12 जुलाई, 1946 / अमृतलाल नागर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज हम लोग बंबई जा रहे हैं। काम खत्‍म हो गया। फिल्‍म में फिलहाल सारे काम खत्‍म हो गए। यू.पी. जाना है। बच्‍चों के पास भी अधिक रहने का निश्‍चय है। दूसरा उपन्‍यास आरंभ करना है। 'बूँद और समुद्र' की छपाई आदि के विषय में देखना है। मद्रास में जो कैद-सी महसूस कर रहा था वह खुलती हुई नजर आती है। लेकिन इस आजादी का सदुपयोग होगा क्‍या? मैं अपने लिए पहेली तो नहीं, मगर मजाक जरूर बन गया हूँ। मैं अपने-आप को अब खलता हूँ। मेरा बड़प्‍पन अब तो मुझे खुद ही दबाए दे रहा है। बेवकूफियों के झकोले मेंरे लिए शर्म हैं। मगर हैं तो ! हारा नहीं, मगर थक गया हूँ। - नए दायरे में लाओ, जहाँ स्‍थायी शुद्धता हो, शांति हो, आनंद हो, कर्म हो, गति हो ! अब आँख मिचौली का समय नहीं !

बंबई-आगरा