विवाह और व्यभिचार / पवित्र पाप / सुशोभित

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विवाह और व्यभिचार
सुशोभित


अपने सबसे लोकप्रिय आशयों में विवाह एक सांस्थानिक-यौनाचार है। अपने उपयोगी होने के छलावरण में- अलबत्ता- वह स्वयं को सामाजिक व्यवस्था का आधार बतलाता है, ये और बात है, और ऐसा नहीं कि उसका यह दावा ग़लत है। किंतु अंतत: है वह यौनेच्छा का संस्थानीकरण ही।

यों देखा जाए तो वेश्यावृत्ति भी एक क़िस्म का संस्थानीकरण है। वह एक विनिमय-तंत्र है, जिसमें यौनेच्छा का नियमन किया जाता है। किंतु वह लोकसम्मत नहीं है। लोक जो है, वह नैतिकता के अपने ही निजी भ्रम रचता है।

इसलिए उसने एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विवाह रचा, जिसमें यौनेच्छा के निर्वाह के साथ ही संतानोत्पत्ति, कुटुम्ब निर्माण, समाज की इकाई के रूप में परिवार के स्वरूप का निर्धारण, व्यक्ति के विकास की प्राथमिक प्रयोगशाला का अस्तित्व आदि प्रयोजन होते हैं। समाज इन्हें पवित्र प्रयोजन मानता है, जबकि इन्हें केवल एक उपयोगी व्यवस्था माना जान चाहिए।

सनद रहे, विवाह के लिए प्रेम को एक अनिवार्यता हमारे समाज के द्वारा नहीं माना गया है।

विवाह के मूल में अगर प्रेम है तो अच्छी बात है, किंतु प्रेम ही होना चाहिए, इसका कोई मानदंड समाज ने तय नहीं किया है। जाति, गोत्र, गुण दोष के मानदंड बहुत हैं, एक प्रेम का ही नहीं है!

और बिना प्रेम के यौनाचार क्या कहलाता है?

विवाह एक व्यवस्था है। व्यवस्था उपयोगी होती है। किंतु जो भी उपयोगी है, वह नैतिक हो, सुंदर हो, सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। इसका दूसरा पहलू यह है कि प्रकृति ने यौनेच्छा को संतानोत्पत्ति के उपकरण के रूप में रचा, मनुष्य ने उसमें प्रेम और सुख के प्रतिमान जोड़ दिए। प्रकृति ने एकनिष्ठा की भी कोई बाध्यता नहीं रखी थी। संतानोत्पादन पर कोई नियंत्रण भी नहीं रखा था। मनुष्य ने समाज के भीतर आने के बाद ये सभी नियम रचे। संसर्ग के लिए प्रेम हो, यह भी आवश्यक नहीं है। किंतु संसर्ग के लिए प्रेम हो, यह सौंदर्यशास्त्रीय नैतिकता के अनुकूल अवश्य है। और जैसा कि मैंने अपनी हाल ही की पोस्ट में यह स्पष्ट किया था, सभ्य मनुष्य के लिए निरी नैतिकता पर्याप्त नहीं है, उसमें सौंदर्यशास्त्रीय नैतिकता का निर्वाह भी आवश्यक है।

विवाह यौनेच्छा का संस्थानीकरण करता है, क्योंकि मनुष्यता के लाखों वर्षों के इतिहास के बावजूद मनुष्य आज तक अपनी यौनेच्छा के प्रति सहज नहीं हो पाया है। उसे वह स्वीकार नहीं कर पाया।

बड़ी विचित्र बात है कि विवाह-पूर्व यौनेच्छा निषिद्ध है। विवाहेतर यौनेच्छा भी निषिद्ध है। उसे व्यभिचार कहकर लांछन लगाया जाता है, पाप कहा जाता है, पतनशीलता कहा जाता है, चरित्रहीनता बतलाया जाता है। किंतु विवाह नामक संस्था के भीतर उसे धर्म, दायित्व, नीति, रीति, नियम स्वीकार लिया जाता है!

