प्यार और नाज़ीवाद / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
फ्रांसीसी कथाकार और चिंतक मिशेल वेलबेक (Michel Houellebecq) ने एक बहुत पते की बात कही है। उन्होंने कहा है कि स्त्री-पुरुष के परस्पर शारीरिक आकर्षण (जिसे कि ‘साधुभाषा’ में ‘प्यार’ कहा जाता है) के जो बुनियादी मानदंड हैं -- जैसे कि ‘यूथ’, ‘ब्यूटी’, ‘स्ट्रेंग्थ’ -- ये ऐन वही मानदंड हैं, जो कि ‘नाज़ीवाद’ और ‘फ़ासिज़्म’ के मूल में हैं। वेलबेक ने एक बहुत बुनियादी प्रवृत्ति की ओर इंगित किया है। क्योंकि निश्चित ही बहुधा दैहिक आकर्षण का स्वरूप ‘सर्वसत्तावादी’ या ‘अधिनायकवादी’ होता है और ‘सेक्शुअल प्रिफ़रेंस’ गहरे अर्थों में ‘रेसिस्ट’ होते हैं। संकोचवश ही हम इस पर बात नहीं करते।
पुरुष स्त्री के प्रति तब तक आकर्षित नहीं होता, जब तक कि उसे वह ‘सुंदर’ ना लगे। स्त्री पुरुष के प्रति तब तक नहीं आकर्षित होती, जब तक कि वह उसे ‘शक्तिशाली’ ना लगे। अलबत्ता ‘ब्यूटी’ और ‘स्ट्रेंग्थ’ के इन मानदंडों को सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता और हर व्यक्ति के लिए ये अलग-अलग होते हैं, लेकिन बहुधा कथित ‘प्रेम’ के मूल में यही होता है।
विकासवाद ने कहा था, जो ‘फ़िट’ है, वही ‘सर्वाइव’ करेगा। नाज़ीवाद ने कहा था, जो ‘नस्ली’ रूप से श्रेष्ठ है, वही जीवन का हक़दार है। दैहिक प्यार कहता है, जो ‘मानदंडों’ पर खरा है, मैं उसी को मिलूंगा। और ये ‘मानदंड’ क्या हैं? यक़ीनन, ‘प्यार’ में ‘नाज़ीवाद’ जैसा कुछ भयावह तत्व होता है, जो हाशिये के ‘एलीमेंट्स’ को किनारे कर आगे बढ़ जाता है। सफल पुरुष सुंदर स्त्रियों को जीत लेते हैं। और इसके बाद जो श्रेणियां बचती हैं, वे अपने लिए अनेक समझौतों और व्यवहारकुशलताओं और संतोषप्रियता और मितव्ययिता के गुणों के निर्वाह की कथाओं में विचरती रहती हैं। प्यार में ‘लूज़र्स’ के लिए लिए कोई ‘आरक्षण’ नहीं होता। रोलां बार्थ ने अपनी किताब ‘माइथोलॉजीज़’ में लिखा है कि मार्लन ब्रांडो की फ़िल्म ‘जूलियस सीज़र’ देखते समय अचानक मेरा ध्यान इस बात पर गया कि सभी पुरुष अभिनेताओं के माथे पर ‘फ्रिन्ज’ हैं, बालों की लट है, क्योंकि ऐसा लोकप्रिय ‘मिथ’ बन गया है, कि ‘रोमन’ ऐसे ही दिखते थे। दुनिया इसी तरह के अनेक लोकप्रिय मिथकों, अवधारणाओं, परिकल्पनाओं, ‘एज़म्प्शंस’ और ‘हाइपोथिसीस’ के आधार पर चलती है। मिसाल के तौर पर, ‘पोर्नोग्राफ़ी’ में एक पॉपुलर ‘कैटेगरी’ है : ‘ब्लैक मैन, व्हाइट गर्ल।’ वो इसलिए कि यहां पर ‘लोकप्रिय मिथक’ यह है कि ब्लैक मैन ‘स्ट्रॉन्ग’ होता है और व्हाइट गर्ल ‘आकर्षक’ होती है। ‘लिबरल्स’ इस पर उचककर कह सकते हैं कि देखिए, यहां पर तो परंपरागत ‘रेशियल बैरियर्स’ टूट रहे हैं। लेकिन इन ‘बैरियर्स’ के भीतर श्रेष्ठता की जिन ख़तरनाक ‘श्रेणियों’ का निर्माण हो रहा है, वहां तक पहुंचने के लिए तो ख़ैर मिशेल वेलबेक जैसी मेधा चाहिए।
‘उन्नत नस्ल’ नाज़ी भावबोध के मूल में है। यही ‘पोर्नोग्राफ़ी’ के मूल में भी है। और बहुत मज़े की बात है कि यही उस ‘प्रेम’ का क्राइटेरिया भी है, जो लोकप्रिय फ़िल्मों में दिखाया जाता है। वहां पर भी आपको ‘उम्दा नस्ल’ के नायक-नायिका मिलेंगे। बद्रीनाथ भी ‘रेशियली सुपीरियर’ है और उसकी ‘दुल्हनिया’ भी! आपको लगता है कि ये ‘क्यूट कपल्स’ हैं, जबकि वहां पर विशुद्ध ‘नाज़ीवाद’ है!
