26 जनवरी, 1946 / अमृतलाल नागर
स्वाधीनता दिवस
कल, जब हम चले थे तब तक लूटपाट और गोलियाँ चल रही थीं। स्वाधीनता दिवस की आड़ लेकर आज भी बहुत कुछ होना स्वाभाविक है। हम दूर से देख सकते हैं, जोश कितने गलत तरीके से नष्ट हो रहा है। उस भीड़ में मैं यदि होता तो क्या मुझ पर कुछ असर न पड़ता? क्या मैं अभी भी दिमाग का कच्चा हूँ? ...किसी हद तक... यह मानना ही पड़ेगा।
मद्रास ठीक समय पर आ पहुँचे। रास्ते में दो गुजराती श्री शांतिलाल माणेकजी और श्री जयंती भाई चौकसी तथा एक सीलोन प्रवासी व्यापारी बोहरी (बोहरा) मुसलमान भाई थे। शांतिलाल किसी रईस के बेटे, किसी हद तक प्रतिभावान और मस्त तथा अहंवादी भी हैं। गुरुकुल कांगड़ी में पढ़े हैं। साथ के फर्स्ट क्लास में बैठे थे। जयंती भाई के बाल मित्र, अतः बीच-बीच में आते थे। जयंती भाई ने अपनी भुजा का कमाया है। स्वभाव में सीधापन खूब है, अपनी ही बातें किंतु बड़े अच्छे ढंग से। मुसलमान बेहद शरीफ, गंभीर और अनेक तरह से अपने उसूलों के पक्के लगे। साथ बहुत भाया। मुसलमान भाई ने सीलोन आने का निमंत्रण दिया है।
स्टेशन पर आल्तेकरजी थे। मिले। पंतजी से घर आकर भेंट हुई। पंतजी आज सवेरे हिंदी प्रचार सभा महोत्सव में गए थे। कविता पाठ आदि हुआ। उन्हें आज हरारत हो गई है। उन्हें देखकर हम दोनों प्रसन्न हुए। मामा वरेरकर भी यही हैं। अच्छे लगे।
नई जगह में हमारी और प्रतिभा की पहली शाम है। अचला भी इस बार साथ नहीं-वह अपने भाइयों के साथ इस समय आगरा में हँस-खेल रही होगी।
चौदह वर्ष के विवाहित जीवन में पहली बार हम दोनों ने एक साथ इतनी लंबी यात्रा की है। नया-सा लग रहा है। एक ताजगी महसूस कर रहे हैं। एक कमरा मिल गया है - बाथरूम मिला हुआ है। बाग सामने है। हम लोग मजे में हैं।
15 अगस्त 1947 के पूर्व 26 जनवरी को ही स्वाधीनता दिवस के रूप में अभिहित किया जाता था।