2 / अमृता प्रीतम
डाँका ने मेज की एक दराज खोली, इस दराज में वह कुछ सिगरेट रखा करती थी, जो उन बोझिल पलों में पिया करती थी—जब उसके प्राण, सिगरेट के धुएँ की तरह, एक धुआँ-सा बन हवा में घुल जाना चाहते थे... उसे वह दिन भी याद था, जब उसने पहला सिगरेट भी पिया था। एक दिन माँ पलँग की रेशमी चादर को पलँग पर बिछा रही थी कि उसे अचानक याद हो आया था, ‘‘डाँका ! यह चादर तुम्हारे पिता चीन से खरीदकर लाए थे, देखो मैंने उसे कितना सँभालकर रखा है।’’ जवाब में डाँकी की आवाज काँप गई थी, उसे खौफ-सा हुआ था कि अभी माँ को अपने मर्द की याद आ जाएगी और वह फिर बैठी-बैठी रोने लगेगी। पहले भी कई बार उसे बैठे-बैठे कुछ हो जाया करता था, पर गनीमत यह थी कि उसकी माँ को यह नहीं पता था कि उसका मर्द कत्ल हो चुका था। उसके अचानक गुम हो जाने के सदमे ने उसके होश कुछ इस तरह छीन लिए थे कि उसने खुद ही सोचा और खुद ही विश्वास बना लिया कि उसका मर्द किसी दूर देश में तिजारत करने के लिए चला गया था, पर उस दिन डाँका को लगा—माँ के होश लौट रहे थे, घर की चीजों ने उसकी कुछ पहचान लौटा दी थी, अगर उसे कैंप के दिनोंवाली लोगों की खुसर-पुसर याद हो आई...
डाँका ने उसका ध्यान चीज़ों में ही लगाए रखने के लिए जल्दी से पूछा था, ‘‘माँ, यह इतना खूबसूरत पलँग कहाँ से बनवाया था ?’’ ‘‘तुम्हारे पिता एक तस्वीरों वाली किताब लाए थे, मालूम नहीं कहाँ से, उसमें इस पलँग का नमूना था....’’ ‘‘कुर्सियों का नमूना भी उसमें था ?’’ ‘‘हाँ, कुर्सियों का भी...ऐसी रंगीली तस्वीरें थीं, जैसे कुर्सियों पर सचमुच ही मखमली लगी हुई हो...’’ ‘‘और माँ, ऐसी प्लेटें भी तो किसी और के पास नहीं...’’ ये तो वे फ्रांस से लाए थे, देखो मैंने इनमें से एक भी नहीं टूटने दी, अभी तक पूरी बारह हैं, गिनो तो भला...’’ डाँका चाहती थी कि माँ का ध्यान कहीं लगा रहे, भले ही प्लेटें और चम्मच गिनने में ही। पर उसे उसमें भी कठिनाई-सी अनुभव होती थी जब माँ को कुछ ऐसी ही चीजें याद आ जाती थीं, जो अब वहाँ नहीं थीं। एक दिन तो माँ ने मोतियों की एक कंघी के लिए सारा दिन मुसीबत किए रखी थी—एक-एक चीज़ खोलती और रखती और वह कंघी को ऐसे ढूँढ़ रही थी जैसे सुबह वह खुद ही कहीं रखकर भूल गई हो।
पर उस दिन माँ को किसी और चीज़ की याद नहीं आई थी। डाँका कुछ आश्वस्त हो चली थी कि अचानक माँ ने मेज़ की एक दराज़ खोलते हुए पूछा था : ‘‘अरी डाँका, तुम्हारे पिता जी का यहाँ खत पड़ा हुआ था, कहाँ गया ?’’ ‘‘खत....’’ डाँका चौंक उठी। ‘‘कल तुम्हारे पिता का खत आया था कि अब वह बड़ी जल्दी आ जाएगा, मैंने कल तुम्हें बताया नहीं था ?’’ ‘‘नहीं।’’ ‘‘फिर खुशी में भूल गई हूँगी ? मैंने यहाँ मेज की दराज में रखा था...’’ डाँका को लगा—जैसे माँ को रात कोई सपना आया हो। ‘‘बोलती क्यों नहीं ? तुमने लिया है खत ?’’ मैं पूछ रही थी, पर डाँका से कुछ बोला नहीं जा रहा था। माँ फिर खुद ही पूछ रही थी, ‘‘पैरिस से आया था ना ?’’ और खुद ही दलीलों में पड़कर कह रही थी, ‘‘वहाँ से इटली ना चला जाए, अगर इटली चला गया...’’
‘‘इटली....’’ डाँका ने माँ का ध्यान दूसरी तरफ लगाने के लिए धीरे-से कहा, ‘‘माँ, तुम कभी इटली गई हो ?’’ ‘‘नहीं, पर मुझे यह पता है कि इटली गया मर्द जल्दी नहीं लौटता। कई तो लौटते ही नहीं। क्या पता तुम्हारे पिता भी....’’ और माँ कुछ ऐसी दलीलों में पड़ गई थी कि वह खड़ी नहीं रह सकी थी। वह पलँग की एक बाँही पर गुमसुम-सी बैठ गई थी। डाँका के लिए माँ की यह हालत भी बुरी थी, जब वह पत्थर सी हो जाया करती थी। उसने माँ को एक असीम चुप्पी से बचाने के लिए पूछा, ‘‘पर माँ, लोग इटली जाकर लौटते क्यों नहीं ?’’ माँ कितनी ही देर उसके मुँह की तरफ देखती रही, फिर हँस-सी पड़ी, ‘‘मर्द किसी देश भी जाए, उसकी औरत डरती नहीं, पर अगर इटली जाए तो औरत को उसका भरोसा नहीं रहता...’’ ‘‘पर क्यों ?’’ डाँका भी हँस-सी पड़ी थी।
‘‘तुम तो पगली हो,’’ माँ को यह बात बताने में शर्म-सी आ रही थी, पर फिर वह संकोच में कहने लगी थी, ‘‘इटली की औरतें मर्दों पर जादू कर देती हैं।...’’ और फिर माँ ने एक गहरी साँस लेकर कहा था, ‘‘हाय रे ! वह कहीं इटली न चला जाए ! फिर मैं उमर-भर यहाँ इंतजार करती रहूँगी...वह नहीं आएगा...’’ उस दिन अकेले बैठकर डाँका ने जिंदगी में पहला सिगरेट पिया था.....