ईव-टीज़िंग / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
मनुष्य के मनोविज्ञान में ही कुछ ऐसा है कि भीड़ में आकर वह ख़ुद को उन्मुक्त अनुभव करता है।
एक बार की बात है। मैं नौवीं कक्षा का छात्र रहा होऊंगा। लड़कों का सरकारी स्कूल था। छुट्टी के बाद हम सभी सहपाठी साथ चले जा रहे थे। सामने से एक लड़की आती दिखलाई दी। इधर लड़कों का समूह हो और उधर से कोई लड़की निकल जाए तो कुछ ना कुछ प्रतिक्रिया की ही जाती है, कोई आदिम वृत्ति जाग उठती है। मित्रों के समूह में एक लड़के का नाम सलीम था। लड़की निकली तो समूह के नेता ने ऊंची आवाज़ में कहा- ‘देख सलीम, तेरी अनारकली जा रही है!’ मैं सन्न रह गया। काटो तो ख़ून नहीं। लड़की नज़र बचाकर चली गई, पर मुझको लगा अगर वो आंख उठाकर देखेगी तो सीधे मुझी पर उसकी नज़र पड़ेगी। मैं उसे जानता नहीं था। वह मेरे मोहल्ले में नहीं रहती थी। उस दिन के बाद मैंने उसे फिर नहीं देखा, फिर भी शर्म से गड़ गया। अगले दिन से उस समूह से दूरी बना लेना उचित समझी।
जब लड़कों का समूह किसी लड़की पर छींटाक़शी करता है, तो उसमें शामिल कितने लड़कों को शर्म आती है? कितने उसका विरोध करते हैं? कितने चुपचाप उस ग्रुप से दूरी बना लेते हैं? यह तो सम्भव नहीं हो सकता कि सभी की इस तरह की चीज़ों में सहमति होती हो। या सबको इस तरह की चीज़ों पर नाज़ हो। यहां संकेत उन तमाम समूहों की ओर है, जिनके दबाव में आकर हम बुराई का प्रतिकार नहीं करते।
इसके बहुत साल बाद और एक घटना घटी। मेरे एक मित्र ने नई मोटरसाइकिल ली। मेरे पास साइकिल थी। मैं साइकिल रखकर उसके साथ घूमने निकला। नई मोटरसाइकिल का एक नशा होता है। नई उम्र के जाने कितने नौजवानों की गफ़लत का राज़ तो उनकी मोटरसाइकिल में ही है, वह उन्हें एक क़िस्म की ऊर्जा और ताक़त का बोध कराती है और उनकी जाग्रत चेतना को क्षीण करती है। तो हम चले जा रहे थे। सामने से दो लड़कियां निकलीं। मेरे मित्र ने हॉर्न बजाकर एक फ़िकरा कसा। मैं बैकसीट पर था। मैंने कहा, यह क्या बेहूदगी है? उसने कहा, ये लड़कियां तुम्हें जानती थीं? मैंने कहा, नहीं जानती तो नहीं थीं, पर ऐसी हरकतें अच्छी बात नहीं। उसने मेरा मखौल उड़ाते हुए कहा, वैसे भी ये सब पुरुषों के काम हैं, ये तुम्हारे बस का रोग नहीं।
समूह में, मित्र मण्डलियों में जो बुराइयां प्रवेश कर जाती हैं, उनके पीछे एक कारण यह भी है कि आप वह ना करें, जो शेष सभी कर रहे हैं तो वो आपका मखौल उड़ाएंगे। आपके व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाएंगे। आपके अस्तित्व को चुनौती देंगे। कहेंगे, जिसमें दम होगा, वो ये करेगा। इसी तरह सिगरेटें आगे बढ़ाई जाती हैं, इनकार करने वाले को भोंदू कहा जाता है। शराब पेश की जाती है। लड़कियों पर फब्तियां कसी जाती हैं। दोस्ती का हवाला दिया जाता है। गुलज़ार की फ़िल्म मेरे अपने में दृश्य है कि विनोद खन्ना प्रेमिका के साथ बैठा है। शत्रुघ्न सिन्हा विनोद खन्ना का दोस्त है। वह आता है और छेड़ख़ानी करता है। विनोद नाराज़ हो जाता है। शत्रुघ्न कहता है, वाह बेटा, लड़की के चक्कर में दोस्त पर बिगड़ रहे हो? यहां उसका आशय यह है कि लड़कियां तो आती-जाती रहती हैं, लेकिन दोस्ती बड़ी चीज़ है। और दोस्ती बने रहे, इसके लिए आपको दोस्तों जैसा बनना चाहिए, उनसे अलग दिखने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
इसके पीछे भी फिर बहुत सारे मनोवैज्ञानिक कारण हैं। नौजवानों को मित्रमण्डली की ज़रूरत होती है। सौभाग्य से मुझे मण्डली की तो क्या किसी मित्र की भी कभी नहीं हुई। किंतु अपने आसपास देखता हूं तो पाता हूं कि नए रंगरूटों की मण्डली में नेक सलाह देने वाले कम ही होते हैं। उनसे कोई बिगाड़ भी नहीं करना चाहता। कच्ची उम्र में एक भ्रम यह भी मन में रहता है कि शायद ये सब चीज़ें करना अच्छी बात है। इसमें किसी तरह की शान है। शरतचंद्र के नॉवल में जब इंद्रनाथ श्रीकांत से मिलता है तो सूखी भांग आगे बढ़ाता है। इनकार किए जाने पर कहता है, तू भांग नहीं खाता? कहां का गधा है रे? सत्रह-अठारह की उम्र में गधा कौन कहलाना चाहेगा?
