस्वामी की नजरों में बाधा उपस्थित कर रहा था। उसे बार-बार परदे का घूँघट हटाना पड़ता। आखिर उसने दो कदम आगे बढक़र परदा हटा कर पीठ पीछे कर दिया और परदे और खिडक़ी के बीच खड़ा होकर क्षितिज पर उभरते सूरज के लाल नारंगी गोले की तरफ देखते हुए कोई मन्त्र बुदबुदाने लगा।
सम्पूरन ने हाल के अन्त में दीवार से सटे पलंग के पैताने की तरफ एक दरवाजा देखा तो उसे खोलकर भीतर घुस गया। दरवाजे के उस पार दो छोटे-छोटे कमरे थे। सामने रसोईघर था और बायीं ओर बाथरूम। रसोई में जरूरत भर के बर्तन सलीके से शेल्फ पर रखे थे। कुकिंग गैस का चूल्हा और गैस का सिलेंडर पड़ा था। सम्पूरन से देखा, नल में पानी नहीं था और सिलेंडर में गैस नहीं थी। गैस के स्टोव के ऊपर पानी का एक पतीला था, जिसमें डूबकर एक कॉकरोच आत्महत्या करने के बाद पानी की सतह पर तैर रहा था। सम्पूरन वहाँ से तुरन्त हट गया और हाल में रखे बूढ़े सोफे पर जा बैठा। खिडक़ी खुलने से समुद्री हवा के झोंके फर्र-फर्र कमरे में आ रहे थे। बहुत दिनों से बन्द रहने के कारण कमरे में निर्जनता व सीलन की मिलीजुली गन्ध भर गयी थी। परदे के नीचे से दुरैस्वामी की टाँगें नजर आ रही थीं। सम्पूरन ने देखा, उसने रबर के जूते पहने हुए थे। सोफे की बाँह पर उसकी निगाह गयी तो वह एकदम चौंककर उठ खड़ा हुआ। सोफे पर खून के रंग का एक बेढंगा-सा धब्बा था। वह धब्बा खून का था या लिपिस्टक अथवा किसी और चीज का, उसके लिए इसे तय करना आसान नहीं था।
कमरे में सब सामान इस करीने से ऐसे लगे थे कि लगता था, अन्त:वासी छुटिटयों पर गया है और अभी उसके लौटते ही घर का संचालन शुरू हो जाएगा। सम्पूरन ने आगे बढक़र वार्डरोब का पल्ला खोला तो हैंगर पर बीसियों रंग-बिरंगी साडिय़ाँ टँगी थीं। साडिय़ों की बगल में सेफ के ऊपर एक अपेक्षाकृत छोटे खाने में एक कतार से दसियों ब्रा टँगी थीं। सम्पूरन ने कप की नाप से उसे पहनने वाली की उम्र का अन्दाजा लगाया। उसे किसी ने बताया था कि इससे पूर्व सुप्रसिद्ध सिने नर्तकी मधुमालती इस फ्लैट में रहते-रहते पागल हो गयी थी। सम्पूरन ने दो-एक फ़िल्मों में मधुमालती को देखा था और उस मधुमालती को देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह इतनी छोटी-सी ब्रेसियर पहनती होगी। उत्सुकतावश उसने लकड़ी के सेफ का ड्रॉअर बाहर खींचा तो वह छोटे नोटों और रेजगारी से भरा था। उसमें एक रुपये, पाँच रुपये, दस रुपये के नोट इस प्रकार ठुँसे थे, जैसे किसी ईरानी रेस्तराँ का गल्ला हो। दुरैस्वामी की उपस्थिति में उसे यह सम्भव नहीं लग रहा था कि वह अभी रोकड़ गिनने बैठ जाए। उसने तय किया कि वह मधुमालती का पता लगाकर एक दिन उसे पागलखाने में देखकर आएगा। फ्लैट का जीर्णोद्धार कराने में भी उसे विशेष दिक्कत न आएगी। उसे लग रहा था, उसके लायक धन उसे फ्लैट में ही मिल जाएगा।
सम्पूरन फिर से सोफे पर बैठ गया और सिगरेट सुलगा ली। सामने मेज पर एक ऐश-ट्रे रखी थी, उसमें बगैर फिल्टर की सिगरेट के कई टुकड़े पड़े थे। सम्पूरन ने एक सिगरेट उठाकर उसका ब्रांड नाम पढऩे की कोशिश की, मगर सिगरेट कुछ इस अन्दाज में मसले गये थे, जैसे किसी ने उन पर अपना गुस्सा उतारा हो। कुछ टुकड़ों पर लिपस्टिक जैसे दाग थे। उसे लगा, मधुमालती सिगरेट भी पीती थी। हो सकता है, शराब भी पीती हो और एकाध बोतल भी फ्लैट में बरामद हो जाए।
“बहुत सुन्दर स्थान है।” दुरैस्वामी उसके सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया, “तुमको रास आएगा।”
“दुरैस्वामी यह बताओ, मैं पागल तो नहीं हो जाऊँगा। इससे तो अच्छा होगा, मेरा मर्डर हो जाए।”
दुरैस्वामी उसकी तरफ कुछ ऐसी निगाहों से देखने लगा जैसे उसे नहीं, उसके शव को देख रहा हो। सम्पूरन ने उन मातमी निगाहों का दंश महसूस किया, वह खड़ा हो गया और बोला, “दुरैस्वामी ऐसे क्या देख रहे हो?” दुरैस्वामी उसी प्रकार अपने ध्यान में खोया था। सम्पूरन उसकी नजरों के सामने अपना हाथ हिलाने लगा, “क्या हुआ दुरैस्वामी?”
