1 / अमृता प्रीतम
ज़िदगी के उन अर्थों के नाम— जो पेड़ों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं और झड़ जाते हैं ! दो खिड़कियाँ इमारतों-जैसी इमारत थी, पाँच मंजिलोंवाली, जैसी और, वैसी वह। और जैसे औरों में पन्द्रह-पन्द्रह घर थे, वैसे ही, उसमें भी। बाहर से कुछ भी भिन्न नहीं था, सिर्फ अंदर से.... ‘‘यह जो एक-सा दिखते हुए भी एक-सा नहीं होता, यह....’’डाँका इस ‘यह’ के आगे खाली जगह को देखने लगती... ‘‘खाली जगह का क्या होता है, उसे जब तक चाहे देखते रहो....पर जो खाली दिखता है, क्या सचमुच ही खाली होता है...’’ और डाँका को लगता जैसे ऐसी बहुत-सी बातें थीं जिनके शब्द उनके पास रह गए थे और अर्थ उस खाली जगह चले गए थे....
आज भी डाँका अपने बड़े कमरे की एक-एक चीज़ को देखती हुई शब्दों को ढूँढ़ने लगी, ‘‘न सही अर्थ, शब्द ही सही, पर वे भी कहाँ हैं ?’’ डाँका के बड़े कमरे में दो खिड़कियाँ थीं। आगेवाली खिड़की की तरफ बड़ी सड़क थी, वहाँ बड़ी रात तक लोग आते-जाते रहते थे। पर पीछे की खिड़की की तरफ एक जंगल था, जिसके पेड़ कहीं आते-जाते नहीं थे। और डाँका दोनों खिड़कियों को देखते-देखते रो-सी पड़ती, ‘‘लगता है शब्द आगेवाली खिड़की में से निकलकर बाहर बड़ी सड़क पर चले गए हैं, और अर्थ पीछे की खिड़की में से निकलकर बाहर जंगल में चले गए....’’
और उन दोनों खिड़कियों के बीच जो जगह थी, डाँका को लगा—वह दो देशों की सरहदों के बीच छोड़ी गई थोड़ी-सी जगह थी, जहाँ वह कई वर्षों से खड़ी थी। बड़ी अकेली थी, पर वर्षों से वहीं खड़ी थी। उसे ख्याल आया कि वह कभी इधर की या उधर की सरहद पार कर किसी एक तरफ क्यों नहीं चली गई थी ? पर उसे लगा—उसके पाँव जैसे वर्षों से हिलते नहीं थे। और वह हमेशा वहीं की वहीं खड़ी रही थी। आगे की खिड़की में से बड़ा शोर आता था—लोगों के पाँव, ट्रामों के पहिए—जैसे शब्दों का खड़ाक होता है, पर पीछे की खिड़की में से कोई खड़ाक नहीं आता था—जैसे अर्थों का कोई खड़ाक नहीं होता, और सिर्फ पेड़ों के पत्तों की तरह चुपचाप उग आते हैं, और चुपचाप झड़ जाते हैं।
कमरे की चीज़ें भी वैसी ही थीं, जैसी वह आप। एक गहरी लाल मखमल का, शाही किस्म का दीवान था, जिसके ऊँचे बाजुओं पर सोने के रंग का पत्तर चढ़ा हुआ था। एक तरफ काली और चमकती हुई लकड़ी का मेज था, जिस पर नक्काशी का काम किया हुआ था। एक तरफ अलमारी थी, जिसमें लम्बी गर्दन वाली काँच की सुराहियाँ थीं, नीले फूल से चित्रित प्लेटें थीं, और चाँदी के काँटे और चाँदी के चम्मच थे। तीनों दीवारों पर आयल पेंट की तीन बड़ी तस्वीरें थीं, जिनके बड़े-बड़े चौखट सोने के रंग के पत्तरों से मढ़े हुए थे। और इस बड़े कमरे के दूसरे कोने में रखा खाना खानेवाला एक बहुत बड़ा मेज था, जिसके गिर्द मखमल की, ऊँची पीठवाली, आठ कुर्सियाँ थीं। इसी बड़े कमरे में से एक दरवाजा एक छोटे कमरे में खुलता था, जिसमें एक पलँग था जिस पर रेशम की एक बहुत बड़ी शानदार चादर बिछी हुई थी। उसके दोनों तरफ रखी हुई पीतल, की तिपाइयों पर मीनाकारी की हुई थी। इसी कमरे की एक दीवार के साथ किताबों की अलमारी थी, जिसके खानों में बड़ी मँहगी जिल्दोंवाली किताबें चुनी हुई थीं।