नहीं, मैं ये नहीं करूंगा, क्योंकि यह बुरा है- वैसा कहने का साहस और आत्मविश्वास इधर दिन-ब-दिन क्षीण होता गया है। नेकी मखौल का और बुराई गर्व का विषय बनती चली गई है। शराब या सिगरेट पीना बुरा है, ऐसा नहीं कहता हूं, किंतु मित्रों के दबाव में आकर वह सब कर बैठना तो सचमुच ही बुरा है। यह तो कठपुतलियों जैसा बर्ताव हुआ।
लड़कपन और किशोरावस्था की उपरोक्त वर्णित दो घटनाओं के बहुत सालों बाद वैसी ही एक और घटना घटी। एक लेखक मेरे शहर आए। मैं उन्हें सुनने नहीं जा सका, किंतु परिचित थे, इसलिए वे जिस होस्टल में ठहरे थे, वहां मिलने पहुंचा। बहुत प्रसन्नचित्त होकर भीतर प्रवेश किया, किंतु वहां का दृश्य देखकर अवाक् रह गया। वहां रसरंजन की बैठक सजी थी। प्याले टकराए जा रहे थे। मुझे देखकर सब चौंके। शराबियों की महफ़िल में किसी होश वाले का आ जाना उनको वैसे ही नागवार होता है, जैसे होश वालों की मेहफ़िल में किसी बेमुरौव्वत का चले आना। लेखकों में से एक मित्र देवास के थे, वो लपककर आगे बढ़े और गले लगाया। फिर शराब का गिलास पेश किया। मैंने कहा, मैं नहीं पीता तो इससे आहत हुए। अरे, लेखक होकर नहीं पीते? उन्होंने बलपूर्वक शराब पिलाने की चेष्टा की। मैंने आग्रहपूर्वक उन्हें दूर धकेला। सभा में एक क़िस्म का तनाव व्याप्त हो गया। मैं समझ गया कि मुझे अब इन्हें अधिक असहज नहीं करना चाहिए, और वहां से चला आया।
लेखक होकर शराब नहीं पीते? इस तरह के वाक्य मैंने जीवन में बहुत सुने हैं। चीज़ों और आदतों के श्रेणीकरण की यही वह प्रवृत्ति है, जो ग्रुप्स का निर्माण करती है। इसी तर्ज़ पर, अरे राजपूत होकर मांस नहीं खाते? ठाकुर हो या बनिया हो? घास-फूस पर ही गुज़ारा करते हो? या सिगरेट नहीं पीते? कभी कोई नशा नहीं किया? कैसे आदमी हो? आदमी हो या पायजामे हो?
ऐसे अवसर पर यह कह देना भला है कि जैसा आप ठीक समझें, किंतु मैं तो यह नहीं करता। ख़ुद को विड्रॉ कर लेना, ग्रुप का हिस्सा बनने से इनकार कर देना, मज़ाक़ का विषय बनने के लिए तैयार रहना, यह कहना कि मुझे आपकी मित्रता से हर्ज नहीं है, पर दोस्ती की ख़ातिर मैं यह सब नहीं कर सकूंगा, और आपको लगता है कि इससे मैं आपकी मित्रता के योग्य नहीं तो यही सही, मुझे क्षमा कीजिये- इस सब की आदत हममें निरंतर विकसित होनी चाहिए।
मनुष्य ने हमेशा ही व्यक्तिगत नैतिकता और सामुदायिक दबावों के बीच स्वयं को दोराहे पर पाया है, लेकिन नौजवान इसमें दूसरों की तुलना में अधिक वल्नरेबल हैं। मैं आज के नौजवानों को देखता हूं तो पाता हूं, वो सभी एक जैसी भाषा बोलते हैं, एक जैसी वेब सीरीज़ देखते हैं, एक जैसी किताबें पढ़ते हैं, उनके चिल और हैंगआउट की आदतें और ठिकाने समान हैं। लेकिन अपने व्यक्तित्व को दूसरों में यों मिला देना भी ठीक नहीं कि पृथक विवेक का ही लोप हो जाए। क्योंकि कोई दो लोग, उनकी जीवन-यात्राएं एक जैसे नहीं हो सकते। सेल्फ़ इंट्रोस्पेक्शन हमेशा चलते रहना चाहिए। हमेशा ख़ुद से यह पूछते रहना चाहिए कि भले मेरे सौ दोस्त ऐसा करते हों, लेकिन क्या यह करना सच में सही है? एक नोटबुक मेंटेन करनी चाहिए, आज मैंने क्या किया यह उसमें लिखना चाहिए, सब कुछ को परे हटाकर ख़ुद को लगातार तौलना चाहिए।
दोस्तों और संगी-साथियों की ख़ुशी के लिए, उनकी नज़र में बने रहने के लिए कुछ भी करने की एक सीमा है। आख़िर में तो महत्व इसी बात का होगा कि हम अपने आपको कैसे देखते हैं, और अपनी नज़र में हम क्या हैं।