“चलो, अब चलना माँगता।”
“अभी, अभी क्या सोच रहे थे?”
“तुम्हारा मर्डर नहीं होगा।” दुरैस्वामी बोला, “पागल भी नहीं होगे।”
“जिन्दा तो रहूँगा न?” सम्पूरन ने पूछा।
“देर तक जिन्दा रहोगे। मैंने अभी-अभी तुम्हें सफेद बालों में देखा था। बुढ़ापे में भी तुम सूटेड-बूटेड रहोगे। सफेद जूते सफेद मोजे, सफेद दाढ़ी, काला चश्मा, हाफ पैंट में।”
“मैं हाफपैंट पहनूँगा?”
“सफेद हाफ पैंट, लम्बा-सा। बिल्कुल विदेशी लग रहे थे।”
“अब कहाँ जाओगे?”
“नीचे जाकर नाश्ता करेंगे। इडली-दोसा खिलाओ।”
“मुझे भी बहुत तेज भूख लग रही है।”
सम्पूरन ने खिडक़ी दरवाजे बन्द किये और वे लोग बाहर आ गये।
“कुन्दा टूट गया है।”
“कोई वांदा नहीं। कल से काम लगाना है।” दुरैस्वामी बोला, “पैसे का इन्तजाम होगा।”
“कैसे होगा?”
“तुम जानता है।” दुरैस्वामी ने कहा, “जानता है न?” वह हो-हो हँसने लगा। दुरैस्वामी के दाँत चमक रहे थे। सम्पूरन ने सोचा, दुरैस्वामी ने उसे ड्राअर खोलते देख लिया होगा।
नीचे जाकर दोनों सडक़ पार करके उडुपी रेस्तराँ में घुस गये।
सम्पूरन ने मसाला दोसा और काफी का ऑर्डर दिया और चारों तरफ नजर घुमाकर देखा। उसकी बगल की टेबल पर एक शख्स एक झोले में कुछ टटोल रहा था। झोले में से आरी, हथौड़ी वगैरह बाहर झाँक रही थी। सम्पूरन ने उसे अपने पास आने का इशारा किया।
“काय झाला?” उसने पूछा।
“एक जरूरी काम था, करोगे?”
“क्या है?”
“मेरे साथ काफी पिओगे तो बताऊँगा।”
वह शख्स मूँछों में हँसा, “काफी पिलाएँगा? अपुन को इडली खाने का।”
“इडली भी खिलाऊँगा, इधर तो आओ।”
सम्पूरन ने उसके लिए इडली और काफी का ऑर्डर दिया। जब तक इडली दोसा और काफी आयी, सम्पूरन उसे उखड़ी हुई सांकल लगाने के लिए तैयार कर चुका था। दुरैस्वामी को विदा करके वह बढ़ई के साथ अपने शीश महल में पहुँचा।
“यह जूना सांकल किसी काम का नहीं।” बढ़ई ने उस टेढ़े-मेढ़े सांकल को ताले समेत नीचे फेंक दिया। दरवाजा भी जर्जर हो चुका था। बढ़ई ने हथौड़ी से दो-तीन बार ठोंका तो लकड़ी झरने लगी।
“नया दरवाजा माँगता है।” बढ़ई वहीं सीढिय़ों पर बैठ गया और उसने बीड़ी सुलगा ली।
“कितने का खर्च है?”