इस सबकुछ की उमर भी डाँका जितनी थी—क्योंकि डाँका के बाप ने बताया था कि उसने यह सब डाँका के जन्म पर खरीदा था। और अब जैसे डाँका की जवानी ढल गई थी, इन चीजों की चमक-दमक भी ढल गई थी—सोने के रंग के पत्तर बुझ गए थे, मखमल फीका पड़ गया था। ये चीज़ें भी डाँका की तरह बड़ी अकेली थीं—वह मेज पर खाना खाने बैठती तो आठ में से सात कुर्सियाँ खाली रह जातीं। नीले फूलोंवाली प्लेटों में से सिर्फ एक पानी से धुलती। चाँदी के चम्मचों में से सिर्फ एक चम्मच का इस्तेमाल होता। और रेशमी चादरवाले बड़े पलँग का सिर्फ एक कोना किसी जिंदा आदमी की साँसें सुनता। आज पीछे की खिड़की में खड़े-खड़े डाँका को वह वक्त याद आ गया—जब ये सब-की-सब चीजें कहीं अलोप हो गई थीं। उसे, उसकी माँ की, और उसके बाप को, बागियों ने आधी रात को उनके घर से निकाल दिया था, घर और घर की एक-एक चीज़ छीन ली थी। फिर उन तीनों को एक कैम्प में रखा गया था, जहाँ से वे एक दिन उसके बाप को वहाँ ले गए थे जहाँ से वह कभी वापस नहीं आया था। और माँ पगलाई-सी मांस की एक गठरी बन गई थी। तब डाँका—एक कुँआरी कन्या....
उसका कौमार्य, डाँका को लगा, एक मर्द ने नहीं, राजनीति की एक घटना ने भंग किया था : राज्य बदला और राज्य का प्रबंध बदला। किसी का किसी चीज़ पर कोई हक नहीं रह गया था। किसी का किसी तरह के एतराज पर कोई अधिकार नहीं रह गया था। काम भी वही करना होना था, जिसका हुक्म मिले, सोचना भी वही होता था जिसका फरमान हो। डाँका को उसके बाप ने तीन जुबानों की तालीम दी थी—एक अपने देश की जुबान, एक फ्रैंच और एक जर्मन—। इतनी तालीम किसी विरले के पास थी, इसलिए नई राजनीति को उसकी जरूरत थी। और डाँका ने जब उन जुबानों में वही लिखना शुरू किया, जिसका उसे हुक्म मिला था—तो उसे लगा—जैसे सरकारी हुक्म ने एक उचक्के मर्द की तरह उसका कौमार्य भंग कर दिया था।
बाप का कत्ल हुआ था, पर डाँका ने कत्ल होते अपनी आँखों से नहीं देखा था। माँ जिस तरह से जी रही थी, उसे तब आँखों से देखना ऐसा था जैसे कोई रोज़ किसी को तिल-तिल कत्ल होते देखे। माँ चारों तरफ देखा करती थी पर पहचानती कुछ नहीं थी। कभी डाँका का हाथ पकड़कर दूर तक देखते हुए पूछा करती, ‘‘हम कहाँ आ गए हैं ? हमारा शहर कहाँ गया ? यह किसका घर है ?’’ तो डाँका रोने-रोने को हो उठती थी... और जब कुछ शांति सी हुई थी, डाँका को रहने के लिए यह घर मिला था, तब डाँका को एक ख्याल आया था—उसने ऊँची पदवी के अधिकारियों की मिन्नत की थी कि वह पहले से भी ज्यादा उनके हुक्म में रहेगी सिर्फ अगर कभी उसकी खिदमतों के बदले में से उसे कुछ वह सामान लौटा दिया जाए, जो कभी उसके बाप के वक्त घर में हुआ करता था। डाँका की यह दरख्वास्त मंजूर हो गई थी और डाँका के इस ख्याल ने सचमुच ही उसकी मदद की थी—माँ की आँखों में कुछ पहचान लौट आई थी। कई बार वह उठकर मेजों की कुर्सियों को खुद पोंछने लगती थी। और फिर उसने यह पूछना छोड़ दिया था कि यह घर किसका था।
सो डाँका के घर में कुछ वही चीज़े थीं, जो एक दिन अलोप भी हुई थीं और प्रकट भी। ‘‘पर,’’ डाँका सोचा करती, ‘‘जो कुछ ख़्यालों और सपनों में से अलोप हो गया है, वह ?....’’ और डाँका उस ‘वह’ के आगे की खाली जगह को कितनी-कितनी देर तक घूरती रहती...