अवैध सम्बंध / पवित्र पाप / सुशोभित

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अवैध सम्बंध
सुशोभित


स्त्री और पुरुष का सम्बंध बहुत जटिल और बहुस्तरीय होता है।

मंशा, मक़सद, ज़रूरत, नीयत के आधार पर हर सम्बंध दूसरे से भिन्न होता है।

इसमें किसी भी तरह के फ़ौरी फ़ैसले सुना देना अधैर्य, अपरिपक्वता और किसी न किसी तरह की कुंठा व मनोगत रूढ़ि के बिना सम्भव नहीं है।

तब इनको लेकर किसी सामान्यीकृत क़ानून की बात तो रहने ही दीजिए।

कितने आश्चर्य की बात है कि हम सम्बंधों को भी वैध और अवैध के रूप में श्रेणीबद्ध कर देते हैं।

अवैध संबंध शब्द का इस्तेमाल तो हम ऐसे करते हैं जैसे विवाह के दायरे में हर चीज़ वैध है और उससे बाहर हर चीज़ अवैध। जैसे विवाह नामक रस्म के निर्वाह भर से एक स्त्री और एक पुरुष के बीच सब कुछ ठीक हो जाता है। विवाह न हुआ, नैतिकता का लाइसेंस हो गया।

जबकि, हर वह संबंध - जिसमें परस्पर प्रेम, चाहना, सम्मान, सहमति, बराबरी न हो - अवैध है, और चूंकि करोड़ों अरबों वैवाहिक संबंध ऐसे ही हैं, इसलिए वे अवैध सम्बंध हैं!

और अगर किन्हीं विवाहेतर संबंधों में ये सब मूल्य हैं, तो वे संबंध वैध हैं!

अभी हमारा तरीक़ा ये है कि विवाह नामक संस्था के माध्यम से दो लोगों को एक-दूसरे से बांध दो, उनकी सेक्शुअलिटी को रेगुलराइज़ कर दो, उनको बहुत सारी गिल्ट-ट्रिप दे दो, नैतिकता के मानक स्थापित कर दो और फिर यह उम्मीद करो कि सबकुछ ठीक रहे। किंतु क्या सबकुछ ठीक है? सच तो यह है कि एक व्यापक समाज के रूप में हम मानसिक जड़ताओं से ग्रस्त हो चुके हैं।

एक थी धारा 497, जो कहती थी कि--

-विवाहेतर सम्बंध दंडनीय अपराध हैं।।।

-अगर स्त्री के पति की सहमति इस सम्बंध के लिए ना हो तो।।।

-अन्यथा, स्त्री के प्रेमी को इसके लिए दोषी ठहराया जाएगा।

यह एक आपराधिक क़ानून था, छद्म नैतिकता और भयानक सामान्यीकरण से आविष्ट। यह समीचीन ही था कि वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया।

यह क़ानून यह घोषणा करता था कि एक बार विवाह बंधन में बंधने के बाद आपके जीवन में प्रेम की कोई संभावना शेष नहीं रह जाती है। फिर चाहे विवाह में कितनी ही कुंठाएं क्यों न हों। जैसे कि विवाह नामक संस्था के भीतर जो कुछ होता है, वह सब पवित्र और नैतिक है?

दो व्यक्ति एक-दूसरे के साथ रहते हैं तो वह एक निजी-अनुबंध होता है, उसमें कोई किसी का स्वामी और दास नहीं होता। अगर दोनों जीवनभर एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहना चाहें तो यह उनकी आज़ादी और चयन है। अगर उनमें से एक को या दोनों को अन्य साथी के प्रति आकर्षण होता है तो यह भी स्वाभाविक ही है। अगर वे इस अदम्य आकर्षण के बावजूद व्यापक पारिवारिक, सामाजिक हितों और ख़ासतौर पर अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए स्वयं पर अंकुश लगाने का निर्णय करते हैं, तो यह भी उनकी निजी नैतिकता है। किंतु अगर वे अलग होने का ही निर्णय ले लें, या वैसा न हो पाने की स्थिति में, एक दूसरे के साथ रहते हुए ही विवाहेतर संबंध में लिप्त हो जाएं, तो यह और कुछ हो, दंडनीय अपराध तो हरगिज़ नहीं है।

इतने व्यापक और सुदीर्घ परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखकर हमें बोलना चाहिए- विशेषतौर पर स्त्री-पुरुष सम्बंधों जैसे जटिल और बहुस्तरीय आयामों में।

ख़ासतौर पर इसलिए भी कि कोई क़ानून दो लोगों को एक दूसरे से जोड़कर नहीं रख सकता, और अगर रखता है तो वैसा संबंध अवैध माना जाना चाहिए।

और यह भी कि हममें से ना के बराबर लोगों को क़ानूनी धाराओं और उनकी जटिलताओं के बारे में मालूम होता है, और इसलिए हमारी नैतिकताएं और उच्छृंखलताएं हमारे ही द्वारा चुनी जाती हैं। अपनी आकांक्षाओं के प्रति अपराध बोध होना अस्वाभाविक नहीं, किंतु यह चेतना के अभियोग का अंदरूनी मामला होना चाहिए, प्रवाद के भय का नहीं।

ग्लानि अगर अपनी सज़ा स्वयं न हो, तो कोई और सज़ा पर्याप्त भी नहीं है।