बढ़ई ने एक लम्बा कश खींचा और बोला, “बाबू नमक खाया है, पच्चास में सब फिट कर दूँगा- दरवाजा, सांकल और गोदरेज का नया ताला।”
“अभी सामान कहाँ मिलेगा?”
“दस बजे तक मिलेंगा।” वह बोला।
सम्पूरन हौसला करके भीतर घुस गया। उसने एक चोर की तरह ड्राअर खोला और मुटिठयाँ भर-भर कर रुपये और रेजगारी ड्राअर में पड़े एक लेडीज पर्स में ठूँसने लगा। पर्स के फीते उसने तोड़ कर फेंक दिये। पर्स में पहले से कुछ पैसे थे। उसका दिल जोर से धडक़ रहा था। बाहर आकर सम्पूरन ने बढ़ई को तीस रुपये दिये और बोला, “ठीक है, दस बजे सामान लेकर आ जाना। मैं यहीं मिलूँगा।”
बढ़ई के पीछे-पीछे वह भी जीना उतर गया। अब वह कहीं इत्मीनान से बैठकर अपनी पूँजी गिनकर व्यवस्थित कर लेना चाहता था। उसने देखा था काफी पुराने किस्म के सिक्के और नोट थे। कई सिक्कों और नोटों पर जार्ज पंचम की तस्वीर थी। उसे उम्मीद थी कुछ चाँदी के सिक्के भी मिल सकते हैं। हो सकता है, कुछ गिन्नियाँ भी हों। अब वह जल्द से जल्द कोई सुरक्षित एकान्त तलाश लेना चाहता था। हर दूसरा शख्स उसे टपोरी और मवाली नजर आ रहा था। चौपाटी पर तो इन लोगों का साम्राज्य रहता है। इस समय उसे सबसे सुरक्षित स्थान दादर का श्मशानघाट ही लगा। सींगदाना चबाते हुए वह खरामा-खरामा श्मशानघाट में घुस गया। उसे ताज्जुब हो रहा था, बम्बई जितना बड़ा शहर था, उसकी शवयात्राएँ उतनी ही वीरान किस्म की होती थीं। बड़े-बड़े लोगों की शवयात्रा में भी दस-बीस से ज्यादा लोग न होते थे। उसने देखा, उसके आगे-आगे एक नौजवान दोनों बाँहों में सफेद कपड़े में लिपटा किसी शिशु का शव लिये जा रहा था। वह अकेला ही जा रहा था। इतनी बड़ी बम्बई में उसे एक भी साथी न मिला था। सम्पूरन कदम बढ़ाकर उसकी बगल में आ गया और पूछा, “आपका बच्चा है?”
उस युवक ने मूड़ी हिलायी और विश्वास में सम्पूरन की तरफ देखा।
“मदत पाहिजे?” उसने पूछा।
“न।” उस युवक ने सिर हिलाया।
“आपका बच्चा है?” सम्पूरन ने फिर से पूछा।
उस युवक ने एक लम्बी साँस छोड़ी और बोला, “हाँ। स्टिलबार्न पैदा हुआ है।”
इस माहौल में सम्पूरन ने पैसे गिनने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। उसे विश्वास हो गया था कि घर के जीर्णोद्धार के लिए उसके पास पर्याप्त राशि है।
उसने सडक़ पर आकर पान वाले से सबसे महँगे सिगरेट का एक पैकेट खरीदा और वहीं खड़े होकर सिगरेट सुलगायी। वह चाहता था कि सिगरेट वाला उसे ठीक से पहचान ले कि उसका एक और ग्राहक यहीं आकर बसने वाला है। जब तक बढ़ई नहीं आया, वह कभी समुद्र पर और कभी दुकान के आस-पास मँडराता रहा। बढ़ई दिखाई दिया तो उसने राहत की साँस ली। बढ़ई सही नाप का दरवाजा ले आया था। जब तक बढ़ई दरवाजा ठोंकता, सम्पूरन भीतर कमरे की तलाशी लेता रहा। वार्ड रोब में उसे एक वजनी गुल्लक भी मिली जो सिक्कों से भरी हुई थी। उसकी जेब में पहले ही पर्याप्त सिक्के थे, उसने उसे वहीं कपड़ों में छिपाकर रख दिया कि आड़े वक्त में काम आएगी।
