3 / अमृता प्रीतम
‘‘सिगरेट का इतिहास कौन लिखेगा ?’’ डाँका को एक ख्याल-सा आया, ‘‘देखने को लगता है कि सिगरेट का इतिहास उसके नाम में होता है। अलग-अलग नाम में, अलग-अलग ब्रांड में—किसी का इतिहास पैंतीस वर्ष का, किसी का पचास वर्ष का—फिल्मों में जब किसी का इश्तिहार रहता है, उसका इतिहास ऐसे ही बताया जाता है—पर यह सिगरेट का इतिहास कैसे हुआ ? यह तो उस कंपनी का विशेष इतिहास हुआ...’’ डाँका ने हाथवाले सिगरेट की आखिरी आग से एक और सिगरेट सुलगाया और सोचने लगी, ‘एक बार मेरे पिता ने मुझे खुद बताया था कि उसने पहला सिगरेट अपनी पहली कमाई के जश्न के मौके पर पिया था। उस दिन वह बहुत खुश था। पढ़ाई के दिनों में उसने इस तरह से संयम रखा था और मन से इकरार कर लिया था कि जब तक वह अपनी हथेली पर अपनी कमाई के पैसे नहीं रखेगा, तब तक वह सुख की कोई चीज़ नहीं खरीदेगा...सो उसके लिए यह सुख की निशानी थी....’
डाँका के सिर को एक चक्कर-सा आया—शायद इसलिए कि उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था। रविवार था, काम पर नहीं जाना था, इसलिए कुछ भी बनाने का उपक्रम नहीं किया था। काफी के प्याले की जगह भी उसने सिगरेट पिया था, रोटी और पनीर के टुकड़े की जगह भी सिगरेट, और सिगरेट की जगह भी सिगरेट। और डाँका को ख्याल आया—कि एक बार उसने खलील जिब्रान की एक किताब में पढ़ा था, खलील के अपने हाथों का लिखा हुआ खत, कि उसने एक दिन में दस लाख सिगरेट पिए थे.... डाँका फिर ख्यालों में डूब गई—सिगरेट का असली इतिहास यह होता है कि किसी को किस वक्त सिगरेट की तलब महसूस होती है...
और डाँका को पहाड़ी पर का यह गिरजा याद हो आया—जिसमें पत्थरों की कुछ कंदराएँ बनी हुई थीं। कहते हैं कि वर्षों पहले जब यहाँ तुर्कों का राज्य स्थापित हुआ था, लोगों पर बड़े जुल्म हुए थे। तब कुछ विद्वान इन कंदराओं में चले गए थे और तुर्कों की नजर से छुपकर समय का इतिहास लिखते रहे थे....जंगलों के कंद-मूल और तंबाकू के पत्ते खाकर वे गुजारा करते और इतिहास लिखते..... डाँका के मन में, पहाड़ों की कंदराओं में बैठकर इतिहास लिखनेवालों के चेहरे, और खलील जिब्रान का उसकी तस्वीरों में से देखा चेहरा, गड्डमड्ड-से हो गए। सोचने लगी—सो यह भी सिगरेट का इतिहास है—किसी रचना के जरूरत के वक्त... फिर एक और याद उसके बदन में झुरझुरी-सी पैदा कर गई। यह कोमारक की याद थी। उसके अन्दर भूख की एक लहर दौड़ गई—‘‘एक जिस्म को रोटी की भूख भी लगती है और दूसरे जिस्म की भी....’’
डाँका ने सिगरेट का लंबा कश लिया, और आँखें मींच लीं। हाथ, वहीं उसके होंठों के पास सो-सा गया। सिगरेट के साथ इकट्ठी होती रही राख जब झड़कर उसके मुँह पर गिरी तो उसकी तपिश से वह चौंक उठी। ‘‘कम्बख्त न जाने कहाँ होगा ?’’ डाँका के मन में कुछ हुआ तो उसे लगा—उसके कमरे की दोनों खिड़कियाँ अचानक बंद हो गई थीं। और हर शब्द जो आगे की खिड़की में से बाहर चला गया था, हमेशा के लिए बाहर रह गया था। और हर अर्थ जो आगे की खिड़की में से बाहर चला गया था, हमेशा के लिए बाहर रह गया था...... कमरे में सिगरेट जलता रहा, डाँका सुलगती रही.... ‘‘सिगरेट का इतिहास...’’ डाँका की आँखों के आगे धुंध-सी छा गई—शायद सिगरेट का धुआँ। ‘‘यह पल, यह घड़ी...इस जैसे कई पल, कई घड़ियाँ...ये भी सिगरेट का इतिहास है...बेशक इनके लिए शब्द भी कोई नहीं, और अर्थ भी कोई नहीं....’’