यह द्वैधा मनुष्य के भीतर कहां से आई है? प्रकृति ने तो नहीं रची। और समाज-व्यवस्था के प्रति निष्ठा ही इसके मूल में हो, वैसा भी नहीं है। विवाह नामक संस्था का एक प्रयोजन यौनेच्छा के नियमन के साथ ही स्त्री-यौनेच्छा का प्रबंधन भी है। स्त्री की मर्यादाएं विवाह में निश्चित की जाती हैं।

आश्चर्य नहीं है कि विवाह नामक संस्था पर प्रश्न करने भर से पुरुषसत्ता के द्वारा संचालित संरचनाएं बौखला उठती हैं, और जैसा कि मैं बार-बार दोहराता हूं, धर्म पुरुषसत्ता के अपराधों में सहभागी है, इसलिए प्रकारांतर से धर्म भी इसे अपने अस्तित्व पर प्रहार स्वीकार कर लेता है।

जब आप इससे जुड़े प्रश्नों के भीतर उतरते हैं तो पुरुषसत्ता, यौनकुंठा, लोकरीति में कर्मकांडों का प्राधान्य, प्रभावशाली वर्णों का वर्चस्व और धर्म के मनुष्यद्रोही स्वरूप के आयाम, ये सभी परतें एक-एक कर खुलने लगेंगी।

एक मां अपनी बेटी को जीवनभर निर्देश देती रहती है-

-दुपट्टा सम्भाल

-सिर ढांक

-बाल बांध

-हंसकर बात मत कर

-छत पर मत जा

-जल्दी घर लौट आ

-लड़कों से मत घुल-मिल

-नज़र झुकाकर निकल!

माएं अपनी बेटियों की यौनेच्छा से भयभीत होती हैं।

फिर एक दिन यही मांएं विवाह के नाम पर अपनी बेटियों को सजा-संवारकर एक अपरिचित पुरुष के कक्ष में छोड़ आती हैं। किस चीज़ के लिए?

-समाज के लिए?

-परिवार के लिए?

-धर्म के लिए?

-मर्यादा के लिए?

या फिर पुरुष की यौनेच्छा की तुष्टि के लिए, एक वस्तु की तरह?

उस एक चीज़ के लिए, जो अभी तक निषिद्ध थी, और अभी सहसा पवित्र दायित्व बन गई है?

इसे अगर कोई व्यभिचार का संस्थानीकरण कहे तो आपत्ति क्यों होनी चाहिए?

वैसे अवसर पर बेटियां अगर अपनी मां की आंखों में झांककर देख लें कि ‘मां, क्या ये तुम्हीं हो’, तो क्या ये मांएं लज्जित नहीं हो जाएंगी?

पुत्री के कौमार्य की विवाह तक रक्षा -- भारतभूमि की मांएं इस एक बात से आविष्ट हो चुकी हैं, यह कोई कपोल-कल्पना नहीं, घर-घर की सच्चाई है।

प्रेम के बिना, एक सामाजिक अनुबंध के तहत, अपरिचित पुरुष के साथ बलात् संसर्ग अगर पापाचार नहीं है तो और क्या है? आप लाख उस पर आरोपित मूल्यों का मुलम्मा चढ़ाकर उसे महान बतलाने की कोशिश करें, उससे सत्य थोड़े ना बदल जाता है।

मंत्रोच्चार से वैवाहिक बलात्कार थोड़े ना बदल जाता है।

धर्म के नाम पर मनुष्य का शोषण वैध थोड़े ना हो जाता है।

स्त्री के दमन को मान्यता थोड़े ना मिल जाती है।

अब चूंकि संसार में कुछ भी परम-सत्य नहीं होता, इसलिए विवाह नामक संस्था को भी अनेक दृष्टियों से देखा जा सकता है। वैसा भी नहीं है कि विवाह करने वाले सभी स्त्री-पुरुष सुखी नहीं हैं, संतुष्ट नहीं हैं, या प्रेम विवाह की सफलता का प्रतिशत समाज द्वारा निर्धारित विवाह की तुलना में अधिक है। चीज़ों के अनेक पहलू होते हैं और बुद्धिमत्ता का दायित्व चीज़ों की बहुस्तरीयता का उद्घाटन करना ही होता है।

कोई वाक्य, चाहे वह आप्तवाक्य ही क्यों ना हो, किस परिप्रेक्ष्य में कहा जा रहा है, इसका भी आलोकन करना होता है। कुछ तो कारण होगा जो जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने- भले चुटकी लेने के अंदाज़ में ही- कहा था कि ‘विवाह इसलिए लोकप्रिय है, क्योंकि वह अधिकतम लोभ का अधिकतम अवसर से मेल कराता है।’