बढ़ई ने दरवाजा तो फिट कर दिया, मगर वह साधारण-सा दरवाजा सम्पूरन के मनमाफिक नहीं था। उसने तय किया कि जब घर पेंट करवाएगा दरवाजा भी बदलवा देगा। बढ़ई को विदा करके उसने ताला ठोंका और चन्नी की गाड़ी लौटाने कोलाबा की तरफ रवाना हो गया।
सारा जहाँ हमारा
अगले रोज दोपहर तक चन्नी और सम्पूरन की जमानत हो पायी। कचहरी से लौटकर दोनों ने देर शाम तक बीयर पी, खाना खाया। खाना अभी हजम न हुआ होगा कि दोनों स्कॉच पर टूट पड़े। चन्नी अभी सो ही रहा था, जब सम्पूरन उठकर तैयार हो गया।
चन्नी के सूट में लैस होकर सम्पूरन को अपना हुलिया बदला-बदला-सा लगा। उसने जूते भी चन्नी के पहन रखे थे और सुबह जी भरकर उन्हें चमकाया था। चन्नी कोरिया से अपने लिए जो सामान खरीद कर लाया था, उसका पहला इस्तेमाल सम्पूरन ने ही किया। तैयार होने के बाद उसने अपनी गर्दन पर 'मस्क' स्प्रे किया और दफ्तर के लिए रवाना हो गया। चन्नी तब तक सो रहा था, शिप से लौटकर उसे बहुत नींद आती थी। वैसे उसने रात में इतनी स्कॉच चढ़ा ली थी कि उसके दोपहर तक सोते रहने के ही इम्क़ानात थे। स्कूल जाने से पहले सना बड़ी अदा से उसकी तारीफ कर गयी थी।
लेमिंग्टन रोड पहुँच कर वह टैक्सी से कुछ इस अन्दाज से उतरा, जैसे मिनर्वा टाकीज उसी का हो। अपने दफ्तर में पहुँचकर उसने झाड़-पोंछ करते हुए अपनी आगे की रणनीति बना डाली। सुबह का अखबार देखकर उसने कुछ इंटीरियर डेकोरेटर्स को फोन मिलाया। वह उन लोगों को प्राथमिकता दे रहा था, जिनके विज्ञापन आकार में बहुत छोटे छपे थे। उसने फोन पर ही अपने फ्लैट को पेंट करवाने के कोटेशन्स लेने शुरू कर दिये। कोई आधा दर्जन फोन मिला कर उसने 'इन्द्रधनुष' के प्रतिनिधि को बुलवाया। जब तक 'इन्द्रधनुष' का प्रतिनिधि आता, वह ड्राअर खोलकर मिसेज क्लिफ्टन की फाइलें पलटने लगा। उसने फाइलें पढक़र उन प्रतिष्ठानों की एक सूची तैयार की जिन पर 'क्लिफ्टन पार्क एंड ली' का बक़ाया था। उसे यह सोचकर हैरानी हुई कि मिसेज क्लिफ्टन हजारों रुपये बट्टे खाते में डाल गयी थीं। सम्पूरन ने पाया कि वह केवल डाक से स्मरण पत्र भिजवाती थीं। उन्होंने कभी किसी आदमी को वसूली के लिए रवाना नहीं किया। सम्पूरन ने गुजराती संस्थानों के नाम अलग कर लिये और उनकी सूची बनाने लगा। उसे लग रहा था, गुजराती आदमी धन्धे के प्रति ज्यादा ईमानदार होते हैं। 'वोरा एंड वोरा' कम्पनी के ऊपर नौ हजार सात सौ बारह रुपये बक़ाये थे। सम्पूरन को एहसास था कि इतनी बड़ी रकम कोई शख़्स नकद न देगा और 'क्लिफ्टन पार्क एंड ली' के खाते बन्द हो चुके थे। उसने समय बिताने के लिए 'वोरा एंड वोरा' से हिसाब चैक करने के लिये दोपहर तक का समय माँगा। इस बीच 'इन्द्रधनुष' का प्रतिनिधि आकर बैठ गया था। सम्पूरन जानबूझ कर फोन पर बातचीत बढ़ा रहा था। जब उसे विश्वास हो गया कि अब तक 'इन्द्रधनुष' का प्रतिनिधि उससे प्रभावित हो चुका होगा, उसने फोन काट दिया। प्रतिनिधि ने अपना परिचय-पत्र दिखाया और कोटेशन दिया।
