24 अप्रैल, 1946 / अमृतलाल नागर
कज सबेरे पंतजी, नरेंद्र, प्रतिभा और मैं फिर यहाँ आ गए। इस बार यहाँ आने पर हम सब बड़े प्रसन्न हुए। वातावरण से परिचय था, इसलिए फिर देखकर नेह हुआ। कल शाम ध्यान में मन बहुत अच्छा था - हलकापन आनंद की छाया दे रहा था। श्री माँ के आने पर ध्यान अच्छा न जमा। कपाट जैसे बंद हो गए। लडा, पर असर न हुआ। विकृतियाँ और बढ़ीं। श्री माँ के दर्शन करने गए। मन ने कैसे कुछ गया हूँ। अधिक नहीं पाया। ...एक यह एक impression है। मैं सो तो नहीं रहा, पर खो जरूर भटकने का दायरा भी लंबा नहीं। कोल्हू का चक्कर है - पर लगता है बहुत बडे घेरे में। अहं unsolved ही रहा -उसकी विकृतियाँ जबर्दस्ती पकड़कर बैठी है। कभी हिल जाती हैं, परंतु जड़ तो गहरी जमी हुई हैं ही। बहुत दूर से अनुभव करता हूँ तबीयत के खिलाफ यह बुरापन कहीं बहुत गहरे में टीसें उठा रहा है। उनकी बाह्य चेतना दर्द के रूप में नहीं आती। आप ही अच्छा, आप ही बुरा। बुरा अच्छा नहीं बना तो शर्म करते-करते बेशर्म बन रहा है। लापरवाही की आड़ है। अच्छा हारा हुआ उपदेशक है। वह उपदेशक मात्र ही - है कर्मठ, विचारक, कर्मठ, सत्यानुरागी जो साल-सवा-साल पहले एक बार झलक था-वह अब कहीं नहीं दीखता। प्रभु मेरी रक्षा करो -
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