बलात्कार / पवित्र पाप / सुशोभित

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बलात्कार
सुशोभित


बलात्कार केवल एक अपराध नहीं है, वह एक आपराधिक मनोदशा भी है।

यौन श्रेष्ठता का दम्भ अनंत काल से पुरुष के मनोविज्ञान में पैठा हुआ एक बनैला पशु है। जब तब उभरकर वह सामने आ जाता है। यौन संसर्ग में पुरुष और स्त्री परस्पर प्रेमालाप नहीं करते, पुरुष स्त्री को भोगता है, उसका मर्दन करता है, उसे अपने उपनिवेश की तरह जीत लेता है, यह अहंकार पुरुष के अवचेतन में इतने गहरे बैठा है कि इसकी कोई थाह नहीं है।

अपने यौन वर्चस्व पर एक प्रश्न पूछने भर से वह तिलमिला उठता है। ओढ़ी हुई सभ्यता संस्कृति पलभर में भूलकर बलात्कारी की भाषा बोलने लगता है। अपने पौरुष के बल से ‘तुझे कुचल दूंगा’ का दम्भ!

संसार की समस्त विजय-पराजय, मान-अपमान एक तरफ़ और स्त्री के समक्ष अपनी यौन श्रेष्ठता का ग़ुरूर दूसरी तरफ़। कोई और लालसा पुरुष के मन को यों नहीं ग्रसती, जैसे स्त्री को रौंद देने की हवस।

कहां तो एक समय वह था, जब यौन सम्बंध में स्त्री की सहमति का ही कोई मोल नहीं था। वह दौर आज भी बीत गया है, वैसा नहीं है। फिर भी ‘सहमति से संसर्ग’ काे सभ्यता का एक मानक आज समाज ने स्वीकारा है। ‘रेप’ और ‘मैरिटल रेप’ को इसके सम्मुख अपराध की तरह चिह्नित किया है। ‘ना का मतलब ना’ की बात निकली है और दूर तलक गई है।

किंतु उस पशु के बारे में क्या, जो शिक्षित से शिक्षित पुरुष के भीतर भी अचानक किसी एक असावधान क्षण में जाग उठता है? अक्सर स्त्रियां पुरुषों पर इस आशय का आरोप लगाती हैं कि हर पुरुष सम्भावित बलात्कारी है। यह कथन निश्चित ही अतिरेकपूर्ण और अनेक पुरुषों के प्रति अन्यायपूर्ण भी है।

किंतु इस सच से भला कौन पुरुष अपने भीतर झांककर इनकार कर सकता है कि स्त्री को रौंदकर उसे दंडित करने की भावना उसके भीतर गहरे तक पैठी हुई है?

यौनक्रिया में निहित पुरुष की प्रधानता के भ्रम ने उसके अवचेतन को विरूपित कर दिया है। पुरुष को लगता है कि संभोग में वह प्रथम है, प्रमुख है, प्रदाता है, यद्यपि वैसा है नहीं। संभोग दो प्रणयाकुल व्यक्तियों के बीच घटित होने वाला आवेग का संगीत है, कोई युद्ध नहीं, जैसा कि पुरुष को लगता है!

स्त्री मुक्ति की यात्रा अभी बहुत लम्बी है।

डेढ़ सौ साल पहले तक अमेरिका जैसे देश की संसद में पुरुषों द्वारा इस बात पर विचार मंथन किया जाता था कि स्त्रियों को मताधिकार दिया जाए या नहीं।

उसके बाद से स्त्रियों ने ना केवल मताधिकार पाया है, बल्कि राष्ट्राध्यक्ष भी बनी हैं, सरकारें भी चलाई हैं, घर की दीवारें लांघकर काम करने के लिए बाहर निकली हैं। इस परिघटना ने पुरुष के भीतर मौजूद कुंठा के पशु को और आक्रामक बना दिया है। बलात्कार पहले भी होते थे, आज भी होते हैं, किंतु स्त्री को दंडित करने की जो हवस बलात्कारियों के भीतर आज उग आई है, उसके पीछे कुंठा के उत्तुंग पर्वत हैं।

अपनी पसंद का कपड़ा पहनने, अपनी तरह से जीवन जीने, अपना साथी ख़ुद चुनने, रात-बिरात बाहर निकलने, दुनिया घूमने जैसे बिंदुओं को लेकर तो स्त्री आज भी संघर्ष कर रही है। किंतु स्त्री मुक्ति का आदर्श तब तक पूर्णरूपेण अर्जित नहीं किया जा सकता, जब तक कि संसार के समस्त पुरुषों के मन में दिन की रौशनी की तरह साफ़ यह विवेक जागृत नहीं हो जाता--

कि यौन संसर्ग में स्त्री समान गौरव की अधिकारिणी है!

कि सुखशैया में स्त्री पुरुष से हीन नहीं है!

कि स्त्री की असहमति अनुल्लंघ्य है!

कि स्त्री की सहमति और समर्पण को अर्जित करना पुरुष का वह दायित्व है, जिसे वह बलप्रयोग से कभी नहीं जीत सकता!

और यह कि प्रेम इतनी कोमल और उदात्त भावना है कि इसमें कोई श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं हो सकता!

किंतु जब तक पुरुष के भीतर यौन वर्चस्व का दैत्य जीवित है, तब तक मनुष्यता सभ्यता के मानकों से अगणित प्रकाशवर्ष दूर ही रहेगी!

चौराहे पर पुरुषों का जमघट हो और तभी कोई स्त्री निकलकर जाए तो इनके भीतर जागने वाली पशुता को रेखांकित कीजिए। भीड़ में आकर पुरुष के भीतर का बलात्कारी मुखर हो जाता है, एकांत में अपनी प्रेमिका के साथ कॉफ़ी पीते हुए यही पुरुष फिर सभ्यता का स्वांग करेगा।

अपनी मित्र मंडली में स्त्री के लिए पुरुष किन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उसका पता लगाइए, बशर्ते वह ख़ुद की ही मां बहन पत्नी न हों। इनके अलावा शेष स्त्रियां इनके लिए चीज़ है, माल है, वस्तु है।

अपनी प्रेमिका को किस तरह से मित्रों के बीच एक जीती हुई ट्रॉफ़ी की तरह वे दिखाते हैं। उसकी तस्वीरों और क्लिप्स की नुमाइश करते हैं। खोज कीजिए।

किसी को गाली देना हो तो मैं तुम्हारी मां की योनि का मानमर्दन कर दूंगा, यह पुरुष के भीतर कहां से आता है? किस कंदरा से? स्त्री तो ऐसे नहीं सोचती।

यौन प्रतीकों से जुड़े कटाक्ष सुनिए। यौन अक्षमता को रोग नहीं अपने अस्तित्व पर प्रश्न समझ लेना, नपुंसकता को गाली की तरह बरतना, यह पुरुष मनोविज्ञान का आदिम संसार है।

स्त्री को रौंदने और उस पर विजय प्राप्त करने की भाषा पुरुष के अवचेतन में हज़ारों लाखों सालों से धंसी हुई है, इससे मुक्त होने की कोई निकट भविष्य में आशा दिखाई नहीं देती।

पुरुष तो प्रेम का छल भी स्त्री पर विजय प्राप्त करने की हवस से करता है। स्त्री शैया में ना मिले तो कहता है कि समय बरबाद हुआ।

संसर्ग के लोभ के बिना पुरुष प्रेम करने में वैसे ही अक्षम है, जैसे घड़ियाल पेड़ पर नहीं चढ़ सकते!