सम्पूरन ने चश्मा उतार कर मेज पर रखा और कहा, “देखिए, आप सबसे पहले एक कमरा पेंट करवा दें। काम पसन्द आया तो मैं पूरा फ्लैट पेंट करवा लूँगा” सम्पूरन ने फ्लैट का पता दिया और कल से काम लगाने के लिए कहा। बाद में उस प्रतिनिधि के साथ काफी पीते हुए उसे यह पता लगाने में ज्यादा मेहनत न पड़ी कि 'इन्द्रधनुष' का प्रतिनिधि 'इन्द्रधनुष' का मालिक भी है और अभी पिछले महीने ही उसने काम शुरू किया है। इससे पहले वह शिरोडकर के यहाँ काम करता था, जिसके पास एशियन पेंट्स की एजेंसी थी। शिरोडकर के साथ काम करते-करते वह इस व्यवसाय के सारे पेचोखम समझ गया था और अब घर से काम कर रहा था। घर में उसकी बीवी है और एक बच्चा, जो अभी दस महीने का है। उसकी पत्नी कलाकार है और एक ऐड ऐजेंसी में काम करती है। उसने प्रेम विवाह किया था और शादी के बाद वह पत्नी से कम तनख्वाह की नौकरी नहीं करना चाहता था।
“ठीक है, आप कल से काम लगवा दें।” सम्पूरन ने कहा और जेब से सौ रुपये का एक चमचमाता नोट उसे अग्रिम भुगतान के तौर पर दे दिया। 'इन्द्रधनुष' का मालिक सौ रुपये पाकर कृतकृत्य हो गया और सम्पूरन के फोन से अगला एपॉयंटमेंट लेकर सान्ताक्रूज के लिए रवाना हो गया।
सम्पूरन ने दोपहर बाद 'वोरा एंड वोरा' को दोबारा फोन मिलाया। “आपका हिसाब तो ठीक है, मगर बहुत पुराना हो चुका है।”
“छोटा-सा पेमेंट था, इसलिए कभी इस तरह तक़ादा नहीं किया। अब देख रहे हैं कि छोटे-छोटे बिल भी लाखों में पहुँच गये हैं। आजकल हमारे दफ्तर में युद्ध स्तर पर यही काम चल रहा है।”
“वह तो ठीक है। कुछ आप छोडिय़े, कुछ हम छोड़ते हैं, ताकि नये सिरे से काम शुरू हो।”
सम्पूरन ने सोचा, चिडिय़ा हाथ से निकल न जाए, उसने कहा, “देखिये, नौ हजार सात सौ का बिल है। हम सात सौ रुपये छोड़ देंगे अगर आप आज ही भुगतान कर दें।”
“ठीक है, आज चार बजे पक्की रसीद के साथ आदमी भेज दीजिये। फुल एंड फाइनल पेमेंट की रसीद।”
“शुक्रिया।” सम्पूरन ने कहा और रिसीवर रख दिया। दफ्तर में उसे रसीदी टिकट कहीं न मिला, रसीद की कॉपी जरूर मिल गयी। वह नीचे उतरा और पैदल ही रसीदी टिकट खरीदने निकल गया। उसने एक साथ सौ रसीदी टिकटें खरीद लीं और रेस्तराँ में घुस गया।
ठीक चार बजे वह 'वोरा एंड वोरा' कम्पनी के रिसेप्शन पर खड़ा था। बिना किसी हुज्जत के उसकी नयी कम्पनी का पहला भुगतान मिल गया। अब उसके सामने दो जरूरी काम थे। पहला 'क्लिफ्टन एंड पार्क ली' के नाम से बैंक में खाता खोलना और दूसरा अपने फ्लैट को रहने लायक बनाना। क्लिफ्टन कम्पनी की रसीद बुक पर उसने प्रोपराइटर के नीचे अपने दस्तखत बनाये थे और दस्तखत करने के बाद से वह अपने को सचमुच कम्पनी का मालिक समझ रहा था। क्लिफ्टन साहब हमेशा 'गोल्ड फ्लेक' नाम का सिगरेट फूँका करते थे, उनके हाथ में हमेशा 'पान पराग' के डिब्बे के आकार का सिगरेट का डिब्बा रहता था, जिसमें पचास सिगरेट रखे रहते थे। सम्पूरन नीचे जाकर 'गोल्ड फ्लेक' का वैसा डिब्बा खरीद लाया। उसने पटरी पर से एक खूबसूरत लाइटर भी खरीद लिया। वह आगे की कोई योजना बनाता, इससे पूर्व उसके मन में