डाँका ने पोरों में थामे हुए सिगरेट के आखिरी टुकड़े को वहीं फेंक दिया। वह खुद बुझे हए सिगरेट की तरह वहीं निढाल हो गई जहाँ बैठी हुई थी। ‘‘डाँका तुम्हें मेरी कसम, अपना ध्यान रखना। बोलो रखोगी ?’’ ‘‘रखूँगी।’’ ‘‘यह मैं तुम्हें अमानत दे रहा हूँ।’’ ‘‘अमानत ?’’ ‘‘यह मेरी डाँका मेरी अमानत।’’ डाँका बुझी हुई भी सुलग उठी। उसके कानों में कोमारक की आवाज़ भर रही थी। ‘‘कोमारक कहाँ है ? कहीं भी नहीं...’’ डाँका का मन व्याकुल हो उठा, ‘‘यहाँ सिर्फ मैं रह गई हूँ, और उसकी आवाज़...’’ डाँका को बेचैनी भी महसूस हुई, एक चैन-सा मिला, ‘‘अगर व्यतीत की कुछ आवाजें भी आदमी के पास न रहतीं, आदमी का क्या बनता...’’
साथ ही डाँका को अपना इकरार याद हो आया कि वह कोमारक की अमानत थी, और उसे अमानत का ध्यान रखना था। उसने उठकर कॉफी का प्याला बनाया, पनीर का एक टुकड़ा प्लेट में रखा, और जब खाने लगी, उसे याद हो आया—कोमारक की जो नज़म कभी जल्सों में बड़े जोश के साथ सुनी जाती थी, वह नज़म लिखते वक्त उसने कोई एक सौ सिगरेट पिए थे। कोमारक घर में भी कभी-कभी वह नज़म बड़े मन से पढ़ा करता था— ‘‘मैं शहीदों की कबर पर जाकर इक छुरी तेज़ कर रहा हूँ— इस छुरी के दम से, इक बगावत आएगी ‘औ’ उनके लहू का बदला चुकाएगी...’’ और डाँका हँसा करती थी,’’ एक नज़म लिखते हुए तुमने एक सौ सिगरेट पिए हैं, अभी तो तुम छुरी को तेज़ ही कर रहे हो, जब इससे बगावत लाओगे तब कितने सिगरेट पिओगे ?’’ पुरानी हँसी में से डाँका को नई रुलाई आ गई, ‘‘इन सिगरेटों का इतिहास कौन लिखेगा ? ये जो कोमारक ने इस नज़म को लिखते वक्त पिए थे ?’’
डाँका ने कॉफी का आखिरी घूँट भरा, और फिर एक सिगरेट पीते हुए ख्यालों में डूब गई—‘‘इस नज़म का इतिहास भी कौन जानता है ? उसने ना जाने किसके लिए लिखी थी, लोगों ने किसके लिए समझी....’’ ‘‘लोग जब इस नज़म पर तालियाँ बजाते हैं, मैं कुछ हैरान हो जाता हूँ,’’ कोमारक कहा करता था। ‘‘वे समझते हैं, यह जो बगावत है, यह नज़म उसका इतिहास है, ’’ डाँका उसे जवाब दिया करती थी। ‘‘यही तो मुश्किल है, यह जो कच्ची-पक्की-सी बगावत आई है, इससे क्या बदला है ? हुक्म नहीं बदले, सिर्फ हाकिमों के मुँह बदले हैं,’’ कोमारक की आवाज़ कुछ ऊँची हो जाया करती थी। डाँका उसकी आवाज को अपने होंठों से ढँक दिया करती थी, ‘‘खुदा का वास्ता है, यह बात और किसी के आगे न कहना।’’ ‘‘मुझे कुछ भी कहने में विश्वास नहीं, सिर्फ करने में विश्वास है,’’ कोमारक हँस पड़ा करता था। ‘‘पर तुम्हारे-मेरे किए क्या होता है,’’ डाँका उदास-सी हो जाया करती थी।
‘‘तुम्हें एक बात बताऊँ ?’’ एक दिन कोमारक ने आचनक ऐसे कहा था कि डाँका बिलकुल ही नहीं जान सकी थी कि वह कौन-सी बात कहने लगा था, जिसका पहले उसे पता नहीं था। ‘‘क्या ?’’ ‘‘वह मेरी नज़म है ना...’’ ‘‘कौन-सी ? मरे हुओं की कबर पर छुरी तेज़ करनेवाली कि कोई और ?’’ ‘‘वही।’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘यह बड़ी देर से मेरे मन में थी, तब से जब इस पिछली बगावत का चेहरा कुछ निखर रहा था...’’ ‘‘सो यह नज़म इसी की देन है ?’’ ‘‘जब कल्पना की थी, तब इसी की थी, पर जब लिखी तो इसकी न रही।’’