लेनी रेफ़ेंस्तॉल ने हिटलर के निर्देश पर ‘नाज़ी जर्मनी’ पर एक फ़िल्म बनाई थी : ‘ट्रायम्फ़ ऑफ़ विल’। वो देखने लायक़ शै है। उसमें उसने बहुत ब्योरेवार दिखाया कि देखिए जर्मन नौजवान कैसे कसरत कर रहे हैं, कैम्प में खेल रहे हैं, सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। पुरुषत्व की प्रासंगिकता का यह बुनियादी नाज़ी पूर्वग्रह है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के भीतर सुस्पष्ट ‘फ़ासिस्ट ट्रैट्स’ हैं। एक जगह वे स्पीच दे रहे थे। बीच में एक बच्चा रो पड़ा। ट्रम्प ने कहा, ‘वॉव, सच अ हेल्दी किड!’ ट्रम्प को बच्चे की निर्दोष मासूमियत नहीं दिखी, उसकी निष्कवच सुंदरता नहीं दिखी, उन्हें एक ‘स्वस्थ’ बच्चा दिखाई दिया। यह एक ‘नाज़ीवादी’ दृष्टि है, जिसका पूर्वग्रह यह है कि बच्चों को बड़े होकर या तो फ़ैक्टरी में काम पर लग जाना चाहिए या आर्मी में भर्ती हो जाना चाहिए। बाय द वे, ‘फ़ैक्टरी’ और ‘आर्मी’ का यह द्वैत आप ‘सोवियत’ सत्ता सहित तमाम कम्युनिस्ट शासनतंत्रों में भी देख सकते हैं। मेरा तो मानना ही है कि कम्युनिस्ट ‘प्रच्छन्न फ़ासिस्ट’ होते हैं।
जिस दुनिया में वैवाहिक स्तंभों में पुरुष अपनी ‘सेक्शुअल प्रिफ़रेंस’ का खुलकर उल्लेख करते हों (‘गोरी कन्या’ चाहिए), वहां पर आपके मन में प्रेम के बुनियादी मानदंडों पर सवाल क्यों नहीं उठने चाहिए? और जब आप सवाल उठाते हैं तो इसके लिए दोष ‘पुरुष सत्ता’ को देते हैं, जैसे कि अपनी ‘सेक्शुअल प्रिफ़रेंस’ को उन्होंने ‘आविष्कृत’ किया है, जबकि वे तो उसके ‘विक्टिम’ हैं। एक तरफ़ ‘लिबरल्स’ यौन मुक्ति की हिमायत करते हैं, दूसरी तरफ़ वे पुरुषों के ‘सेक्शुअल प्रिफ़रेंस’ की मलामत भी करते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे इस बात को समझने में चूक जाते हैं कि ‘यौन रुझानों’ के भीतर सौंदर्य और श्रेष्ठता के गहरे ‘नाज़ीवादी’ पूर्वग्रह होते हैं। नंदिता दास ‘फ़ेयरनेस क्रीम्स’ के विरुद्ध एक अभियान चला रही हैं, लेकिन अगर ‘फ़ेयरनेस क्रीम्स’ स्त्रियों को पुरुषों की ‘सेक्शुअल प्रिफ़रेंस’ के अनुरूप बनाने में सहयोग कर रही हैं तो आप चाहे जितने अभियान चला लें, यह बंद नहीं होने वाली। क्योंकि ये बहुत बुनियादी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं।
नंदिता दास निश्चित ही पुरुषों से यह मांग तो नहीं करना चाहती होंगी कि वे अपनी ‘सेक्शुअल प्रिफ़रेंस’ में बदलाव करें। जबकि वे स्वयं सांवली त्वचा वाली आकर्षण की एक दूसरी ‘पुरुष-फैंटसी’ की पर्याय रही हैं और उन्होंने कभी उसका प्रतिकार नहीं किया। प्रसंगवश, अपने ‘यौन रुझानों’ के बारे में खुलकर बात करने वाली लड़की ‘इंडिपेंडेंट’ कहलाती है और अपने ‘यौन रुझानों’ का उल्लेख करना वाला पुरुष ‘रेसिस्ट’ कहलाता है। ख़ैर!
आप ‘पितृसत्ता’, ‘रेसिज़्म’, ‘सेक्सिज़्म’ जैसे नारेबाज़ मुहावरों में दाख़िल होने के बजाय मिशेल वेलबेक की तरह यह देखने का प्रयास क्यों नहीं करते कि ‘दैहिक आकर्षण’ के मूल में ही कितनी ख़तरनाक प्रवृत्तियां हैं, जो मनुष्यता के एक व्यापक वृत्त को निरंतर और ‘समारोहपूर्वक’ हाशिये पर विस्थापित करती रहती है। आप यह प्रश्न ही क्यों नहीं पूछते कि क्या ‘सेक्स’ की बुनियादी मांगों और ज़रूरतों में ही तो कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं। चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश कीजिए और अपनी नज़र पर धार रखिए। ‘सबाल्टर्न’ रेटॅरिक में बिला जाना तो ख़ैर सबसे आसान होता है।