यह ख्याल कौंधा कि क्यों न एक रिसेप्शनिस्ट रख ली जाए। उसने तुरन्त एक छोटा-सा विज्ञापन तैयार किया कि 'क्लिफ्टन पार्क एंड ली' के लिए एक स्मार्ट युवा रिसेप्शनिस्ट की जरूरत है, तीन दिन के भीतर ग्यारह से एक के बीच सम्पर्क करें। उसके बाद वह दफ्तर की सफाई में जुट गया। उसने बेमतलब के कागज रद्दी की टोकरी में फेंकने शुरू किये। टोकरी भर गयी तो सिगरेट सुलगा कर स्वर्ण से फोन पर बतियाने लगा। अगले रोज के लिए उसने कई काम पैदा कर लिये थे, जैसे फ्लैट की पुताई, रिसेप्शनिस्ट का चुनाव, बैंक एकाउंट खोलना, वगैरह-वगैरह।
मिसेज क्लिफ्टन की फाइलों का निस्तारण और अध्ययन करते हुए सम्पूरन के मन में कई बातें स्पष्ट होने लगीं। उसने महसूस किया कि 'क्लिफ्टन पार्क एंड ली' का दो नम्बर के किसी काम में विश्वास न था। हर चीज आईने की तरह साफ थी, यहाँ तक कि अगर मिस्टर क्लिफ्टन कब्र से उठकर आ जाएँ तो बगैर किसी की मदद के अपना काम दुबारा सँभाल सकते हैं। प्रत्येक फाइल पर सीरियल नम्बर था और वे क्रम से ही रखी रहती थीं। फाइल ढूँढने के लिए भी एक-एक फाइल पलटने की जरूरत नहीं थी। एक रजिस्टर था, जिसमें पार्टी का नाम लिखा था और उसी के नम्बर की फाइल तुरन्त निकाली जा सकती थी। सम्पूरन ने कभी किसी दफ्तर में क्लर्की नहीं की थी, मगर दफ्तर के रख-रखाव से ही उसे दफ्तर का काम समझ में आने लगा। पाँच बजे जब स्वर्ण का फोन आया तो उसे पता चला कि पाँच बज गये हैं। स्वर्ण को उसने बताया कि कैसे चन्नी के वकील ने जमानत दिलवा दी और वह अब चन्नी के यहाँ ही शिफ्ट होने की सोच रहा है। जब तक उसका फ्लैट तैयार नहीं हो जाता वह चन्नी के पास ही रहेगा। स्वर्ण चाहे तो वह भी आ सकता है। “मैं?” स्वर्ण ने आश्चर्य प्रकट किया, “मैं तो अब दुबारा चन्नी के यहाँ न जाऊँगा। मेरी मानो तो तुम भी अँधेरी चले आओ, वरना वह कब हवालात में पहुँचा दे, कोई भरोसा नहीं।”
“मैं तुम्हारी तरह बुजदिल नहीं। चन्नी को मैं अच्छी तरह जानता हूँ, वह उस छिनाल औरत को ऐसा सबक पढ़ाएगा कि दुबारा चन्नी पर अँगुली उठाने की जुर्रत न करेगी। तुम इतना बमक क्यों जाते हो, दो-चार पैग और मुर्गमुसल्लम अन्दर करो और लौट जाओ।”
“न बाबा न!” स्वर्ण ने हाथ जोड़ दिये, “कल शाम को तुम्हारे दफ्तर आऊँगा।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी।” सम्पूरन ने कहा और रिसीवर रख दिया। उसने अपना काम समेटा और दफ्तर में ताला ठोंक नीचे उतर गया। सडक़ पर उसने एक टैक्सी रोकी और बोला, “कोलाबा।” चन्नी के फ्लैट की घंटी दबायी तो दरवाजा रेखा ने खोला। उसे देखकर लग रहा था, वह सीधे बेडरूम से उठकर आ रही है। उसने जल्दबाजी में ड्रेसिंग गाउन लपेट रखा था। सम्पूरन को देखकर उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कराहट फैल गयी, “तुम फिर आ गये आग लगाने?”
“कैसी आग?” सम्पूरन ने पूछा, “चन्नी कहाँ है?”
“चन्नी बेडरूम में है और मज़े में है। कोई मैसेज हो तो बता दें।” उसने कहा।
“चन्नी ने मुझे बुलाया था।”
“कब?”
“सुबह ही कह रहा था, दफ्तर के बाद चले आना।”
“तुम तो जानते ही हो, चन्नी कितना भुलक्कड़ है।”
सम्पूरन ने रेखा के तेवर देखे तो बहस में पडऩा मुनासिब न समझा। “गॉड ब्लेस यू।” सम्पूरन ने कहा और उल्टे पाँव लिफ्ट की तरफ बढ़ गया।
अब वह दोबारा सडक़ पर था। उसे शराब की बहुत तेज तलब हुई। उसने शिवेन्द्र के यहाँ जाने की सोची और टैक्सी में चर्चगेट की तरफ रवाना हो गया। रेखा की वापसी से वह एकदम हतप्रभ था और उसके रवैये से आहत। चर्चगेट पर इंडसकोर्ट में जाने की बजाय वह स्टेशन की तरफ चल दिया। रेखा के व्यवहार से वह अत्यन्त आहत हो गया था और उसे अपने मित्र चन्नी पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि उसने बाहर निकल कर उससे बात करना भी गवारा न समझा।
अँधेरी पहुँचकर वह सीधा स्वर्ण की लॉज पर गया। उसे देखकर विट्ठल ने घोषणा कर दी, “स्वर्ण नहीं है। कमरे में ताला बन्द है।”
“चाबी तो होगी?”
“नहीं, चाबी स्वर्ण के ही पास है।”
सम्पूरन उल्टे पैर लौट गया। इस वक्त उसे मेरी की याद आयी। उसे देखते ही मेरी ने नौटांक का पैग भिजवा दिया। सम्पूरन को धक्का-सा लगा कि मेरी अभी तक उसे चिरकुट ही समझ रही है। उसने मेरी को बुलवाया और उसके सामने पैग पटक कर फैला दिया, “क्या है मेरी, बहुत जल्द भूल गयी कि मैं अब ठर्रा नहीं पीता।”
“ये छोकरी लोग मनमानी करता है।” मेरी ने कहा, “क्या आज भी मुर्गमुसल्लम मँगवाओगे।”
“पहले मुँह तो गीला करवाओ।” सम्पूरन ने कहा और जेब से गोल्ड फ्लेक का सिगरेट निकाल कर सुलगा लिया। उसे एक-एक मिनट भारी पड़ रहा था। दो एक घूँट में ही उसने पैग का काम तमाम कर दिया। जाने कैसी विस्की थी कि उसके मुँह का स्वाद कसैला-सा हो गया, जैसे ताँबे का अर्क पी लिया हो। दूसरा पैग पीने की उसकी इच्छा न हुई। वह वहाँ से उठा रास्ते में चौरसिया के यहाँ से एक पान बनवाया, “खुशबू के अलावा सबकुछ डाल दो, यानी सौंफ, लवंग, इलायची और सिकी हुई सुपारी।” सम्पूरन ने कहा और पान चबाते हुए दोबारा स्वर्ण की लॉज की तरफ चल दिया। पान चबाने से उसके मुँह का स्वाद कुछ बेहतर हो गया था। उसकी कुछ देर तक कहीं सुस्ताने की इच्छा थी, मगर यह मुम्बई शहर कुछ ऐसा था कि ऐसी जगहें अव्वल तो थीं नहीं और थीं भी, तो उस पर पहले से निठल्ले लोग विराजमान रहते थे। वे लोग ऐसे चिपक कर बैठे थे, जैसे उनके उठते ही जगह पर कोई दूसरा आदमी काबिज हो जाएगा। उसे अफसोस हुआ वह यों ही तेवर में अन्धेरी चला आया, इससे तो कहीं अच्छा था कि मैरीन ड्राइव पर समुद्र के किनारे, किसी बैंच पर थोड़ी देर आराम फर्मा लेता।
स्वर्ण की लॉज में पहुँचा तो पता चला स्वर्ण अपने किसी फ़िल्मी शायर के साथ वीक एंड मनाने माथेरान चला गया है और सोमवार को सुबह लौटेगा।
“आज क्या वार है?” उसने स्वर्ण के पड़ोसी राघव से पूछा, जिसने स्वर्ण के माथेरान जाने की सूचना दी थी।
“शनिवार है।” उसने कहा और अपने कमरे की ओर रुख कर लिया। सम्पूरन ने जेब से अपने फ्लैट की चाबी निकाली और उसे घूरते हुए बोला, लगता है, तुम मुझे चैन से न रहने दोगी। मगर मैं भी जिद्दी आदमी हूँ। इस तरह से आत्म-समर्पण नहीं करूँगा।”
वह काउंटर की तरफ बढ़ गया और काउंटर पर अपनी कोहनी जमाते हुए बिट्ठल से बोला, “यह लो पैसे, दो ठंडा कोक मँगवाओ।”
“क्या एक साथ दो कोक पिओगे?”
“नहीं, एक तुम्हें पिलाऊँगा।”
“मैं न पिऊँ तो?” बिट्ठल ने पूछा।
“तुम्हारा मुँह खोलकर उँड़ेल दूँगा।” उसने बिट्ठल का गाल छूते हुए कहा, “इतना तन कर बैठे रहोगे तो जल्द ही तुम्हारी रीढ़ में दर्द बैठ जाएगा। बम्बई का क्लाइमेट ही ऐसा है। जल्दी मँगवाओ, लौकर।”
बिट्ठल ने घंटी बजायी और दो कोक मँगवा लिये। सम्पूरन के साथ-साथ वह भी सिप करने लगा।
“स्वर्ण के कमरे की डुप्लीकेट है क्या?”
“नहीं।” बिट्ठल ने कहा, “कोई कमरा भी खाली नहीं। तुम कहाँ जाओगे?”
“कहीं नहीं जाऊँगा, तुम्हारे कमरे में सोऊँगा।”
“एक कोक की कीमत पर?”
“विस्की भी पिलाऊँगा।”
“हम विस्की नहीं छूता। यह सब करेगा तो बच्चा लोग भूखे मर जाएँगे।”
“कहाँ हैं बच्चा लोग?”
“जिला सतारा में। आजकल तुम्हारी तरह का एक निठल्ला साला आया हुआ है। मेरी खाट पर तो वह सो रहा है।”
“तुम हमको चरका दे रहा है। देख बिट्ठल बहुत हो चुका, तू अब चुपचाप मेरे सोने का कोई बन्दोबस्त कर दे, वरना कभी बात न करूँगा। यह देखो, शिवाजी पार्क में मेरे फ्लैट की चाबी है। कल से सफाई कराऊँगा, तुम्हारी नौकरी छूटे तो वहीं आ जाना।”
“सच में, फ्लैट का चाबी है? क्या फ्रॉड किया तुमने?”
“कोई फ्रॉड-व्रॉड नहीं किया, कमाया है यह फ्लैट मैंने। तीस हजार तो पगड़ी दी है।” सम्पूरन को लगा कि तीर निशाने पर बैठ रहा है।
“नीचे गोदाम में एक तख्त पड़ा है, तू उसी पर सुस्ता ले।”, बिट्ठल बोला, “इसके अलावा भगवान कसम कोई खाट खाली नहीं है। अपुन सच बोलता।” बिट्ठल उसे एक अन्धेरी कोठरी में ले गया। सम्पूरन ने बिजली के तमाम स्विच ऑन कर दिये, तो पंखा इंजन की-सी आवाज करते हुए चलने लगा और एक पीले बल्ब की रोशनी कमरे की कलई खोलने लगी, जो थोड़ी बहुत बची थी। तख्त पर आलू, प्याज और टमाटर का एक झौवा, चावल का कनस्तर और कुछ बर्तन पड़े थे।
“तख्त खाली करो।” सम्पूरन ने आदेश दिया।
“खुद ही कर लो, मै काउंटर नहीं छोड़ सकता।”
सम्पूरन तख्त पर से तमाम चीजें उठाकर फेंकने लगा। सब्जी का झौवा फेंका तो आलू, प्याज कमरे में बिखर गये। उसने अन्यमनस्क भाव से सामान तख़्त से उतार दिया और एक कपड़े से तख्त झाडऩे लगा। तकिये के बगैर लेटने की उसकी आदत न थी, उसने पिसे हुए आटे के झोले को कस कर बाँधा और उस पर रूमाल बिछाकर लेट गया। उसका इरादा था कि कुछ देर सुस्ताकर वह मेरी के यहाँ बोतल ले जाएगा और वहीं खाना खाकर लौटेगा, मगर उसे उस उमसभरी कोठरी में भी ऐसी नींद आयी कि रात बारह बजे उसकी नींद खुली। उसे भूख महसूस हुई तो उसने नमक लगाकर तीन-चार टमाटर खा लिये और दुबारा नींद की आगोश में चला गया।
सुबह पाँच बजे के करीब उसकी नींद खुली तो उसने पाया रात भर उसे ऐसे सपने आते रहे कि वह किसी पाँच सितारा होटल में विश्राम कर रहा है। उसने कमरे में ही मँगवाकर भोजन किया था। बैरे हाथ जोड़े उसके आदेशों का पालन कर रहे थे। बैरे सफेद पोशाक में थे, मगर उनके चेहरे किसी फ़िल्म के नेगेटिव की तरह थे। वे रातभर उसकी सेवा में लगे रहे। सुबह बैरों को याद कर उसे लगा कि बैरे नहीं, जैसे भूत-प्रेत थे। चलती-फिरती छायाएँ।
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